Column By- Ashish Tiwari , Resident Editor

ब्यूरोक्रेसी ऐसी भी…

आईएएस समीर विश्नोई के जेल दाखिले के बाद एक सीनियर ब्यूरोक्रेट ने कहा ”भूख किसी भी किस्म की हो, बड़ी खतरनाक होती है”. उनकी ये टिप्पणी दरअसल सिस्टम में सिमटती ईमानदारी और करप्शन के बढ़ते दायरे की ओर इशारा कर रही थी, हालांकि विश्नोई के मसले पर हम इतना कह सकते हैं कि यह कोर्ट तय करेगा कि उनकी ईमानदारी का वजन कितना हल्का रहा होगा. बहरहाल ब्यूरोक्रेट के इस कहे के बीच चंद पखवाड़े पहले के एक किस्से से रुबरु होते चलें. बताते हैं कि सरकार की आय का जरिया वाले एक विभाग के कर्ताधर्ता की जीवनसाथी एक जिले के सराफा दुकान पहुंची थी. करीब पौने पांच लाख रुपए की ज्वेलरी की खरीदारी की. जब बिल के भुगतान की बारी आई, तो सराफा कारोबारी से कहा गया कि फलाने अधिकारी पैसे दे जाएंगे. कारोबारी ने बगैर बिल इस भरोसे से ज्वेलरी दे दिया कि भुगतान हो जाएगा. बताते हैं कि दूसरे दिन राजधानी में बैठे ब्यूरोक्रेट ने ज्वेलरी कारोबारी को अपने दफ्तर बुलाया. कारोबारी ने सोचा कि भुगतान के लिए बुलाया गया होगा. नया रायपुर के दफ्तर पहुंचने पर कारोबारी को रायपुर के बंगले भेज दिया गया. सुनते हैं कि बंगले पहुंचने के बाद कारोबारी को ब्यूरोक्रेट ने यह कहकर फटकार लगाई कि बगैर बिल ज्वेलरी बेच रहे हो, ये टैक्स चोरी का मामला है. कारोबारी के सामने ही ब्यूरोक्रेट ने कुछ अफसरों को फोन कर अपराध दर्ज करने की बात कहते हुए अपना प्रभाव जमाया और कहा कि पांच साल के रिकॉर्ड की पड़ताल कराई जाए. यह सब देख हैरान-परेशान सराफा कारोबारी सीधे ब्यूरोक्रेट के पैर पर जा गिरा. कहते हैं कि प्रकरण दर्ज नहीं करने के ऐवज में ब्यूरोक्रेट ने पांच लाख रुपए की डिमांड रखी थी. सराफा कारोबारी ने अपने अंतस की गहराई पर जाकर ब्यूरोक्रेट को जमकर कोसा होगा. 

200 डब्बे च्यवनप्राश

ज्वेलरी खरीदी में सराफा कारोबारी को बड़ी चपत लगाने वाले इस ब्यूरोक्रेट का किस्सा यहीं खत्म नहीं हो जाता. इस मामले को सुनकर आपके कान खड़े हो जाएंगे कि घुरवे में भी अपने फायदे की चीज ढूंढ लेने का हुनर कहीं है, तो बस इन्हीं के पास है. बताते हैं कि खनन के लिए पहचाने जाने वाले एक शहर में एक दौरा बना. मालूम किया गया कि यहां की खासियत क्या है? क्या खरीदी की जा सकती है. कुछ खास पता नहीं चला. सिवाए इसके कि यहां बनने वाला च्यवनप्राश एक्सपोर्ट क्वालिटी का है. 20 बॉक्स च्यवनप्राश के ले लिए गए. बस फिर वहीं हुआ, जो सराफा कारोबारी के साथ हुआ था. अगले दिन च्यवनप्राश बेचने वाले को रायपुर बुलाया गया. बगैर बिल च्यवनप्राश बेचने के नाम पर डराया-धमकाया गया. पचड़े में पड़ने से बचाने साहब ने एक लाख रुपए के साथ दो सौ बाॅक्स च्यवनप्राश की मांग कर दी. मरता क्या ना करता. च्यवनप्राश वाले ने भी सोचा होगा कि पैसे मांगने की बात समझ आ रही है. दो सौ डब्बे च्यवनप्राश का ये सज्जन करेंगे क्या? मालूम चला कि उनकी मंशा देशभर में अपने सगे-संबंधियों और दोस्तों को बतौर गिफ्ट देने की थी. जाहिर है सूबे के कई दूसरे अफसरों की चीभ पर च्यवनप्राश का स्वाद चढ़ गया होगा. उन्हें भी गिफ्ट में एक्सपोर्ट क्वालिटी का च्यवनप्राश मिला ही होगा. 

कौन होगा एकनाथ शिंदे?

बर्फ की माफीक छत्तीसगढ़ में ईडी वाले जम गए हैं. पिघल नहीं रहे. रह रहकर नई-नई टीम बुलाई जा रही है. टीम पहुंचने की हर नई खबर बाजार में लावा बनकर फूट रही है. अब तो रुखी-सूखी खाकर गुजारा करने वाले भी अपना सब कुछ समेटते सुने जा रहे हैं. इधर राजनीतिक बिरादरी में एक कौतूहल भरी चर्चा खूब सूनी जा रही है. हर दूसरा आदमी यह पूछते सुना जा सकता है कि आगामी चुनाव में छत्तीसगढ़ का एकनाथ शिंदे कौन होगा? ऐसा नहीं था कि महाराष्ट्र में शिंदे की पार्टी के प्रति निष्ठा कम हो गई थी. ये कह सकते हैं कि उनकी निष्ठा कहीं और के लिए बढ़ गई थी. तभी तो पलक झपकते सब कुछ पलट दिया. कुछ तो दबाव रहा होगा. सुनते हैं कि रुलिंग पार्टी के कई बड़े धाकड़ चेहरों का मिलान एकनाथ शिंदे की तस्वीर के साथ किया जा रहा है. मिजाज देखे-समझे जा रहे हैं. ईडी की कार्रवाई जैसे-जैसे खिंचती जा रही है, वैसे-वैसे नेताओं के माथे पर बढ़ती चिंता की उभरती लकीरों को पढ़ने वाले मैग्निफाइंग ग्लास लेकर जूम इन-जूम आउट कर रहे हैं. अगर छत्तीसगढ़ में महाराष्ट्र दोहराया गया, तो यकीन मानिए बीजेपी ही मुश्किल में आएगी. 

जेल की रोटी…

” पोषण पा भाई पोषण पा, डाकुओं ने क्या किया, सौ रुपए की घड़ी चुराई, दो रुपए की रबड़ी खाई, अब तो जेल में जाना पड़ेगा, जेल की रोटी खानी पड़ेगी. जेल का पानी पीना पड़ेगा. अब तो जेल में रहना पड़ेगा….” हमने अपने बचपन में इस कविता के साथ खूब खेल खेले. बचपन का जेल से कोई सरोकार नहीं, मगर यकीनन यही कविता होगी, जिसने बालमने में जेल शब्द से परिचय कराया होगा या यूं कहे जेल शब्द से डर पैदा किया होगा. वजह यही रही होगी कि जेल में गंदा काम करने वाले गंदे लोग जाते हैं, लेकिन वक्त के साथ चीजे बदलती चली जाती हैं. अब सुविधा संपन्न लोगों के लिए यही जेल सबसे मुफीद ठिकाना बन गया है. अब एक मामले में हाईप्रोफाइल चेहरे सलाखों के पीछे धकेले गए. क्या ब्यूरोक्रेट और क्या कारोबारी. मिली जुली संगति का अद्भुत दृश्य था. चेहरे पर मुस्कान लिए, हंसी-ठिठोली करते जेल के भीतर जाती उनकी तस्वीरें सबने देखी होंगी. तस्वीर यूं कह रही थी मानो डर के आगे जीत है. बहरहाल सुनाई पड़ा है कि सुख-सुविधाओं में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा, सुनते हैं कि भीतर उन्हें बढ़िया खाना मिल रहा है, सोने के लिए साफ चादरे, सिरहाने पर मुलायम तकिया, हवा के लिए कूलर और साथ में दो-दो सेवादार. करीबियों से बात करने जीएसएम फोन भी (स्मार्टफोन नहीं). खैर तिहाड़ जेल में रहे दिल्ली सरकार के मंत्री और महाठग सुकेश को जैसे-जैसी सुविधाएं मिली, उससे कंपेयर किया जाए तो फिर ये तो कुछ भी नहीं….

संघर्ष

शिव मंगल सिंह ‘सुमन’ अपनी एक कविता के एक अंश में कहते हैं, ” क्या हार में, क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत में, संघर्ष पथ पर जो मिला, ये भी सही, वह भी सही” वैसे तो कविता की यह पंक्ति घोर निराशा में भी उम्मीद का भाव जगाती है, साहस से भर देती है. मगर सियासत के गलियारों में इस कविता का भाव थोड़ा सरक जाता है. राजनीतिक दल यहां सत्ता में हो या फिर विपक्ष में इन्हें भय किसी चीज का नहीं है. एक दल के लोगों ने 15 सालों के संघर्ष में जो कुछ समेटा हुआ है, यह काफी है. इधर दूसरे दल की राजनीतिक जमीन 15 सालों में बंजर पड़ गई थी, अब हरियाली से सराबोर करने का उपक्रम राउंड द क्लाक चल रहा है. राजनीति में संघर्ष बड़ा ओहदा और रुतबा दिलाता है. बाकी चीजें अपने आप आ ही जाती हैं, लेकिन राजनीति में संघर्ष किसके बीच किया जाए? जवाब है, जनता के बीच, जनसैलाब के बीच. जनता को यह दिखते रहना चाहिए कि कौन सा दल कितना संघर्ष कर रहा है. मगर इसमें एक नई बात जुड़ गई है, जनता को संघर्ष से ज्यादा यह दिखते रहना चाहिए कि कौन सा राजनीतिक दल कितना धार्मिक है. धर्म, सियासत की वो पुरानी धुरी है, जिसमें प्रोग्रेसिव लीडर भी अपना खूंटा बांध ही आते हैं. अब देखिए रायपुर में चल रहे पंडित प्रदीप मिश्रा के शिव पुराण में भीड़ के सैलाब के बीच हर दल के नेता उलांग बांटी खा-खाकर पहुंच रहे हैं. प्रदीप मिश्रा से बस एक बार मिल लेने की चाहत लिए ऊंची पहुंच का इस्तेमाल तक किया जा रहा है. कार्ल मार्क्स धर्म को अफीम कहते थे. वो कहते थे कि धर्म भ्रामक खुशी देता है, वास्तविक नहीं. मार्क्स की विचारधारा को पानी पी-पी कर कोसने वाले दूसरे दलों की विचारधारा वाले नेता भी कई बार उन्हीं की विचारधारा पर चलते दिख जाते हैं. भले ही जाने-अनजाने में सही. पंडित प्रदीप मिश्रा के पास जनसैलाब है, जाहिर है नेता भी ये मानकर पहुंच रहे होंगे कि धर्म की अफीम का रंग चोखा चढ़ा है, फायदा ढूंढ लिया जाए. यहां मंच पर कांग्रेस भी है-बीजेपी भी है और नजर जन सैलाब पर टिकती दिखती है…

आरक्षण रोस्टर का अता-पता नहीं !

आरक्षण को लेकर राज्य में बड़ी विकट स्थिति खड़ी हो गई है. 58 फीसदी आरक्षण पर आए हाईकोर्ट के आदेश के बाद से आरक्षण रोस्टर को लेकर स्थिति स्पष्ट ही नहीं है. पीएससी, व्यापम, सीएसईबी समेत तमाम सरकारी नियुक्ति की प्रक्रिया रोक दी गई हैं. मेडिकल कालेजों में भर्ती विवादों में पड़ गई है. एसआई भर्ती, शिक्षकों की भर्ती का कोई अता-पता नहीं. 2012 में आरक्षण नियमों में संशोधन करते हुए तत्कालीन सरकार ने अनुसूचित जाति वर्ग का आरक्षण 16 से घटाकर 12 फीसदी कर दिया था. अनुसूचित जनजाति का आरक्षण 20 से बढ़ाकर 32 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण 14 फीसदी किया गया था. इसे लेकर हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी, जिस पर 19 सितंबर को अंतिम फैसला आया. इस फैसले में 58 फीसदी आरक्षण को घटाकर 50 फीसदी कर दिया गया. हाईकोर्ट के आदेश के बाद सरकार आरक्षण रोस्टर को लेकर अब तक कोई फैसला नहीं कर सकी. हालांकि सरकार ने 2-3 दिसंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया है. विधानसभा के रास्ते आरक्षण पर समाधान लाने की कवायद हो रही है.