Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

चोर का माल चंडाल खाए

छत्तीसगढ़ नया-नया राज्य बना था। तब के एक धुरंधर नेता थे, जिनकी आज के नया रायपुर में तब करीब 20 एकड़ की बेनामी जमीन थी। उन्होंने उस जमीन को अपने एक माली के नाम पर ले रखा था। राज्य की बदली हुई सियासी जमीन में नेताजी की सियासत खिसक गई थी। नेताजी सियासी तौर पर कमजोर हो गए थे। रौब और रुतबा घट गया था। तब के मुख्यमंत्री को उनकी बेनामी जमीन का पता चला। बेनामी जमीन के साथ-साथ उन्हें माली की फितरत का भी अंदाजा था। अब माली केवल कागज पर ही मालिक नहीं था। वास्तविक मालिक बन गया था। उस माली ने उस जमीन से थोड़ा-थोड़ा करते हुए बहुत कमाया और एक दिन खुद विधायक बन गया। फिलहाल अब पूर्व विधायक है। पुरातन कहावत है कि चोर का माल चंडाल खाए। इस कहावत के हकीकत में उतरने के ढेरों किस्से हमारे आसपास हैं। सूबे में किस्म-किस्म के घोटालों की जांच चल रही है। इस जांच में न जाने ऐसी कितनी बेनामी संपत्तियों की जानकारी सामने आई है। कई जानकारियों का आना अभी बाकी है! कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि बेनामी संपत्ति का कोई माई-बाप नहीं। सीने में दफ्न एक डर हर वक्त हिलोरे मारता रहेगा। यह डर चैन से जीने नहीं देगा। बावजूद इसके कई नेता, मंत्री, अधिकारी हैं, जो पूर्व प्रचलित भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बन गए हैं। छोटा सा राज्य है। छोटी सी बिरादरी है। यहां हर किसी को हर एक बात मालूम है। यहां ईमानदारी का पोंगा बजाते फिरते रहने की कोई जगह बच नहीं गई है। इसलिए उतना ही खाए जितना पचा सके। नहीं तो इधर-उधर से कमाया हुआ कोई और खा जाएगा या फिर एक दिन कोर्ट कचहरी करते-करते खत्म हो जाएगा। 

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50 लाख रूपए !

मंत्री क्या न कर दें। अब सूबे के एक मंत्री हैं, जो अपने ही दल के एक विधायक के निशाने पर आ गए हैं। दरअसल एक अफसर की ‘चूक’ पर कार्रवाई करने से मंत्री चूक गए। वह भी इरादतन। अब जिस योजना के बूते सरकार की साख जमीन पर बनती है, उस योजना में ही अफसर ने छेद कर दिया था। अफसर ने छेद कर मोटा मुनाफा कमाया और बाद में मंत्री ने उस छेद को बंद करने की कीमत वसूल ली। विवाद बढ़ता देख मंत्री ने उस अफसर को एक जिले से उठाकर दूसरे जिले में पटक दिया। शायद तब उन्हें यह लग रहा था कि जिला बदल देने से स्थिति बदल जाएगी। मगर उन्हें क्या मालूम था कि उनके अपने ही उस एक छोटे से छेद को पूरा फौव्वारा बनाने पर आमादा हैं। मंत्री जी के दल के ही एक विधायक ने विधानसभा में ढिंढोरा पीट दिया। सदन में मंत्री इशारा करते रह गए, मगर विधायक ने जानबूझकर उनकी तरफ देखा तक नहीं। सुना है कि मामला रफा-दफा करने के ऐवज में 50 लाख रुपए की चढ़ोतरी हुई थी। अब मंत्री जी को यह मसला न निगलते बन रहा है, न उगलते। बेचारे बीच में इसे फंसाए घूम रहे हैं। विधायक ने भी इस मामले से अपनी प्रतिष्ठा जोड़ ली है। इतनी आसानी से मुद्दा सुलटता दिख नहीं रहा है। 

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भयावह आंकड़ा

सरकारी आंकड़े आए हैं- 41829 सड़क दुर्घटनाएं और 19066 मौतें। यानी कुल सड़क दुर्घटनाओं में 45.6 फीसदी लोगों की मौत। ये आंकड़े सरकारी दस्तावेजों में ठंडे अक्षरों में दर्ज है, लेकिन इन मौतों का कोई गर्म अहसास सरकारी दस्तावेजों में नहीं दिखता। सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों में संभावनाओं से भरे युवा होंगे, अपने बच्चों का भूखा पेट भरने वाला बाप होगा, दुधमुंहे बच्चे को दूध पिलाने वाली मां होगी, चेहरे की झुर्रियों में जिंदगी भर के तर्जुबे को समेटा बुजुर्ग भी होगा। इन सड़क दुर्घटनाओं में सिर्फ लोग नहीं, बल्कि उनके कई सपने मर गए होंगे, मगर इस भयावह आंकड़ों पर एक उफ्फ तक सुनाई नहीं पड़ती। सरकारी आंकड़ों में यह सब कुछ एक सांख्यिकीय कालम में सिमट गया दिखता है। क्या सरकारी व्यवस्था में संवेदना की कोई जगह नहीं? क्या सड़कों पर हुई मौत सिर्फ एक आंकड़ा है? क्या इन मौतों की जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं है? इन सबका जवाब आख़िर देगा कौन? शायद कोई नहीं। जवाब न भी हो, तो कम से कम इन आंकड़ों को कम करने की एक पहल तो होनी ही चाहिए। 

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इगो सटिस्फेक्शन 

आईएएस अफसरों का तबादला हुआ। कई जिलों के कलेक्टर इधर से उधर कर दिए गए। कुछ कलेक्टर बाबूगिरी में लगा दिए गए। इस तबादले ने यह बताया है कि सरकार संतुलन से चलती है। कुछ कलेक्टरों को हटाने नेता और मंत्रियों का प्रेशर था। सरकार प्रेशर टालरेट करना सीख गई है। परफार्म करने वाले कलेक्टरों को सिर्फ हटाया, बिठाया नहीं। मसलन एक जगह से हटाकर दूसरी जगह बिठा दिया। नेताओं का इगो सटिस्फेक्शन भी जरूरी था। एक तीर से कई निशाने साध लिए गए। 

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ताजपोशी

राजनीति में विदाई नहीं होती, सिर्फ भूमिका बदल जाती है। अब छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रभारी नितिन नबीन को ही देख लिजिए। किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि उनकी ताजपोशी राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में कर दी जाएगी। बिहार चुनाव के बाद से ही राज्य में कुछ लोग अगरबत्ती और फूल माला लेकर मंदिरों में प्रार्थना कर रहे थे कि हे राम अब तो उनकी विदाई हो जाए, मगर भाजपा में भगवान राम भी पार्टी लाइन से बाहर नहीं जाते। सो नितिन नबीन बतौर प्रभारी बने रहे और अब जब उन्हें राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है, तब उन्हें नापसंद करने वाले नेताओं की भौंहें तन गई हैं। छत्तीसगढ़ में काम कर चुके राजनाथ सिंह और जे पी नड्डा के बाद नितिन नबीन ऐेसे तीसरे प्रभारी हैं, जिन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष का ओहदा मिला है। बिहार के बाद अगर नितिन नबीन किसी राज्य को सबसे ज्यादा बेहतर ढंग से समझते होंगे, तो वह छत्तीसगढ़ ही होगा। राज्य का शायद ही कोई कोना बचा होगा, जहां नितिन नबीन का दौरा न हुआ हो। जाहिर है, राज्य का प्रभार अब छूट जाएगा, मगर उनका दबदबा बना रहेगा। नितिन नबीन को यह मालूम है कि संगठन का कौन सा नेता कितने उथले पानी में तैर रहा है? और कौन सा मंत्री कितने गहरे पानी में गोते लगा रहा है। सो भविष्य में छत्तीसगढ़ के संदर्भ में लिए जाने वाले फैसलों पर नितिन नबीन का मुहर लगा होगा। मंत्रिमंडल में फेरबदल की आहट समय बे समय सुनाई देती रहती ही है। कुछ महीने पहले ही एक मंत्री जी को लगा था कि उनकी कुर्सी खतरे में आ गई है, तो उन्होंने बगैर अपाइंटमेंट लिए पटना की टिकट कटा ली थी। यह बात और है कि नितिन नबीन ने तब उनसे कह दिया था कि छत्तीसगढ़ का फैसला, छत्तीसगढ़ की जमीन से लिया जाएगा। बदले हुए हालात में अब लोग पटना की नहीं, दिल्ली की टिकट कटाएंगे। 

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दूर की कौड़ी

भाजपा की राजनीति में मोदी-शाह युग सर्वाधिक प्रयोग वाला रहा है। नितिन नबीन को राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनाने का फैसला भी उनकी ही प्रयोगशाला से निकला एक प्रयोग लगता है। जब शिवराज सिंह चौहान, धर्मेंद्र प्रधान, भूपेंद्र यादव, मनोहर लाल खट्टर जैसे नाम राष्ट्रीय अध्यक्ष की सुर्खियों में रहे हो, तब वहां नितिन नबीन का चुना जाना चौंकाता है। नितिन नबीन की ताजपोशी करते हुए दूर की कौड़ी खेली गई है। फिलहाल इस फैसले के नतीजों तक पहुंच जाना जल्द बाजी होगी। खैर, एक विश्लेषण यह भी है कि मोदी-शाह की प्रयोगशाला में ऐसे कई चेहरे रहे होंगे, जिन्हें चुनकर देश के अलग-अलग राज्यों के संगठनों में उन्हें तराशने भेज दिया गया। नितिन नबीन को छत्तीसगढ़ तब भेजा गया, जब तीन बार की सत्ता का स्वाद चखने के बाद भाजपा की विदाई हो गई थी। भाजपा महज 14 सीटों में सिमट गई थी। सीखने, समझने और करने के लिए पूरा मैदान खुला था। तब यह केवल संगठनात्मक प्रबंधन नहीं था, बल्कि संगठन, नेताओं के समीकरण और सरकार तीनों पर एक साथ पकड़ बनाने का प्रशिक्षण था। इस प्रशिक्षण में नितिन नबीन आला नेताओं की नजर में खरा उतरे। वह भरोसेमंद, असंतुलन को संभालने वाले और बिना शोर किए सख्ती लागू करने वाले सिद्धहस्त नेता के रूप में उभरे। शायद दिल्ली से देश संभालने के लिए भाजपा को यही चाहिए था। इस फैसले के कई आलोचक भी हैं, मगर जब ताजपोशी के मौके पर भाजपा के ‘शाह’ का हाथ नितिन नबीन के कंधे पर रख दिया गया हो, तब भला विरोध की हिमाकत कौन करेगा?