जयपुर। राजस्थान उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक प्रथम वर्ष के विधि छात्र द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें एलएलबी परीक्षा के प्रश्नपत्र में अयोध्या विवाद से संबंधित कथित रूप से पक्षपातपूर्ण और भड़काऊ प्रश्न को हटाने की मांग की गई थी.

न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड ने कहा कि किसी कानूनी फैसले की अकादमिक आलोचना, चाहे वह संवेदनशील मुद्दों से संबंधित ही क्यों न हो, जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे के अभाव में धर्म पर हमले के समान नहीं मानी जा सकती.

न्यायालय ने कहा, “केवल इस आधार पर कि प्रश्नपत्र के किसी हिस्से से भारतीय दंड संहिता की धारा 295ए के तहत धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचती है, उसे चुनौती देना कानूनी रूप से मान्य/मान्य नहीं है, जब तक कि यह स्थापित न हो जाए कि उस विषयवस्तु को… जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए शामिल किया गया था.”

याचिकाकर्ता, अनुज कुमार कुमावत, जयपुर के महावीर लॉ कॉलेज में प्रथम वर्ष के छात्र हैं. उन्होंने डॉ. भीमराव अंबेडकर विधि विश्वविद्यालय द्वारा 12 अगस्त, 2024 को आयोजित विधि भाषा, विधि लेखन और सामान्य अंग्रेजी की परीक्षा के एक प्रश्न की विषयवस्तु को चुनौती दी थी.

कुमावत ने दावा किया कि संबंधित अंश में अयोध्या राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर अनुचित टिप्पणी की गई थी. उन्होंने आरोप लगाया कि यह पक्षपातपूर्ण है, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाता है और संविधान के अनुच्छेद 25 और भारतीय दंड संहिता की धारा 295ए का उल्लंघन करता है.

अन्य राहतों के अलावा, उन्होंने विश्वविद्यालय को ऐसी विषयवस्तु हटाने, परीक्षक के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने और सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगने के निर्देश देने की माँग की. हालाँकि, न्यायालय ने याचिका में कोई दम नहीं पाया और शैक्षणिक स्वतंत्रता की रक्षा की आवश्यकता पर बल दिया.

अदालत ने कहा, “शैक्षणिक संस्थानों की शैक्षणिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता को केवल इस आधार पर सीमित या समझौता नहीं किया जाना चाहिए कि व्यक्तिपरक भाषा से भावनाओं को ठेस पहुँचने का आरोप लगाया गया है, जब तक कि कानून का स्पष्ट उल्लंघन न हो या उसमें प्रयुक्त भाषा अपमानजनक, आपत्तिजनक या मानहानिकारक न हो.”

न्यायमूर्ति ढांड ने आगे कहा कि परीक्षा में शामिल हुए किसी भी अन्य छात्र ने विषयवस्तु पर आपत्ति नहीं जताई थी. निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि संविधान न्यायालय के निर्णयों की निष्पक्ष और तर्कसंगत आलोचना को संरक्षण प्रदान करता है.

न्यायालय ने कहा, “किसी छात्र, शिक्षक या विद्वान द्वारा किसी कानूनी निर्णय पर व्यक्त की गई शैक्षणिक या व्यक्तिगत राय, चाहे वह संवेदनशील मुद्दों से संबंधित ही क्यों न हो, किसी भी धर्म पर हमले के समान नहीं मानी जा सकती.” उन्होंने आगे कहा कि ऐसी अभिव्यक्ति को “कानूनी तर्क और आलोचनात्मक विश्लेषण में एक सकारात्मक और रचनात्मक अभ्यास” के रूप में देखा जाना चाहिए.

न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कानून को भावनाओं से नहीं, बल्कि तर्कों से संचालित होना चाहिए. इसके साथ ही याचिका को गलत पाते हुए, न्यायालय ने इसे सभी लंबित आवेदनों के साथ खारिज कर दिया.