पटना। बिहार की राजनीति हमेशा से जाति आधारित रही है। लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक हर नेता ने अपनी पहचान और वोट बैंक बनाने के लिए जातिगत समीकरणों का इस्तेमाल किया। ऐसे माहौल में जनसुराज पार्टी के संस्थापक और रणनीतिकार प्रशांत किशोर का यह कहना कि मेरी जाति न मेरी ताकत है न मेरी कमजोरी राजनीतिक परिदृश्य में एक नया संदेश लेकर आया है।
जाति से परे राजनीति की पहल
प्रशांत किशोर से उनके पांडे सरनेम के बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा ना मैं पांडे जोड़ता हूं ना हटाता हूं। मेरी जाति से न मैं डरता हूं न उस पर गर्व करता हूं। इस बयान के जरिए वे बिहार की राजनीति में जाति आधारित सोच को चुनौती दे रहे हैं। पीके का यह बयान सिर्फ व्यक्तिगत सफाई नहीं बल्कि एक विचारधारा की शुरुआत है। उनका उद्देश्य स्पष्ट है बिहार में राजनीति अब जाति के आधार पर नहीं बल्कि विकास काम और युवा केंद्रित एजेंडे पर हो।
युवा और विकास के मुद्दे
आज बिहार में युवा बेरोजगारी, पलायन और विकास की समस्याओं से जूझ रहे हैं। प्रशांत किशोर इस थकान को समझते हैं और जनता को जाति से परे सोचने का न्योता दे रहे हैं। उनका कहना है कि आने वाले समय में सवर्ण नेतृत्व की संभावनाएँ सीमित हैं, इसलिए अब राजनीति व्यक्तित्व विचार और काम के आधार पर तय होनी चाहिए।
क्या बिहार तैयार है?
हालांकि बिहार की राजनीति में जाति की जड़ें अभी भी गहरी हैं लेकिन प्रशांत किशोर का यह कदम बहस की दिशा बदल सकता है। जनसुराज पार्टी के जरिए वे यह संदेश देना चाहते हैं कि अब चुनाव में विकास और काम को प्रधानता मिले। सवाल यह है कि क्या बिहार की जनता वास्तव में जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर नई सोच को अपनाने के लिए तैयार है।
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