रायपुर. लोकसभा के पहले चुनाव के साथ अस्तित्व में आए रायपुर संसदीय क्षेत्र का न केवल प्रदेश के बल्कि देश के राजनीतिक इतिहास में एक अहम स्थान है. इस सीट पर आजादी के समय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे आचार्य कृपलानी ने चुनाव लड़ा था, तो यहां से चुनाव जीतकर समाजवादी नेता पुरुषोत्तम लाल कौशिक ने भी अपनी राष्ट्रीय पटल पर पहचान बनाई. यहां से निर्वाचित कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल का आपातकाल के दौरान और बाद में भी राष्ट्रीय राजनीति में दबदबा रहा. वहीं गांधीवादी और किसान मजदूर आंदोलन के प्रणेता केयूर भूषण भी इसी रायपुर संसदीय क्षेत्र से दो बार सांसद रहे.

रायपुर संसदीय क्षेत्र का अस्तित्व 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में ही आ गया था. शुरुआती दौर में कांग्रेस का इस संसदीय क्षेत्र में दबदबा रहा. स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आजादी से लेकर 1971 तक हुए चुनावों में कांग्रेस ने एकतरफा जीत हासिल की. केवल विजयी प्रत्याशियों के नाम बदलते गए. द्वि सदस्यीय इस संसदीय क्षेत्र में पहले चुनाव में भूपेंद्र नाथ मिश्रा के साथ मिनीमाता अगमदास गुरु चुनीं गईं. 1957 में हुए दूसरे चुनाव में राजा बिरेंद्र बहादुर सिंग के साथ रानी केशर कुमारी देवी चुनीं गईं. 1962 में हुए तीसरे चुनाव में रानी केशर कुमारी देवी के साथ श्याम कुमारी देवी सांसद के रूप में चुनी गईं.

महात्मा गांधी के साथ आचार्य कृपलानी

आचार्य कृपलानी को खानी पड़ी शिकस्त

एक सदस्यीय सीट होने के बाद 1967 में हुए चुनाव में कांग्रेस के लखनलाल गुप्ता ने जीत हासिल की. उन्होंने 1947 में भारत की आजादी के समय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे जेबी कृपलानी (आचार्य कृपलानी) को पराजित किया. कृपलानी कांग्रेस से अलग होकर जन कांग्रेस के प्रत्याशी के तौर पर खड़े थे. इसके बाद 1971 में हुए चुनाव में परिदृश्य बदल गया था. अबकी बार मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल के पुत्र विद्याचरण शुक्ल ने कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में उतरे और जनसंघ के प्रत्याशी बाबूराव पटेल को 84 हजार से अधिक मतों के अंतर से पराजित किया.

आपातकाल का वीसी ने झेला गुस्सा

इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री के तौर पर आपातकाल के दौरान अहम भूमिका निभाने वाले विद्याचरण शुक्ल भी आपातकाल को लेकर लोगों के गुस्से से बच नहीं पाए और 1977 में हुए चुनाव में लोकदल के प्रत्याशी के तौर पर खड़े पुरुषोत्तम लाल कौशिक से 85 हजार से ज्यादा मतों के अंतर से पराजित हुए. 1980 में हुए चुनाव में कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े रहे गांधीवादी केयूर भूषण ने स्वतंत्र प्रत्याशी के तौर पर लड़ रहे पवन दीवान को पराजित किया. 1984 में हुए चुनाव में केयूर भूषण ने फिर से जीत हासिल की, इस बार उन्होंने भाजपा के प्रत्याशी रमेश बैस को एक लाख से ज्यादा मतों से पराजित किया.

बैस की जीत के साथ बन गया भाजपा का गढ़

1989 में हुए लोकसभा चुनाव में रमेश बैस ने कांग्रेस प्रत्याशी केयूर भूषण को लगभग 90 हजार मतों के अंतर से पराजित कर भाजपा का खाता खोला. 1991 में हुए चुनाव में कांग्रेस में वापसी करने वाले विद्याचरण शुक्ल ने रमेश बैस को हजार से भी कम मतों के अंतर से पराजित किया. लेकिन इसके बाद हुए चुनावों में रमेश बैस ने क्षेत्र पर मानो एक तरह से एकाधिकार जमा लिया हो. 1996 में हुए चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के धनेंद्र साहू को, 1998 में हुए चुनाव में विद्याचरण शुक्ल को, 2004 में श्यामाचरण शुक्ल को सवा लाख से भी ज्यादा मतों के अंतर से पराजित किया.

भाजपा ने बैस के स्थान पर सोनी पर लगाया दांव

2009 के चुनाव में रमेश बैस ने भूपेश बघेल को 57 हजार मतों के अंतर से तो 2014 के चुनाव में कांग्रेस के सत्यनारायण शर्मा को करीबन पौने दो लाख मतों के अंतर से पराजित किया. लेकिन 2018 में विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद भाजपा ने छत्तीसगढ़ के सभी 10 सांसदों की टिकट काट नए प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है. 2019 में भाजपा ने सुनील सोनी पर दांव लगाया है, वहीं कांग्रेस ने अबकी बार रायपुर महापौर प्रमोद दुबे को मैदान पर उतारा है. रायपुर लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले नौ सीटों में से बलौदाबाजार में जनता कांग्रेस, भाटापारा में भाजपा, धरसींवा में कांग्रेस, रायपुर ग्रामीण में कांग्रेस, रायपुर पश्चिम में कांग्रेस, रायपुर दक्षिण में भाजपा, रायपुर शहर में कांग्रेस और अभनपुर में भी कांग्रेस के विधायक हैं.