Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

रहस्यमयी चुप्पी 

छत्तीसगढ़ से 8 सितंबर को भेजी गई एक चिट्ठी के बाद सूबे की नौकरशाही की तस्वीर बदल गई। यह चिट्ठी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर गए 1994 बैच के आईएएस विकासशील को वापस बुलाए जाने को लेकर थी। डीओपीटी हरकत में आया और फिलीपींस के मनीला में काम कर रहे विकासशील को रिलीव कर दिया गया। तस्वीर बिल्कुल साफ हो गई। यह स्पष्ट हो गया कि विकासशील को वापस बुलाए जाने का मकसद दरअसल उन्हें राज्य का अगला मुख्य सचिव बनाना है। अचानक बदले हुए इस घटनाक्रम पर विकासशील चुप हैं। उनकी रहस्यमयी चुप्पी उनके बैचमेट्स को भी हैरान कर रही है। उनका फोन सलेक्टिव हो गया है। दो दिन पहले यह अफवाह उड़ी कि भारत लौटने के बाद विकासशील रायपुर आए थे। कुछ लोगों से मिले और चुपचाप दबे कदम लौट गए, मगर इस अफवाह पर मुहर लगाने वाला कोई सामने नहीं आया। राज्य के तमाम अफसर अपने-अपने चैम्बर्स में बैठकर उनकी चुप्पी की अलग-अलग व्याख्या कर रहे हैं। खैर, यह तय है कि 30 जून को रिटायरमेंट की चौखट से लौटे अमिताभ जैन इस दफे विदाई समारोह का गुलदस्ता लेकर जाएंगे। उनका तीन महीने का एक्सटेंशन 30 सितंबर को खत्म हो रहा है। पिछली बार की तरह सरकार कोई रिस्क नहीं लेगी। खबर है कि जो चुप हैं, वहीं अगले मुख्य सचिव हैं और जल्द ही उनकी नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया जाएगा। 

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महिला आईएएस कहां

इसमें कोई दो राय नहीं कि विकासशील काबिल अफसर हैं। मुख्य सचिव के रूप में उनका चयन एक योग्य फैसले के रूप में दर्ज होगा। मगर उन्हें मुख्य सचिव बनाने के लिए जिन पांच अफसरों को सुपरसीड किया जा रहा है, उनमें से तीन महिला आईएएस हैं। इनमें रेणु पिल्ले, ऋचा शर्मा और निधि छिब्बर के नाम शामिल हैं। सीनियरिटी में विकासशील छठे पायदान पर हैं, मगर उनकी किस्मत देखिए कि वह पहले पायदान पर बिठाए जा रहे हैं। नौकरशाही के भीतर महिला अफसरों के बीच इसे लेकर चर्चा छिड़ गई है। चर्चा में यह सवाल उठ रहा है कि क्या नौकरशाही पितृसत्तात्मक रुख रखती है? क्या महिला अफसर प्रशासनिक नेतृत्व के काबिल नहीं हैं? या सरकार महिला अफसरों को अधिकार देने से डरती है? रेणु पिल्ले सीनियरिटी क्रम में सबसे ऊपर हैं। सूबे की नौकरशाही में उनकी ईमानदारी के किस्से चर्चित रहे हैं। उन्हें लेकर यह सुना जाता रहा है कि जहां बात नियम-कायदों की होती है, तब वह खुद की भी नहीं सुनती। सीनियरिटी में चौथे क्रम पर ऋचा शर्मा आती हैं। उनकी छवि तेजतर्रार और नतीजे देने वाली अफसर की है। मगर ईमानदारी पर समझौता करना उनकी शैली में नहीं है। सीनियरिटी के क्रम में पांचवें नंबर पर निधि छिब्बर का नाम है। वह विकासशील की पत्नी हैं, लेकिन नए मुख्य सचिव की खोज की चर्चा के दौरान शायद ही उनके नाम पर चर्चा की गई होगी ! खैर, सवाल यह नहीं है कि महिला आईएएस को क्यों नहीं चुना गया। सवाल यह है कि अब भी चयन का पैमाना पात्रता नहीं, परिस्थिति है। खासतौर पर महिलाओं के संदर्भ में। पुरुष प्रधान सत्ता में महिलाओं की स्थिति, सरकार की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं मानी जाती। 

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काला अध्याय

छत्तीसगढ़ की नौकरशाही ने कुछ सालों में देश में खूब सुर्खियां बटोरी है। समीर विश्नोई, रानू साहू, अनिल टुटेजा, टामन सिंह सोनवानी, जीवन किशोर ध्रुव, निरंजन दास, डॉक्टर आलोक शुक्ला और विवेक ढांड जैसे नाम सूबे की नौकरशाही के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गए हैं। इनमें से कुछ नौकरशाहों के हाथ कोयले की कालिख से रंग गए। कुछ नौकरशाहों ने शराब घोटाले में बेसुध होकर गिरावट के सूचकांक में पहला नंबर हासिल कर लिया। कुछ ऐसे भी रहे, जिन्होंने युवा सपनों की बलि चढ़ाकर अपनों को उपकृत करने का महापाप किया। इन नौकरशाहों को यह भी समझ न आया कि प्रशासन को समझने का उनका यह अवैध नजरिया धीरे-धीरे उनका चरित्र बन गया है। अफसोस की बात यह है कि यह सब कुछ किसी क्षणिक लालच में नहीं हुआ। ये लगातार हुआ। सोच-समझकर हुआ। बिना पछतावे के हुआ। दरअसल छत्तीसगढ़ की नौकरशाही ने यह साबित कर दिया है कि जब नैतिक पतन संस्था के शीर्ष स्तर पर होता है, तब व्यवस्था नीचे तक सड़ने लग जाती है और इस सड़न को रोक पाना आसान नहीं होता। घोटालों को अंजाम देने वाले नौकरशाहों ने अपनी करतूतों से सिर्फ पैसा नहीं चुराया। उन्होंने विश्वास चुराया है और सबसे घातक चोरी यही होती है। इस किस्म के नौकरशाह लोकतंत्र के आत्मघाती दस्ते हैं। नौकरशाही में अब भी एक वर्ग ऐसा बचा हुआ है, जो इस व्यवस्था का विरोधी है। एक संवेदनशील और सीनियर नौकरशाह ने राज्य की नौकरशाही के हालातों पर अपनी टिप्पणी दर्ज करते हुए कहा कि जब एक समाज सबसे ताकतवर नौकरशाहों के भ्रष्ट होने पर चुप रहता है, तब वह समाज केवल लूटा नहीं जाता, वह भीतर से गुलाम हो जाता है। राजनीतिक इशारों के साथ छत्तीसगढ़ की नौकरशाही इस गुलामी की अगुवाई कर रही थी और हर कोई चुप था। यह चुप्पी अब भी बरकरार है। 

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नौकरशाही के तीन वाद

नौकरशाही में तीन तरह के वादों का प्रवाह है, चरमवाद, मध्यमार्ग वाद और नैतिकता वाद। चरमवाद के समर्थक वे लोग हैं, जो भ्रष्टाचार को अपना धर्म मान चुके हैं। घोटालों की सूची में अपने नाम को बड़े ही गर्व से दर्ज करते हैं। इसे मानने वालों के लिए नैतिकता बस एक हास्यास्पद शब्द है। सूबे में हुए किस्म-किस्म के घोटालों में सामने आए नाम चरमवाद के समर्थक ही थे। मध्यमार्ग वाद के समर्थक चरमपंथी विचारों और उनकी नीतियों से बचते हैं। इस वाद के समर्थक कूटनीति की चादर ओढ़कर समझौता करते हैं। उनके समझौते की कीमत होती है, सिद्धांतों की कुर्बानी। वह न तो विद्रोह करते हैं, न सवाल उठाते हैं। सुरक्षित रास्ता बनाते हुए भ्रष्टाचार के साथ सह-अस्तित्व की भूमिका निभाते हैं। ये वे लोग हैं, जो भ्रष्टाचार की नदियों में छलांग लगाने से बचते हुए उसके किनारे-किनारे चलना पसंद करते हैं, जिससे वह डूबने से बचे रहे। और रही बात नैतिकता वाद की, तो यह वह दुर्लभ वाद है, जो नौकरशाही में लगभग विलुप्ति की कगार पर है। नौकरशाही की नई पीढ़ी के बीच यह वाद महज एक मिथक बनकर रह गया है। नैतिकता का विलुप्त हो जाना दरअसल एक संस्थागत ढांचे के कमजोर हो जाने का प्रतीक है। एक सीनियर नौकरशाह ने नौकरशाही की व्याख्या करते हुए जब यह जानकारी साझा की, तब यह कहा कि संस्थागत व्यवस्था में अब महज 20 फीसदी चेहरे ही बाकी रह गए हैं, 80 फीसदी चेहरे चरमवाद और मध्यमार्ग को मानने वाले हैं। उन्होंने कहा कि नौकरशाही की नई पीढ़ी हम सबने कुछ इस तरह से ही तैयार कर दी है। पुरानी मान्यताओं की आखिरी बची हुई एक पीढ़ी के खत्म हो जाने के बाद यह सोच पाना भी मुश्किल है कि नौकरशाही में क्या नैतिकता का स्थान बच पाएगा? वह कहते हैं कि अच्छा होगा अगर नौकरशाह समय रहते अपनी सीमाएं तय कर लें, ताकि आत्मसम्मान बचा रह जाए। 

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रेत से तेल

खामखां कांग्रेस की एक महिला विधायक के वायरल आडियो ने तूल पकड़ लिया है। क्या यह बात किसी से छिपी रह गई है कि सूबे में नेता-अफसर रेत से तेल निकालने के धंधे में गले तक डूब चुके हैं। वो तो भला हो उस महिला विधायक का, जिसने कम से कम कलेक्टर-एसडीएम की चिंता तो की। वरना रूलिंग पार्टी का विधायक होता, तो कलेक्टर-एसडीएम की चूं से चाय करने की हिम्मत नहीं होती। रूलिंग पार्टी के विधायकों को थोड़ा प्रिविलेज होता ही है। हां यह बात और है कि अफसरों से संबंध बने और किसी तरह का रोक-टोक न हो, इसलिए रूलिंग पार्टी के विधायक भी कलेक्टर,एसपी,एसडीएम सबको साथ लेकर चलते हैं। वैसे भाजपा हो या कांग्रेस 80 फीसदी विधायक रेत से हर दिन तेल निकाल रहे हैं। यह सर्वदलीय समझौते की तरह है। विधायक तो विधायक सूबे के कुछ मंत्री भी हैं, जो रेत के धंधे में रम गए हैं। कुछ वक्त पहले की बात है। एक जिले में मंत्री अपने करीबियों के मार्फत अवैध रेत खनन के लिए एक रेत घाट पर चैन माउंटेन मशीन लगाने की तैयारी कर रहे थे। कलेक्टर को खबर लगी। उन्होंने मंत्री महोदय को समझाया बुझाया। बदनाम होने की दुहाई दी। तब जाकर मंत्री जी पीछे हट गए। एक दूसरे मंत्री महोदय के बेटे को रेत का धंधा जम गया है। सुबह से लेकर शाम तक रेत घाटों से निकलती गाड़ियों का हिसाब-किताब खुद ही संभालने लगा है। यह सब देख मंत्री अब अपने बेटे के भविष्य को लेकर निश्चिंत हैं। सरकार की नाक की बिल्कुल सीधी रेखा में यह सब काम हो रहा है। सरकार सख्ती भी बरत रही है, मगर हालात ढाक के तीन पात जैसे हैं। अवैध खनन के इस कारोबार पर लगाम लगाने के इरादे से ही सरकार ने रेत नीति बनाई है। मगर ये नीति-वीति से नेताओं और अफसरों का कोई लेना-देना नहीं। खैर, राज्य की नदियों का भूगोल बदल रहा है। हर दिन नदियों की कोख से रेत निकालकर उसकी अस्मिता लूटी जा रही है। इतनी बेतरतीबी से कि आने वाले सालों में राज्य की नदियां सिर्फ नक्शे में रह जाएंगी, जमीन पर नहीं। नदियों की वेदना पर रसूखदार नेता-अफसर-ठेकेदार अपनी शोहरत बढ़ा रहे हैं।

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सिंडिकेट

राज्य के कई शराब कारोबारी रेत के धंधे में उतर आए हैं। रेत से भी अब वह पैसा बना रहे हैं। रेत के वैध-अवैध कारोबार पर शोध कर चुके एक विषय विशेषज्ञ ने बताया कि रेत का खेल बड़ा संगठित हो गया है। रेत खनन का लाइसेंस भले ही किसी के नाम पर रहे, स्थानीय नेता या विधायक की मर्जी के बगैर एक भी दाना रेत उसके इलाके से बाहर नहीं जा सकता। नेता-विधायक और ठेकेदारों का सिंडिकेट बन गया है। नदियों की नसें काटने का लाइसेंस पाने वाले शराब कारोबारी अपना लाइसेंस स्थानीय नेता या विधायक को 25 से 30 लाख रुपए मासिक किराए पर दे रहे हैं। अवैध खनन करने या करवाने वाले नेताओं के लिए यह वैधता पाने जैसा है। इसकी आड़ में लिमिट से ज्यादा रेत खोदी जा रही है। सरकार को अपनी आंखों की गर्माहट दिखाए जाने की जरूरत है। 

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