Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

भाजपा की धुआंधार बल्लेबाजी

हर चुनावी फॉर्मेट में भाजपा ऐसी धुआंधार बल्लेबाजी कर रही है कि विपक्षी गेंदबाज सिर्फ हाथ मलते रह जाते हैं. कोई बाउंसर मारने की कोशिश करता है तो भाजपा उसे पुल शॉट में बदलकर स्टेडियम के बाहर भेज देती है. विपक्ष की हालत यह हो गई है कि विकेट लेना तो दूर, सही फील्डिंग भी नहीं हो पा रही. हर चुनाव से पहले भाजपा टॉस जीतती है. मानो पिच रिपोर्ट पहले से ही उसकी जेब में होती है. इसके बाद ओपनिंग करने कौन आएगा, यह भी किसी को नहीं पता होता. कभी एक चायवाला मैदान में उतर जाता है, कभी कोई मजदूर बैटिंग करने चला आता है और जनता चौका-छक्का देख खुश हो जाती है. विपक्ष के कप्तान सोचते ही रह जाते हैं कि यह कौन सा खेल हो रहा है. विपक्ष के बॉलर जब-जब कोई चाल चलते हैं, तब-तब वे नो-बॉल कर बैठते हैं और भाजपा को फ्री हिट मिल जाता है. कभी कोई अंदरूनी कलह की नो-बॉल फेंक देता है, तो कभी गुटबाजी की. विपक्ष में टूटन है, बिखराव है. भटकाव है. भाजपा अपनी रणनीति के साथ इसका फायदा उठाती है. भाजपा बिना किसी रोक-टोक के रन बटोरती रहती है. विधानसभा के मैच में भाजपा बिना कप्तान के खेल रही थी, फिर भी टीम ने गजब की बल्लेबाजी की. उधर विपक्ष में कप्तानों की भीड़ थी—कोई बैटिंग करना चाहता था, कोई कप्तानी, और कोई सिर्फ डगआउट में बैठकर रणनीति बनाने में व्यस्त था. लोकसभा आते-आते भाजपा ने कप्तानी फिक्स कर ली. नगरीय निकाय चुनाव की पिच पर कप्तान पूरी तरह से सेट हो गए, इधर विपक्ष डीआरएस पर डीआरएस लेने में लगा रहा. हर चुनावी मैच में मैदान पर भाजपा के रनबोर्ड पर स्कोर बढ़ता जा रहा है और हर बाल के बाद विपक्ष सिर्फ अपील करने में लगा है. अंपायर (मतदाता) हर बार भाजपा के पक्ष में उंगली उठा देता है. विपक्ष के कुछ खिलाड़ी तो मैदान छोड़कर पवेलियन में ही बैठ गए हैं. आखिर में विपक्ष सिर्फ यह कहकर संतोष कर लेता है कि पिच भाजपा के अनुकूल थी, अंपायर भी पक्षपाती था और मैच से पहले ही टीम सेलेक्शन गलत हो गया, लेकिन सियासी क्रिकेट में जब तक विपक्ष नई रणनीति नहीं अपनाएगा और ढंग की टीम नहीं बनाएगा, तब तक भाजपा की बल्लेबाजी चलती रहेगी और विपक्षी टीम सिर्फ बाउंड्री के बाहर गेंद खोजती रह जाएगी.

पॉवर सेंटर : कलेक्टरों का ‘बीएमआई’… ”एसपी शिप”… शाही सवारी… भुलक्कड़पन…उतरता नशा…- आशीष तिवारी

बदलाव

राजनीति में बदलाव कोई नई बात नहीं है, लेकिन कांग्रेस में बदलाव का मतलब नियत से है . बदलाव किस नियत से किया गया है, ये महत्वपूर्ण होता है. निकाय चुनाव के ठीक पहले भूपेश बघेल को राष्ट्रीय महासचिव बनाकर हाईकमान ने दिल्ली की टिकट थमा दी. मतलब पार्टी ने कह दिया कि ‘आपकी सेवाएं सराहनीय थीं, अब आप नई जिम्मेदारी सम्भालिए’. भूपेश बघेल को दिल्ली भेजे जाने के समीकरण को लेकर विश्लेषक दो बातें कह रहे हैं. एक तो यह कि बघेल को राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी ज़िम्मेदारी दी गई और दूसरी कि उन्हें राज्य की राजनीति से दूर कर दिया गया. कांग्रेस में ‘बड़ी ज़िम्मेदारी’ और ‘साइडलाइन’ में बहुत बारीक फर्क होता है. अगर आप दिल्ली भेजे जाते हैं, तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि “राज्य की राजनीति से ब्रेक लेकर अब नई पारी शुरू कीजिए’. खैर, निकाय चुनाव के नतीजे आए और कांग्रेस को बदलाव की ज़रूरत का एहसास हो गया. वैसे कांग्रेस में बदलाव कोई नई बात नहीं, बस चेहरे बदलते हैं, रणनीति वही रहती है. बैठक करो, समीक्षा करो, हार के कारण तलाशो, और फिर वही दोहराओ. अब चर्चा है कि प्रदेश अध्यक्ष समेत पूरी टीम बदली जा सकती है, यानी कुर्सी दौड़ का अगला राउंड शुरू हो चुका है. टी एस सिंहदेव के प्रदेश अध्यक्ष बनने की संभावना जताई जा रही है. कुछ दिन पहले नेता प्रतिपक्ष चरणदास महंत ने खुद घोषणा कर दी थी कि अगला चुनाव सिंहदेव की अगुवाई में लड़ा जाएगा. महंत-सिंहदेव की अब अच्छी छन रही है, मानो कह रहे हो कि ‘हम साथ-साथ हैं’. कांग्रेस में छनने का मतलब अक्सर ‘संभावित गठबंधन’ होता है. बाज़ार की चर्चा के अनुरूप अगर सब सही हुआ तो लोगों का दिमाग़ चर-चर की आवाज़ से गूंज उठेगा. दरअसल चर-चर की ये आवाज़ दिमाग़ में चल रहे उन विचारों की होगी जो इन सबके मायने ढूँढेगा. वैसे महंत जी की भविष्यवाणी ने नया मसाला डाल दिया है. अब कांग्रेस के नेता इस गुत्थी में उलझे हैं कि यह सही भविष्यवाणी है या “राजनीतिक संकेत”? क्योंकि कांग्रेस में जब कोई कहता है कि ‘अगला चुनाव फलाने की अगुवाई में लड़ा जाएगा’ तो अक्सर अगुवाई कोई और करता है. कांग्रेस की राजनीति में बदलाव की बयार तेज़ है, लेकिन सवाल वही है, क्या बदलाव सिर्फ नामों का होगा या रणनीति का भी? क्योंकि अगर कुर्सियां ही बदलनी हैं और चाल वही रहनी है, तो यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि

मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ……

पॉवर सेंटर : मोक्ष… राज काज… शराब वैध है!.. एक्सटेंशन नहीं !.. झुंड… – आशीष तिवारी

मंत्रियों को मिला ‘मोक्ष’

नगरीय निकाय के नतीजों ने कुछ मंत्रियों को मोक्ष दे दिया है. मंत्रियों को जिन-जिन निकायों को जिताने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, उस पर मंत्री खरे उतरे. निकाय तो जिताया ही मंत्रियों ने अपनी कुर्सी पर मंडरा रहे खतरों को भी पार कर लिया. यही मंत्रियों का ‘मोक्ष’ है. नतीजे आने के पहले भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक टकरा गए थे. विधायक ने दावा किया था कि निकाय चुनाव बाद कम से कम दो मंत्रियों को हटा दिया जाएगा. ख़ुद मंत्री बनने लालायित विधायक जी से निकाय चुनाव के नतीजे आने पर जब बदलाव की आहट पर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा, क़िस्मत ही ख़राब है. कुर्सी बार-बार आकर लौट जाती है. बहरहाल नगरीय निकाय चुनाव बीत गया है. पंचायत चुनाव बाक़ी है. चुनावी शोर थमते ही मंत्रियों की ताजपोशी होनी है. कुछ किरदार ऐसे हैं जिन्होंने बेहतर नतीजे देकर अपनी सीट की दावेदारी मजबूत कर ली है.

पॉवर सेंटर : दूर की कौड़ी… अनुष्ठान… डीजीपी… बुलेट स्पीड… मंत्रिमंडल… – आशीष तिवारी 

गड़बड़झाला

अपने एक विभाग में चल रहे गड़बड़झाले से मुखिया नाराज हैं. हैरत की बात यह है कि उनकी नाराजगी का किसी पर अब तक कोई असर नहीं हुआ. उन्हें लगा था कि जिन जिम्मेदारियों का वह वहन कर रहे हैं, उनके मातहत उनकी तरह पूरी निष्ठा बरतेंगे. उन्हें क्या मालूम था कि ‘’बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था, हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा’’. साये की तरह साथ रहने वाले भी दग़ाबाज़ी करने लगेंगे तो ‘सबका साथ-सबका विश्वास’ का नारा ही धूल धूसरित पड़ जाएगा. अब हाउस के बंद दरवाज़ों से भी कानाफूसी शुरू हो गई है. दुर्ग-राजनांदगांव तक बिछाये गए वसूली के तार की कलई खुल चुकी है. ये कोई नया नवाचार नहीं है. पुराना ही है. बस तौर तरीका बदल गया है. राम नाम जपना,पराया माल अपना की भावना नई है. क्योंकि लोग नए हैं. खैर, सब नजर में है. कब नजर से उतर जाए कोई नहीं जानता. बस इंतजार कीजिए.

पॉवर सेंटर : 72 करोड़ की गिनती… जांच की आंच… जी का जंजाल… सम्मानजनक बोझ… बहाली जल्द !… राष्ट्रीय महोत्सव… लांग डिस्टेंस इश्क… – आशीष तिवारी 

शून्यता

चुनावी आचार संहिता अब शून्य हो गई है. अब तबादला सूची तैयार हो रही है. कई कलेक्टर और एसपी भी अब जल्द ही ‘शून्य भाव’ में आ सकते हैं. कलेक्टरी और एसपी शिप छिनने पर जिंदगी में शून्यता महसूस होती है. आईएएस कहते हैं ब्यूरोक्रेसी का मजा तो कलेक्टरी करने में हैं, वही आईपीएस कहते हैं कि बूटों की खनक का मजा तो एसपी बनने में है. वर्दी की गर्मी महसूस होती रहती है. तबादले की जद में आने वाले कुछ चेहरे ऐसे थे जिन्हें कुछ और वक्त के लिए ‘कुर्सी का सुख’ मिल सकता था लेकिन उनकी करतूते उनके हटने की वजह बन रही है. सरकार से जुड़े लोग कहते हैं कि कम से कम कलेक्टर-एसपी की पोस्टिंग में पारदर्शिता आ जाए तो नीचे का सिस्टम अपने आप दुरुस्त हो जाता है. तबादले के बाद अफसरों का नेमप्लेट बदल जाता है और सबसे बड़ी बात गर्दन का झुकाव बढ़ जाता है. शून्य से शिखर तक का सफ़र लंबा होता है, लेकिन शिखर से शून्यता का सफ़र बस एक आदेश की दूरी पर निर्भर करता है.

सरकार की सख्ती : बगैर सूचना छुट्टी पर गए कलेक्टर को लगी फटकार, तत्काल वापस बुलाए गए

…..और धूल गया पाप

नेता,मंत्री,सांसद और विधायकों ने कुंभ नहा लिया. जाने-अनजाने में कभी पाप किया होगा अब संगम की त्रिवेणी में धूल गया. पाप का पुराना बहीखाता खत्म हुआ और नया शुरू हो गया. हमारी सभ्यता ने ही विशेष रूप से कुंभ जैसी व्यवस्था की है. पहले खूब पाप करो और बाद में कुंभ स्नान कर धो लो. कुंभ स्नान वो काउंटर है, जहाँ नहाने भर से ही स्वर्ग की टिकट बुक हो जाती है. महाकुंभ में हर कोई अपने पाप धोने लालायित है. लोग शरीर धोकर समझते हैं कि पाप धूल गया. पाप शरीर से नहीं होता मन से उपजे दूषित विचारों से होता है. शरीर तो सिर्फ़ एक माध्यम है. कालम में इन पक्तियों को लिखते हुए मुझे भी विचार आ रहा है कि कुंभ स्नान में अपने दूषित विचारों की आहुति त्रिवेणी में बहा आऊंगा. मैं प्रयागराज की ओर अग्रसर हूँ.