Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

पिछलग्गू

एक बैठक में यह चर्चा छिड़ गई कि सूबे के नगर निगमों के कमिश्नर कलेक्टरों के पिछलग्गू बनकर काम कर रहे हैं। कमिश्नरों को लेकर यह दृष्टिकोण सामने आया कि कलेक्टरों की नज़र में नगर निगम कमिश्नर बस एक सरकारी बाबू का उन्नत संस्करण है, जिसकी कुर्सी तो बड़ी है, लेकिन अधिकार छोटे। चर्चा में यह बात भी उठी कि कलेक्टरों की बेगारी के बोझ से कमिश्नरों के कंधे झुक रहे हैं। नगर निगम के रोजमर्रा के कामकाज पर इसका बुरा असर पड़ रहा है। इस बैठक के दौरान एक टिप्पणी दर्ज हुई, जिसमें यह कहा गया कि कलेक्टर के पद को सिस्टम ने एक तरह से इंद्रासन सरीखी चमक दे दी है। वह यह मानकर चलते हैं कि जिले में जो कुछ भी हिलता डुलता है, वह उनके इशारे पर ही होता है। ऐसे में नगर निगम कमिश्नर की कुर्सी, जिसका जन्म शहरी स्वायत्त शासन के लिए हुआ था, वह आज कलेक्टर की एक परिधि वस्तु बनकर रह गई है। निगमों की स्वायत्तता संविधान में लिखी गई है। नगर निगमों को बिना बाहरी हस्तक्षेप के अपने नियमों और मूल्यों के अनुसार स्वतंत्र रुप से निर्णय लेने और कार्य करने का अधिकार मिला हुआ है, मगर वास्तविकता यह है कि कलेक्टर की परछाई से वह बाहर नहीं है। बहरहाल जब इसका उपाय ढूंढा गया, तब एक सुझाव सामने आया कि क्यों न नगर निगम कमिश्नर के पद पर कम से कम विशेष सचिव स्तर के अधिकारी की नियुक्ति की जाए। विशेष सचिव स्तर का अधिकारी कलेक्टर के आभा मंडल से बाहर होगा। फिलहाल यह मालूम नहीं इस प्रस्ताव को अमलीजामा पहनाया जा सकेगा या नहीं, लेकिन यह ज़रूर है कि एक पूर्व प्रचलित व्यवस्था इस सुझाव के बाद हिलती दिख सकती है। 

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रंगीन चश्मा

रंगीन चश्मा बेहद अजीब चीज है। इसे पहनने वाले का पूरा दृष्टिकोण ही बदल जाता है और जब पहनने वाला उम्र की ढलान पर खड़ा कोई पूर्व नौकरशाह हो, जो ताउम्र अपनी रंगीन तबीयत के लिए पहचाना जाता रहा हो, तो फिर क्या ही कहना? रंगीन चश्मा पहने जब पूर्व नौकरशाह शहर के एक बड़े कसरत खाने में जाते हैं, तब वहां जेन-जी लड़कियां उनकी फिटनेस से ज्यादा उनके अंदाज़ पर फिदा हो जाती हैं। इस पूर्व नौकरशाह का जोश उनके ख़िलाफ़ चल रहे मामलों की जांच से कहीं ज्यादा तेज है। यही वजह है कि कई लोग उन्हें फिटनेस गुरु मानने लगे हैं। कसरत खाने में उनकी सुनाई जाने वाली कहानियों से पसीना कम और रोमांच ज्यादा टपकता है। कसरत खाने में उनकी खूब पूछपरख है। एक सज्जन ने उन्हें रंगीन चश्मा पहनकर कसरत करते देख जिज्ञासावश किसी से पूछ लिया कि यहां तो धूप है नहीं। फिर रंगीन चश्मा क्यों? पूर्व नौकरशाह को क़रीब से जानने वाले ने उसे जवाब देते हुए कहा कि रंगीन चश्मा पहनने से उन्हें वहीं दिखता है, जो वह देखना चाहते हैं। आसपास की बाकी हर एक चीज़ अपने आप फ़्रेम से बाहर हो जाती है। अब सवाल यह है कि उम्र के इस पड़ाव पर आकर पूर्व नौकरशाह आख़िर किस चीज़ पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाह रहे हैं? सोचिए जरा। 

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कड़वाहट

हैरत होगी यह सुनकर कि सूबे के एक मंत्री के खिलाफ ख़ुद की पार्टी के नेता-कार्यकर्ता विपक्ष से जा मिले हैं। मंत्री के इलाके में सत्तापक्ष और विपक्षी दलों ने उनके विरोध के लिए एक सर्वदलीय मंच बना लिया है। मंत्री को  सीधी चुनौती दी जा रही है। सुना है कि व्हाट्स एप पर एक ग्रुप भी है, जिसमें मंत्री के खिलाफ कड़वी बातें लिखी जाती हैं। ऐसा नहीं लगता कि मंत्री की नाक के नीचे सुलग रही विरोध की चिंगारी की ख़बर उन तक न पहुंची हो। मगर उनकी बेफिक्री विरोधियों को चिढ़ाने जैसी है। मंत्री की कुर्सी उन्हें सरकार ने दी है। मगर चुनाव में जीत उन कार्यकर्ताओं के मेहनत के बूते मिली थी, जो अब उनके जूते की नोक पर रख दिए गए हैं। ज़ाहिर है मंत्री हैं, तो मुंह में चाशनी ही चाशनी है, लेकिन कथित तौर पर देवतुल्य कार्यकर्ताओं के हिस्से की कड़वाहट का क्या। कार्यकर्ता सिर पर बिठाना भी जानता है और पटकना भी। मंत्री जी समय रहते सबक ले ले तो ही उनकी राजनीतिक सेहत के लिए ठीक होगा। मंत्री के विरोध के लिए विपक्ष से जा मिलना, आसान बात थोड़े ही है। 

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लौटा आत्मविश्वास

जिस हाउसिंग बोर्ड में तनख़्वाह देने तक के पैसे नहीं बचे थे, वहीं हाउसिंग बोर्ड आज दो हज़ार करोड़ रुपए के नए प्रोजेक्ट लांच कर रहा है। दो साल में ऐसा क्या हो गया कि हाउसिंग बोर्ड प्राइवेट बिल्डरों को चुनौती देता दिख रहा है। दरअसल हाउसिंग बोर्ड को उबारने के लिए सबसे पहले खंडहर होते घरों को बेचने का लक्ष्य रखा गया। 30 फीसदी की छूट दी गई। खूब घर बिके। बोर्ड का आत्मविश्वास लौटा। धराशायी होने की कगार पर पहुँच चुके बोर्ड को संजीवनी मिली। आवास मंत्री ओ पी चौधरी, बोर्ड के अध्यक्ष अनुराग सिंहदेव, सचिव अंकित आनंद और कमिश्नर अवनीश शरण की टीम ने हाउसिंग बोर्ड को गर्त से निकालकर यहां तक पहुंचाया है। वरना प्राइवेट बिल्डरों के सिंडिकेट ने हाउसिंग बोर्ड को योजनाबद्ध तरीके से बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखा था। बोर्ड के अफ़सर भी बराबर के भागीदार थे। गुणवत्ताविहीन काम हाउसिंग बोर्ड की पहचान थी। अब लगता है कि इस पहचान से बोर्ड उबर जाएगा, लेकिन यह लगने भर से महसूस नहीं होना चाहिए। प्राइवेट बिल्डरों से मुकाबले के लिए ज़मीन पर ठोस नतीजे देने पर जोर होना चाहिए। 

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कायाकल्प

हाउसिंग बोर्ड का कायाकल्प होने जा रहा है। इसकी पहचान पूरी तरह से बदलने की योजना है। सुना है कि इस बोर्ड का नाम भी बदला जाएगा। नया नाम होगा- हाउसिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट बोर्ड। यानी बोर्ड अब हाउसिंग प्रोजेक्ट के साथ-साथ रोड और पुल-पुलिए भी बनाएगा। किसी भी सरकारी ठेके में प्राइवेट प्लेयर्स के साथ-साथ हाउसिंग बोर्ड भी बिडिंग में हिस्सा लेगा। बोर्ड को लग रहा है कि उसके पास जब क्वालिफाईड इंजीनियर्स की पूरी टीम है, तो सिर्फ हाउसिंग प्रोजेक्ट तक ही क्यों सीमित रहा जाए। दलील यह भी है कि निजी कंपनियां यदि दक्षता का उदाहरण मानी जाती हैं, तो सरकारी संस्थानों को भी उनकी बराबरी के लायक़ बनना चाहिए। हाउसिंग बोर्ड में इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ है, जो अब हो रहा है। अच्छी बात है कि सरकार अपने संस्थानों को मज़बूत करने पर जोर दे रही है। सरकारी संस्थानों का मज़बूत होना जरूरी है। इस बार सिर्फ़ नाम नहीं बदला जा रहा, काम का दायरा भी बढ़ाया जा रहा है। पर इसके लिए सिर्फ अधिकार नहीं, जवाबदेही भी उतनी ही मज़बूत होनी चाहिए। वरना अक्सर बड़े-बड़े शब्दों में हम सुधार सुनते हैं, मगर छोटे-छोटे व्यवहार में गिरावट देख लेते हैं। उम्मीद है कि इस बार क़ाबिलियत को सचमुच काम करने की जगह मिलेगी। 

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स्ट्रिक्ट प्रिंसिपल

प्रशासनिक गलियारे में नए चीफ सेक्रेटरी का नामकरण कर दिया गया है। लोग उन्हें स्ट्रिक्ट प्रिंसिपल कह कर पुकारने लगे हैं। जिम्मेदारी संभालते ही उन्होंने बायोमेट्रिक अटेंडेंस को लागू करने का फरमान सुना दिया था। अब एक दिसंबर से बायोमेट्रिक पर अफसरों से लेकर निचले कर्मचारियों तक अटेंडेंस दर्ज होगा। फ़िलहाल इसका ट्रायल चल रहा है। चीफ सेक्रेटरी का फरमान है, तो हर किसी को मानना ही होगा। अभी ट्रायल चल रहा है, लेकिन अफसरों का डर देखिए कि ट्रायल में ही अपना अटेंडेंस लगा रहे हैं, जिससे उनकी प्रैक्टिस बनी रहे। खैर, स्ट्रिक्ट प्रिंसिपल की बार-बार ली जाने वाली मीटिंग्स भी अफसरों को बेचैन कर रही है। हर दिन किसी न किसी की क्लास लग रही है। पिछले दिनों एक आईएएस ने अपने एक करीबी मित्र से बड़ी गंभीरता से कहा कि लगता है कि अब इस सर्विस का चार्म नहीं रह गया है। आईएएस, आईएएस न रहा। क्लास का स्टूडेंट हो गया है, जिसे जब चाहे तब होमवर्क न करने पर डाँट फटकार दो।