ब्रजभूमि का प्रातःकाल मानो आज स्वर्ण रश्मियों से अधिक पवित्र दीप्ति बिखेर रहा था. मथुरा की प्राचीन पीठ विष्णु स्वामी संप्रदाय का गौरवस्थल, श्री गोपाल वैष्णव पीठ आज भक्ति, मर्यादा और परंपरा के संगम का सजीव साक्षात्कार कर रहा था. पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज के करकमलों से जब यदुनन्दन जी महाराज के मस्तक पर आचार्यत्व का पवित्र तिलक अंकित हुआ, तो गोपाल मंदिर का प्रांगण मंगलध्वनियों, शंखनाद और हृदयस्पर्शी रागों से आलोकित हो उठा.
यही वह भूमि है जहां आज भी चारों वेदों की शांति-स्वर लहरियां गूंजती हैं, जहां पंचरात्रागम की मर्यादा में गोपाल जी की निधि स्वरूप सेवा अनवरत होती है. इसी पुण्य स्थल पर कभी मीरा ने प्रभात की लाली में “जागो मोहन प्यारे” गुनगुनाया था और तब से यह आंगन गोपाल माधुरी की उस रसधारा में डूबा है, जो भक्तिमार्ग की तप्त मृदुता की आत्मा है.
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इस पावन दिवस पर महाराज ने पूज्य पुरुषोत्तम महाराज के नित्य लीला प्रवेश पर श्रद्धांजलि अर्पित की, मानो स्मृति और संकल्प दोनों ने एक साथ पुष्प अर्पण किया हो. पुंडरीक महाराज द्वारा की गई ‘छत्र अर्पण सेवा’ ने इस दिवस को वो महिमा दी, जहां सेवा के पीछे केवल कर्तव्य नहीं, अपितु प्रेम और समर्पण का शाश्वत भाव प्रतिष्ठित है. गोपाल मंदिर का आंगन संत-मुनियों की उपस्थिति से आलोकित था. ब्रज के नन्द बाबा पूज्य गुरु शरणानंद, पूज्य रमेश बाबा और पूज्य द्वारकेश लाल की सुधामयी उपस्थिति ने उस वातावरण को तपोमयी बना दिया. हर ओर हरिनाम की गूंज, पुष्पों की सुगंध, और श्रद्धा से झुके हुए मस्तक जैसे स्वयं ब्रजवायु भक्ति में निमग्न हो.
यह अभिषेक केवल एक व्यक्ति का पदारूढ़ होना नहीं, अपितु चतुर्वेदी परंपरा और गौड़ीय समन्वय के उस मधुर संगम का उद्घोष है, जहां भक्ति ही धर्म है और प्रेम ही परंपरा, आने वाले युगों में यह दिवस स्मरणीय रहेगा. जैसे भक्ति का एक नवीन सूर्योदय, जो ब्रजभूमि की मिट्टी में सदैव आलोक फैलाता रहेगा.
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