Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor

‘सुर’ बिगड़ना (1)

सही गलत की परिभाषा से परे अब सरकार का कहना ही सब कुछ है. सरकार के कुछ कहे पर नियम कायदे का राग अलापने वाले अफसरों का ‘सुर’ सरकार बिगाड़ देती है. अब कोई आकर पूछे कि ‘सुर बिगड़ना’ किसे कहते हैं? तब यही परिभाषा दी जानी चाहिए. बहरहाल कई काबिल अफसर रहे हैं, जिन्होंने मौखिक या लिखित सरकारी आदेशों पर थ्रू रूल चलने वाला ज्ञान बघार कर अपना सत्यानाश कर लिया. कई अब भी कर रहे हैं. सरकार के कुछ कहे का स्पष्ट मतलब यह होता है कि एक पल की देरी किए बगैर वह काम झट से कर दो. अब कायदे के अफसरों को यह बात भला कौन समझाए कि सरकार किसी की भी रहे, सरकार ही होती है. फिर शुचिता और अनुशासन की दुहाई देने वाली पार्टी की ही क्यों ना हो? सरकार में पार्टी की भूमिका सीमित हो जाती है. यहां पार्टी के नियम लागू नहीं होते. पिछली सरकार की परंपराओं को आदर्श मानकर हर सरकार उसी परंपराओं को ढोते चलती दिखती है. वरना एक वक्त था, जब सरकार अफसरों को अपनी मंशा बता कर बैठ जाती थी, तब नजर सिर्फ उस मंशा के अनुरूप आने वाले नतीजों पर टिकी होती थी. अफसर नियम कायदों में पूरे मामले को कुछ इस तरह से फिट कर जाते थे कि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा होय वाली बात लगती. अब ऐसा होता नहीं दिखता. नियम कायदे वाले अफसर सरकार की इंट्रेस्ट लिस्ट से बाहर होते जा रहे हैं. कई काबिल अफसर शंट कर दिए गए हैं. पिछले दिनों एक कलेक्टर का विकेट उखड़ गया. उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे. वह काबिल थे. अब उनकी काबिलियत का लोहा सरकार मंत्रालय में बिठा कर मनवाएगी.

‘तबादला’ (2)

कहते हैं कि टेक्निकलिटी की वजह से चुनावी नतीजे जारी होने में देरी हो रही थी. नतीजे जल्दी जारी करने का दबाव था. क्या मंत्री और क्या अफसर. फोन पर फोन जा रहे थे. जीत-हार का अंतर बेहद करीब का था. सांस अटक गई थी. कईयों की धड़कने ऊपर-नीचे हो रही थी. मगर अफसर प्रोटोकाॅल फालो कर रहे थे. जब धड़कने बढ़ी हुई हो तब प्रोटोकाॅल की किसे पड़ी होती है. प्रोटोकाल फालो करते-करते थोड़ी देरी हो गई. कहने भर को यह महज ‘थोड़ी देरी’ थी. मगर जब तबादला आदेश जारी हुआ, तब समझ आया कि यह ‘ थोड़ी देरी’ दरअसल कुछ लोगों के लिए ‘बहुत ज्यादा’ थी. इस थोड़े-बहुत के फासले ने अच्छे अफसर का तबादला करवा दिया.

‘दो पटरी’

सरकार और ब्यूरोक्रेसी रेल की दो पटरियों की तरह है. बिल्कुल समानांतर चलती रहने वाली व्यवस्था. सरकार नीतियां बनाती है, ब्यूरोक्रेसी उस पर अमल करती है. पटरी समानांतर न हो तो दुर्घटना तय है. यह बात सरकार और ब्यूरोक्रेसी दोनों को ही समझ लेनी चाहिए. पटरी पर दरार पड़ने पर सुधार की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए. यही सिद्धांत एक बेहतर व्यवस्था खड़ी करता है. सरकार की अपनी सीमाएं हैं. अफसरों की अपनी. सीमाओं का यह बंधन जहां ढीला पड़ने लगे, समझ लेना चाहिए कि कहीं कुछ गड़बड़ है. पूर्ववर्ती रमन सरकार और ब्यूरोक्रेसी बेहतर सामंजस्य का एक उदाहरण है. अफसरों की छोटी-मोटी गलतियों पर सरकार का ध्यान नहीं जाता था. अफसरों के कान पकड़ने की अलग व्यवस्था थी. बहरहाल एक पुरानी लोकोक्ति है, ‘चाय में मक्खी गिरे तो चाय फेंकते हैं और घी में मक्खी गिरे तो मक्खी फेंकते हैं. इंसान घाटा और मुनाफा देखकर सिद्धांतों का ढोंग करने लगा है. सरकार में भी कुछ ऐसा होता दिखता है.

‘कौन बनेगा मंत्री?’

1999 की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में छत्तीसगढ़ से तीन-तीन केंद्रीय मंत्रियों को राज्य ने देखा था. तब अविभाजित मध्यप्रदेश था. मगर केंद्रीय मंत्रिमंडल में छत्तीसगढ़ का दमखम तो था ही. इसके बाद छत्तीसगढ़ के लिए कभी ऐसी जगह बची नहीं. दरअसल बचाई नहीं गई. लाॅलीपाप की तरह एक मंत्री पद दे दिया जाता. शायद यह सोचकर कि छोटा राज्य है. लाॅलीपाप में ही खुश हो जाएगा. दरअसल हकीकत यह है कि राजनीतिक दलों के नफा-नुकसान का गणित छत्तीसगढ़ से हल नहीं होता था, सो हल ढूंढने की दिलचस्पी कभी दिखाई नहीं गई. इस दफे चुनाव में भाजपा को उन राज्यों ने दगा दिया, जहां से झोला भर-भर कर मंत्री दिल्ली ले जाए जाते रहे. ऐसे वक्त में छत्तीसगढ़ ने दिल्ली में भाजपा की लाज बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. 11 में से 10 सीट जीतकर दे दिया. अब सहयोगी दल के साथ भाजपा सरकार बना रही है, जाहिर है नफा नुकसान का गणित एक बार फिर उन क्षेत्रीय दलों के जरिए हल किया जाएगा, जिसकी पीठ पर सवार होकर सरकार बन रही है. फिर भी, उम्मीदों का आसमान बड़ा होना चाहिए. छत्तीसगढ़ में बड़ी जीत दर्ज करने वाले बृजमोहन अग्रवाल, दमखम वाले नेता विजय बघेल, संघ की पसंद से टिकट पाने और दूसरी बार जीतने वाले संतोष पांडेय, विधानसभा चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ करने वाले जांजगीर से लोकसभा जीतने वाली कमलेश जांगड़े और बस्तर से हिन्दुत्व का नया-नया चेहरा बने महेश कश्यप के नाम चर्चा में है. इनमें से किसकी लाॅटरी खुलती है फिलहाल मालूम नहीं. भाजपा अब अनप्रिडिक्टेबल हो चुकी है. मगर कोई तो लिया जाएगा. यह तय है.

‘शिकस्त’

अब इसे इत्तेफाक कहें या फिर नियति का खेल. दुर्ग से निकलकर दूसरी सीटों पर जिन प्रत्याशियों की पैराशूट लैंडिंग कराई गई. सब के सब औंधे मुंह गिरे. इन प्रत्याशियों के राजनीतिक करियर पर इस चुनाव ने बड़ी चोट लगा दी. फिर दल चाहे भाजपा हो या कांग्रेस. सूची में कई बड़े नाम हैं. पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को राजनांदगांव, पूर्व गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू को महासमुंद और विधायक देवेंद्र यादव को बिलासपुर से टिकट देकर समाजिक समीकरण की बिसात बिछाई गई. सारे समीकरण फेल साबित हुए. जनता ने सबको पटखनी दे दी. कोरबा से चुनाव लड़ने वाली सरोज पांडेय का भी हाल कुछ यूं ही रहा. नए समीकरण बनाकर सरोज को कोरबा भेजा गया. सरकार में बैठी भाजपा भी उनकी सीट बचा नहीं पाई. मंत्री और सीनियर विधायकों के इलाकों से भी वोट नसीब नहीं हुआ. कोरबा में भाजपा गुटों में नजर आई. एकजुट होने की बजाए पार्टी आंतरिक बिखराव के साथ चुनाव लड़ रही थी. एक मंत्री पर अब तलवार लटक रही है. एक विधायक पर संगठन ने अपनी आंख तरेर दी है.