
राजकीय प्रोजेक्ट

महामहिम ने बस इतना कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी पर बनी फिल्म ‘छावा’ देखनी है और उधर मातहतो में हड़कंप मच गया. महामहिम सौ लोगों की अपनी टुकड़ी के साथ फिल्म देखने जाने वाले थे. महामहिम का यह इरादा अफसरों के लिए किसी युद्धघोष की तरह हो गया. असली चुनौती थी कि इतनी टिकट कौन ले? एक- दो टिकट की बात होती तो महामहिम के सरकारी अर्दली नाक भौं सिकोड़कर अपनी जेब ढीली कर लेते. बात सौ टिकटों की थी. महामहिम भला थोड़े ही पूछते कि बताओ टिकट के कितने पैसे देने हैं? खुद के पैसों से टिकट लेना सरकारी अर्दलियों की शान के खिलाफ था और सरकारी खजाने से टिकट की खरीदी विवाद का विषय. सरकारी अर्दलियों के पास एक ही रास्ता रह गया था. राज तंत्र का इस्तेमाल कर ‘चुंगी कर’ वसूला जाए. सरकारी अर्दलियों ने फोन घनघनाना शुरू कर दिया. फरमान सुनाया गया. सौ टिकटें चाहिए. दस वीवीआईपी ट्रीटमेंट के साथ, जिसमें रिक्लायनर कुर्सी हो, खाने-पीने के तमाम साजो समान रखे जाए और बचे नब्बे जन सामान्य के लिए आरक्षित किए जाने, जिसमें कोल्डड्रिंक और पापकार्न की व्यवस्था हो. सरकारी अर्दलियों ने महामहिम की एक छोटी सी इच्छा को मानो किसी ‘राजकीय प्रोजेक्ट’ में तब्दील कर दिया. फिल्म की स्क्रिप्ट से ज्यादा दिलचस्प कहानी बाहर बन गई, उधर ‘छावा’ पर्दे पर चल रही थी और इधर सरकारी अर्दलियों की नौटंकी बाहर देखी जा रही थी. मंत्रालय के गलियारों में लोग इस पर चुटकी लेते हुए एक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि, ये कैसा ‘भवन’ है, जहां से इस तरह ‘राज’ किया जा रहा है.
टिप
वैसे अफसरशाही में यह कोई नई बात नहीं है. कपड़े लत्ते, सब्जी-भाजी, दूध-अंडा, राशन, मोबाइल फोन का बिल, सलून का खर्चा, चुड़ी-टिकली-बिंदी और किसी-किसी मामलों में तो आंतरिक वस्त्रों तक की खरीदी का खर्चा मातहतों के हिस्से रहा है. कुछ घोटालों में सामने आई डायरियां इसकी गवाह हैं, जहां सुनहरे अक्षरों में उन अफसरों के नाम दर्ज है, जो इस व्यवस्था का सुख भोग रहे थे या अब भी भोग रहे हैं. जिनका नाम सार्वजनिक हुआ, वह हंसी के पात्र बन गए और जिनका नहीं हुआ वह निरंतर सुख भोग रहे हैं. एक अधिकारी ने एक दफे कहा था कि 30-32 साल की नौकरी में तनख्वाह का पैसा बचा रह जाए. सरकारी नौकरी में बस इतना ही सुख चाहिए. अधिकारी का नेचर ऐसा था कि थोड़ा लिहाज में सब कुछ करते थे. अब की तरह नहीं थे कि पूरी बेशर्मी पर उतर आए. खैर, किसी बड़े रेस्टोरेंट में खाने के बाद वेटर और दरबान को दिए गए ‘टिप’ सरीखे ही सरकारी नौकरों की नजर उन्हें मिलने वाली ‘टिप’ पर होती है. ‘टिप’ है, जो जिंदगी में मौज ही मौज है.
मीठा नहीं सुहाता
छत्तीसगढ़ में कलेक्टरी के लिए आईएएस अफसरों का सबसे पसंदीदा जिला कोई है, तो वह कोरबा है. कोरबा जिले की एक बार की कलेक्टरी पूरी जिंदगी के लिए मुंह में मिठास घोल देती है. चारों तरफ गुड़ ही गुड़ है, जहां चिटियां मंडराती दिखती हैं. मगर लगता है कि मौजूदा कलेक्टर अजीत वसंत को मीठा नहीं सुहाता. सुनते हैं कि ना तो वह खुद मीठा खाना पसंद करते हैं और ना ही अपनी टीम को मीठा खाने देते हैं. जिले के सरकारी नौकरों को नसीहत है कि मीठे से दूर रहे, नहीं तो सेहत बिगड़ जाएगा. इन सबके बाद भी कोई चोरी छिपे मीठा खा ही ले तो बात अलग है. अजीत वसंत से पहले कोरबा में मीठे की शौकीन कलेक्टर रही हैं, जो अब जेल की सलाखों में सूखी रोटी में आनंद ढूंढ रही हैं. कोरबा कलेक्टर की तरह ही मनेंद्रगढ़-चिरमिरी के कलेक्टर है, डी राहुल वेंकट. पूर्ववर्ती सरकार में जब वह कलेक्टर बनाए गए थे, तब विधायक की एक नाजायज फरमाइश पर उन्होंने अपनी कलम नहीं चलाई थी. नतीजतन सरकार ने बदल दिया था. कहते हैं कि जब बीजापुर में उनकी तैनाती थी, तब राजधानी की सरकारी बैठकों में शामिल होने वह बस से पहुंच जाते थे. अंधेरे में चिराग लेकर ढूंढने पर आज भी ऐसे अफसर मिल जाएं तो ताज्जुब होता है. अफसरों की ऐसी ईमानदारी पर पीठ थपथपा आना चाहिए. दुर्भाग्य है नई व्यवस्था का जहां कलेक्टरों के बीच मुकाबला इस बात को लेकर है कि किसने कितना बटोरा? जरा मुकाबला ईमानदारी का भी कर लें, तो अच्छा होगा. जिलों में कलेक्टर ही सरकार का चेहरा होते हैं. कलेक्टर से सरकार की साख बनती है. कई कलेक्टरों ने सरकार की साख पर चोट करने से कोई गुरेज नहीं किया है. मुमकिन है कि कलेक्टरों के प्रस्तावित फेरबदल में उन पर गाज गिर जाएगी. अब बिल्कुल भी मीठा पसंद नहीं करने वाले कलेक्टरों को सरकार पैदा नहीं कर सकती. इस फितरत के एक-दो अफसर ही सरकार को मिलेंगे. बेहतर है कि कम से कम मीठा खाने वाले अफसर को ही सरकार ढूंढ ले.
अल्पविराम !
मंत्री बनने की बांट जोह रहे नेताओं ने लोकल बाडी इलेक्शन में जमकर पसीना बहाया. नतीजे आ गए हैं. कई नेताओं का स्ट्राइक रेट सौ फीसदी का रहा. इनमें कुछ पुराने चेहरे भी हैं और कुछ नए चेहरे भी शामिल हैं. भाजपा की दो टीम मोर्चा संभाल रही थी. एक संगठन की टीम और दूसरी साय टीम. रिजल्ट दोनों ही टीम ने दिया. मगर साय टीम ने जिस तरह से परफार्म किया है, उससे पुराने चेहरों को टीम में लिए जाने की संभावनाओं पर अल्पविराम लगता दिख रहा है. रेस में कई पुराने और मजबूत चेहरे भी हैं, लेकिन लेटलतीफी ने मंत्रिमंडल में शामिल होने की उनकी गुंजाइश कम कर दी है. डेढ़ साल की सरकार ने टीम साय के चेहरों को पर्याप्त अनुभवी बना दिया है. सरकार चलाने के तमाम समीकरण अब समझ में आ गए हैं. लोकल बाडी इलेक्शन में चुनावी चंदे की कमान भी नए चेहरों को ही सौंपी गई थी. चंदा भी खूब जुटा और सीटें भी भर-भर कर आ गई. हाईकमान की शाबासी मिली सो अलग.
Also Read : पॉवर सेंटर : कलेक्टरों का ‘बीएमआई’… ”एसपी शिप”… शाही सवारी… भुलक्कड़पन…उतरता नशा…- आशीष तिवारी
जेल-बेल
सुप्रीम कोर्ट से मिली बेल के बाद कांग्रेस विधायक देवेंद्र यादव जेल से बाहर आ गए. जेल के बाहर हजारों कार्यकर्ता देवेंद्र को लेने पहुंचे थे. भिलाई तक कारों का काफिला चला. मानो कोई बड़ी लड़ाई जीत ली हो. खैर, इन सबके बीच चंद घंटों में ही देवेंद्र दिल्ली जाकर राहुल गांधी से भी मिल आए. राजनीतिक पंडित कह रहे हैं कि जेल की सलाखों ने देवेंद्र यादव का राजनीतिक कद उनकी खुद की पार्टी में बढ़ा दिया है. राजनीति और जेल का पुराना रिश्ता रहा है. जेल जाने वाला बड़ा नेता बनता रहा है. राजनीति में इसे गौरव की दृष्टि से देखा जाता रहा है. इसके लिए देवेंद्र यादव को भाजपा के नेताओं को धन्यवाद दे देना चाहिए.