Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

तनख्वाह एक करोड़!

सरकार को चाहिए कि एक विशेष कानून बनाकर मंत्रियों की तनख्वाह कम से कम एक करोड़ रुपए कर दे. सुशासन राज में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की दिशा में यह बड़ी कवायद होगी. विभागों में भ्रष्टाचार पर डंडा चलाने की पहली इकाई मंत्री ही है. मंत्री अपने विभागों में सख्त हो जाए, तो मजाल है कि एक तिनका भी इधर से उधर हो जाए. मंत्रियों की तनख्वाह एक करोड़ रुपए करने से एक साल में उनकी कमाई बारह करोड़ रुपए और पांच साल में साठ करोड़ रुपए हो जाएगी. अच्छी जिंदगी जीने के लिए इतनी रकम पर्याप्त होगी. किस्मत बुलंद रही तो अगले चुनाव में टिकट फिर मिल जाएगी. चुनाव में अगर जीत दर्ज हुई और पार्टी की सरकार में वापसी हो गई. मंत्री पद दोबारा मिल गया, तो फिर नेताजी की बल्ले-बल्ले ही है. कुल दस साल में कमाई का आंकड़ा 120 करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा. पिछली सरकार के एक मंत्री जेल में है. शराब घोटाले पर ईडी की चार्जशीट में बताया गया है कि उन्हें प्रतिमाह कम से कम दो करोड़ रुपए मिलते थे. इस हिसाब से भ्रष्टाचार से जुटाई गई उनकी सालाना कमाई 24 करोड़ रुपए थी. पांच साल का हिसाब लगा लें, तो कमाई का यह आंकड़ा 120 करोड़ रुपए होता है. ईडी की चार्जशीट को ही आधार मान लें, तो यह कथित कमाई सिर्फ मंत्री की थी. इसमें पार्टी फंड, अधिकारी, कर्मचारी, चपरासी की कमाई अलग निकाल लें. जेल में बंद मंत्री की इस कथित कमाई को ही मानक मान लिया जाए, तो सोचिए जरा कमाई-धमाई के ऐसे कई विभाग हैं, जहां हजारों करोड़ रुपए के वारे-न्यारे हो जाते हैं. सरकार हजारों करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार से जख्मी हो जाती है. सरकार के इस जख्म पर मरहम लगाने का बोझ जनता के हिस्से आता है. इसलिए ही इस बात की जबरदस्त वकालत की जानी चाहिए कि मंत्रियों की तनख्वाह एक करोड़ रुपए कर दी जाए, क्योंकि जब दाल-चावल-चटनी से ही पेट भरा हो, तब छप्पन भोग नहीं सुहाता. ठीक है ना मंत्री जी…. 

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सेवा शुल्क

मंत्रियों की तनख्वाह बढ़ाने की इस पैरवी का अपना एक आधार है. सरकार किसी की भी रहे. मंत्री अपना मूल काम छोड़कर नोटों की छपाई का कारखाना खोलने लगते हैं. जनहित की योजनाओं का खाका बनाने की बजाए उनके दिमाग में अपने घर की तिजोरी भरने के विचारों की लहरों का प्रवाह तेज होता है. भाजपा संगठन के कुछ मझोले नेताओं की एक आंतरिक बैठक में एक मंत्री जी की करतूत का रेशा-रेशा उधेड़ा गया. मालूम पड़ा कि एक मल्टीनेशनल कंपनी राज्य में काम करना चाहती थी, सो मीडिएटर ढूंढ कर मंत्री तक पहुंची. मंत्री जी ने बंगले में एक गोपनीय कक्ष बना रखा है, जहां बातचीत के अपने रूल्स- रेगुलेशन तय हैं. मसलन कोई उस कक्ष में मोबाइल या दूसरी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस लेकर नहीं जाएगा. वगैरह-वगैरह. चाय की चुस्कियों के बीच डिमांड आई कि 15 फीसदी ‘सेवा शुल्क’ लगेगा. मल्टीनेशनल कंपनी ने पांच फीसदी सेवा शुल्क देने का प्रस्ताव रखा. मंत्री जी को डील जमी नहीं. कंपनी के रिप्रेजेंटेटिव्स लौट गए. यह कहते हुए कि हम किसी दूसरे राज्य में काम कर लेंगे. इसी दो-चार-पांच-पंद्रह फीसदी ‘सेवा शुल्क’ के फेर में मंत्री न पड़े, इसलिए जरूरी है कि उनकी तनख्वाह ही बढ़ा दी जाए.  

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नीड बेस्ड करप्शन 

तनख्वाह सिर्फ मंत्रियों की नहीं, बल्कि आईएएस अफसरों की भी बढ़नी चाहिए. वित्त मंत्री ओ पी चौधरी एक मर्तबा इसकी वकालत कर चुके हैं. उन्होंने इसकी पैरवी इस आधार पर की थी कि इससे नीड बेस्ड करप्शन नहीं होगा. अच्छी बात है. सरकार योजनाएं बनाती है. योजनाओं को जमीन पर उतारने का जिम्मा आईएएस अफसरों के कंधों पर आ जाता है. कंधों को मजबूत बने रहने के लिए यह सुझाव अच्छा है कि उनकी तनख्वाह इतनी कर दी जाए कि भ्रष्टाचार की सोचे भी नहीं. भ्रष्टाचार के बोझ तले कंधे एक बार झुक गए, तो उसके दोबारा उठने की गुंजाइश खत्म हो जाती है. ईओडब्ल्यू में 27 आईएएस अफसरों के खिलाफ प्रकरण दर्ज हैं. इनमें से कई अब रिटायर हो चुके हैं. कई नौकरी कर रहे हैं. कुछ अफसर ऐसे भी हैं, जिनका न तो कोई लेना था, न देना. फिर भी जांच के रडार पर आ गए. मगर ज्यादातर अफसर गंभीर कदाचरण की शिकायत पर ईओडब्ल्यू की डायरी में अपना नाम चढ़ा बैठे हैं. ऐसे अफसर नए अफसरों के लिए प्रेरणा स्त्रोत न बन जाए, इसलिए इनके खिलाफ कार्रवाई जरूरी है, मगर राज्य गठन के बाद से अब तक ईओडब्ल्यू में अफसरों के खिलाफ दर्ज किसी मामले में कार्रवाई नहीं हुई. अफसर भी जानते समझते हैं कि पुराने मामलों पर कुछ होना जाना नहीं है. खैर, मुद्दे पर लौटते हैं. आईएएस अफसर सुधर गए, तो पूरा प्रशासनिक ढांचा सुधर जाएगा. अब यह राज्य सरकार के बूते की बात है नहीं, इसलिए मोदी सरकार को अफसरों की तनख्वाह पर फैसला लेना चाहिए. 

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हाल-ए-पीएचक्यू

पीएचक्यू में कई अफसर खाली बैठे हैं. पूर्व डीजीपी की सल्तनत में बनी व्यवस्था आज भी कायम है. जिस अधिकारी के हिस्से जो काम तब था, आज भी वही अधिकारी उन कामों को संभाल रहा है. दरअसल बदलाव लाने के लिए जरूरी है अधिकार. प्रभारी डीजीपी कितना अधिकार रखते होंगे? कई सीनियर अधिकारी हैं, जो दिन भर में दो-चार फाइल निपटाते हैं. बचे वक्त उनके पास गप्पेबाजी के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होता. आखिर वह कर भी क्या सकते हैं. वक्त काटने के लिए कुछ तो करना ही होगा. सरकार को इन अफसरों को काम पर लगाना चाहिए. पुलिस महकमे में वैसे भी प्रोडक्टिविटी बढ़ाने की जरूरत है. पुलिस में रिफार्म लाने की पहली इकाई पीएचक्यू ही है. सरकार को पीएचक्यू में एक शाखा बनानी चाहिए, जिसका काम देश-दुनिया में पुलिस रिफार्म का अध्ययन कर बेस्ट प्रैक्टिसेज को लागू करने का हो. कुछ अफसरों को देश-दुनिया भेज कर नई तकनीक की पढ़ाई लिखाई कराई जानी चाहिए. सूबे के गृहमंत्री पढ़े लिखे और समझदार हैं, उन्हें इस दिशा में सोचना चाहिए. खैर, इन सबसे पहले जरूरी काम यह है कि डीजीपी के आगे से ये ‘प्रभारी’ जैसा शब्द हटा दिया जाए. ये हटने भर से अधिकार का बोध बढ़ जाता है. 

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हाथ-पैर फूले

पखवाड़े भर पहले गृह मंत्री ने मंत्रालय में पुलिस के आला अफसरों की बैठक ली. गृह मंत्री कामकाज से संतुष्ट थे. मूड ठीक था. वह कह बैठे कि अब से हफ्ते में कम से कम एक बार ऐसी बैठक होगी. गृह मंत्री के ऐसा कहते ही आला अफसर एक-दूसरे की ओर ताकने लगे. कुछ अफसरों के हाथ-पैर फूलने की खबरें भी बाहर आ गई. अफसरों के हाव भाव को देखते ही गृह मंत्री ने कहा कि चलो कोई बात नहीं. हर पंद्रह दिन में बैठक होगी. अफसरों के चेहरे पर थोड़ी संतुष्टि का भाव था. मालूम नहीं यह बैठक आगे होगी भी या नहीं. अगर इस तरह की बैठक होती रही, तो यह तय है कि बैठक में अपने काम को जस्टिफाई करने के लिए ही कई अफसर मेहनतकश बन जाएंगे. 

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Coming soon

अगले हफ्ते पाॅवर सेंटर कुछ मनचले आईपीएस अफसरों की कहानी लेकर आएगा. अगले हफ्ते पढ़िएगा कि आईपीएस अफसरों की दुनिया में आखिर चल क्या चल रहा है?