Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor

सरकार किसकी? -(1)

एक बहस छिड़ गई. बहस का विषय था कि सरकार किसकी होती है? ज्ञानचंदों ने अपना-अपना ज्ञान परोस दिया. सरकार फलां-फलां की होती है. उनमें से एक ने जवाब दिया. सरकार किसी दल की नहीं होती. सरकार होती है व्यापारियों की. सरकार के चेहरे बदलते रहते हैं. व्यापारी जस का तस अपनी जगह पर बने होते हैं. नेताओं के कुर्ते की चमक भी इन्हीं व्यापारियों से है. सरकारी नीतियां व्यापारी तबके को ही ध्यान में रखकर बनाई और बिगाड़ी जाती है. बहरहाल नेताओं में सर्वाधिक शरीफ तबका आदिवासियों का है. इस तबके की जरूरतें कम है, इसलिए थोड़ा ही इनके लिए बहुत है. आदिवासी नेताओं के इर्द-गिर्द झांकोगे, तो मालूम पड़ेगा कि कोई न कोई अग्रवाल, बंसल, जैन, गुप्ता सरीखे सरनेम वाले लोग मिल जाएंगे. आदिवासी नेताओं के यही खैरख्वाह हैं. नेता जब राजनीति का क ख ग घ सीखना शुरू करते हैं, तब से व्यापारी तबका उनकी जरूरतों को पूरी करने में जुट जाता है. घर का राशन से लेकर गाड़ी घोड़ा सब व्यापारियों के जिम्मे होता है. जिन नेताओं की संभावना भविष्य में कुछ बनने की होती है, उनके आगे पीछे बस यही होते हैं. चुनाव का खर्च उठाने से भी इन्हें कोई गुरेज नहीं. दरअसल यह उनका एक तरह का इन्वेस्टमेंट है. नेताओं के किसी ओहदे पर पहुंचते ही बरसो की कसर एक झटके में पूरी कर लेने का ख्याल इन व्यापारियों को साहस से भर देता है. बेचारे आदिवासी नेताओं का ज्यादा अच्छा होना भी गुनाह हो जाता है. पता ही नहीं चलता लोग कद्र कर रहे हैं या इस्तेमाल. खैर, सूबे की सरकार में भी कई नेता ऐसे हैं, जिनका रिमोट कंट्रोल किसी न किसी व्यापारी के हाथ है. कुछ सामने दिख जाते हैं. कुछ हैं कि पर्दे के पीछे रिमोट लिए बैठे हैं. बस व्यापारी यह भूल जाते हैं कि वक्त के साथ अनुभव सब सीखा देता है. शराफत रद्दी की टोकरी में चली जाती है. इसलिए व्यापारी खास होने का भ्रम न पाले. एक कहावत है कि आपको पाकर लोग आपसे बेहतर की तलाश में रहते हैं. राजनीति यही है.

गलबहियां -(2)

सरकार चाहे किसी दल की क्यों न रही हो. आदिवासी नेताओं के आसपास उनके करीबियों की सूची खंगाल आइए. यकीन मानिए कोई न कोई व्यापारी जरुर टकरा जाएगा. पूर्ववर्ती सरकार में एक विभाग के मंत्री थे. उनका करीबी व्यापारी सरकारी बैठकों में मंत्री के बराबर कुर्सी डाले बैठा रहता था. सरकार की उंगली पकड़कर आए एक अन्य व्यापारी का आलम यह था कि सूबे के सभी आदिवासी- गैर आदिवासी विधायक उसके इशारों पर बैठते-उठते थे. सरकार की विदाई में ये व्यापारी भी हिस्सेदार रहे. अब सूबे में सात-आठ महीने पुरानी सरकार है. इस सरकार में भी कुछ मंत्रियों ने दशकों पुरानी परंपरा का निर्वहन किया है. कुछ मंत्री ऐसे हैं, जिन्होंने अपना विभाग ठेके पर दे दिया है. कुछ मंत्री हैं, जो व्यापारियों के साथ गलबहियां करते घूम कर रहे हैं. सियासत में गलबहियां का आशय पार्टनरशिप से है. परंपराओं को तोड़ने वाले प्रोग्रेसिव कहलाते हैं. यहां कोई प्रोग्रेसिव बनना नहीं चाहता. तुलसीदास का लिखा एक दोहा है. ” तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए, अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होए”. अब लोग इस दोहे को पढ़कर अपने हिस्से के मायने ढूंढ लें.

जुर्माना

शराब पीने वाले इन दिनों सरकार से खूब नाराज हैं. नाराजगी की उनकी ठोस वजह भी है. दरअसल उन्हें इस बात की शिकायत है कि सरकारी राजस्व बढ़ाने में उनके योगदान को सराहने की बजाए सरकार उन पर मोटा जुर्माना लगा रही है. शराबी कहते हैं कि पहले हम शराब खरीदकर राजस्व बढ़ाते थे, अब पीकर घर लौटने पर जुर्माना पटाकर भी राजस्व बढ़ा रहे हैं. यह खूब नाइंसाफी है. हिलते ढुलते और शरीर को संभालते एक शराबी ने कहा- हम जैसे शराबियों की चिंता करते हुए सरकार ने शराब दुकानों के करीब ही आहाता बनाया है, जहां चखने-पानी की व्यवस्था है. बैठकर पीने का इंतजाम है. अब आहाता में शराब पीने के बाद आदमी घर तो जाएगा ही. घर लौटने पर पुलिस रास्ते में रोकती है. कोई ब्रीथ एनालाइजर नाम की मशीन मुंह में टिकाकर फूंक मारने कहती है, फिर हाथ में चालान थमा देती है. सरकार पिलाए भी और फिर वसूले भी यह कैसा न्याय है? जांजगीर जिले में ही कुछ महीनों में एक करोड़ रुपए का जुर्माना शराबियों पर लगाया गया है. एक शराबी ने कहा, यदि इस तरह से जुर्माना वसूला जाता रहा तो जल्द ही उग्र प्रदर्शन किया जाएगा. सरकार हमसे है, हम सरकार से नहीं है. अपने हक की आवाज बुलंद करेंगे.

बेचारे विधायक जी

विधानसभा में डेंगू, मलेरिया और डायरिया का मुद्दा जोर-शोर से उठा. विपक्ष के साथ-साथ सत्तापक्ष के विधायकों ने भी सरकार को जमकर घेरा. सदन में जब यह मुद्दा लाया जाना था, इसके ठीक पहले सत्तापक्ष के एक विधायक इसी तरह की एक बीमारी की वजह से अस्पताल में भर्ती हो गए. एक दिन विधायक जी अस्पताल से सीधे विधानसभा आ पहुंचे. ड्रिप चढ़ाने के लिए लगने वाला कैनुला उनके हाथों में लगा था. जिसने भी देखा उसने उनकी चिंता की. कमजोर शरीर और दर्द के बीच भी विधायक को विधानसभा पहुंचना पड़ा. सभी विधायक की चिंता कर रहे थे. इस पर विधायक ने हंसी ठिठौली का माहौल बनाते हुए तपाक से कहा, दिल्ली वाले नेताओं को यह थोड़े ही पता है कि मेरी तबियत खराब है. यहां दुश्मन बहुत हैं. कोई शिकायत कर दे, इससे अच्छा है कि मैं आ जाऊं. अब यहां से फिर अस्पताल जाऊंगा और ड्रिप चढ़ाकर पूरी रात आराम करुंगा. कल फिर आना है. विधायक मंत्री पद की रेस दौड़ रहे हैं. बेचारे विधायक जी. राजनीति कितना कुछ सहने पर मजबूर करती है. शरीर का दर्द भी. राजनीति बड़ी बेकार चीज है. बीमारी में भी आराम करने नहीं देती.

चिट्ठी

एक मंत्री ने अपने ही ओएसडी को हटाने चिट्ठी लिखी है. मंत्री ओएसडी की करतूतों से परेशान हैं. ओएसडी के किए धरे की बदनामी मंत्री के हिस्से आ रही है. कहते हैं कि ओएसडी ने मंत्री के नाम पर खूब खेल खेला है. पिछले दिनों तबादले से जुड़े प्रकरण में कई करोड़ रुपयों का घालमेल किए जाने का हल्ला मचा. मंत्री भी सकते में आ गए. जब मामला फूटा, तब ओएसडी की कलई खुल गई. सुना जा रहा है कि भाजपा संगठन ने भी ओएसडी को लेकर अपनी नजर तिरछी कर ली है. हैरानी की बात यह है कि मंत्री को चिट्ठी लिखे पखवाड़ा बीत गया, मगर मजाल है कि ओएसडी पर कोई गाज गिरी हो. फिलहाल मंत्री ने ओएसडी के बंगले आने-जाने पर रोक लगा रखी है.

नियुक्ति

सरकार बनने के बाद से अब तक निगम,मंडल और आयोग में नजर जमाकर बैठे नेताओं के लिए राहत भरी खबर है. चर्चा है कि जल्द ही एक दर्जन से अधिक पदों पर नियुक्तियां कर दी जाएगी. निगम,मंडल और आयोग में नए-पुराने चेहरे लिए जाएंगे. संगठन सूत्र कहते हैं कि नामों की सूची बनकर तैयार है. मुख्यमंत्री के दिल्ली दौरे से लौटने के बाद एक अंतिम दौर की बैठक हो सकती है. इसके बाद नियुक्ति की पहली सूची जारी कर दी जाएगी. कई नेता हैं, जो सरकार बनने के बाद से सक्रिय हैं. मुख्यमंत्री से लेकर संगठन नेताओं तक बार-बार जाकर अपनी कई चप्पलें घिस चुके हैं. कुछ हैं, जिन्होंने दिल्ली दौड़ भी लगा ली है. अब सूची में अपने नाम की बांट जोह रहे हैं. नाम आ गया तो ठीक, नहीं आया, तो मुंह लटकाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा. भाजपा में पद पाना लाटरी खुलने की तरह है. लाटरी हर किसी की किस्मत में नहीं होती.

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