पी. रंजनदास, बीजापुर. जिस राह पर मैं चल पड़ी थी वहां से मेरी मौत की खबर ही आ सकती थी, लेकिन भाई के खतों से दिल इस कदर पसीजा कि माओवाद के घुप्प अंधेरे से मैं बाहर आ गई. साढ़े पांच सालों तक मेरे नाम की राखी भाई की कलाई पर सज नहीं पाई थी. ये दास्तां है कभी माओवाद का दामन थामने वाली राजकुमारी यादव की. वैसे तो बस्तर के बीहड़ में नक्सलवाद की राह पर कदम बढ़ा चुकी सैकड़ों राजकुमारी है, जिनकी कहानी हूबहू मिलती जुलती होगी.

राजकुमारी यादव

साल 2019 तक माओवाद संगठन में सक्रिय राजकुमारी वर्तमान में नक्सलवाद के खिलाफ युद्ध में सबसे कारगर डीआरजी में महिला कमांडो दस्ते का हिस्सा है. रक्षाबंधन के मौके पर राजकुमारी की तरह सरेंडर महिला माओवादी सुमित्रा चापा ने खुद की जुबानी अपनी कहानी बयां की. सरेंडर से पहले राजकुमारी नक्सल संगठन की सक्रिय सदस्य थी. वह बताती है कि सलवा जुडूम से पहले अपने परिवार के साथ गांव में खुशहाल जिंदगी जी रही थी. सलवा जुडूम के दौरान कमोवेश हालात ऐसे बदल गए कि वह नक्सलियों के संगठन में शामिल हो गई. साढ़े पांच साल तक मानो परिवार वालों से उसका कोई वास्ता ना था, लेकिन इस बीच डीआरजी में तैनात उसका भाई बहन को मुख्यधारा में लाने की ठान वह खत पर खत लिखता रहा.

आखिरकार भाई के खतों से राजकुमारी का मन पसीजा और खूनी संघर्ष की राह को छोड़कर मुख्यधारा पर लौट आने का फैसला किया. नतीजा यह रहा कि सरेंडर के बाद उसे नौकरी मिली और वह पांच साल के लम्बे इंतजार के बाद भाई की कलाई पर रक्षा सूत्र बांध सकी. राजकुमारी की मानें तो सही मायनों में यही रक्षाबंधन है कि भाई की जिद से आज वो उस राह से लौट आई, जिसकी मंजिल जेल की सलाखों या फिर मौत के मुहाने तक लेकर जाती है.

सुमित्रा चापा

सुमित्रा चापा भी राजकुमारी की तरह सरेंडर माओवादी है और डीआरजी में शामिल है. उसे खुशी इस बात कि है कि वह अपने परिवार के पास लौट आई है. भाई सीआरपीएफ में है, फोर्स में होने की वजह से दोनों छुट्टी की गारंटी तो नहीं दे सकते, लेकिन देर सही भाई की कलाई सूनी ना रहे, इसलिए डाक से राखी वह भिजवा चुकी है.

फर्ज के आगे कैसा मलाल

डीआरजी में शामिल प्रधान आरक्षक ममता नेताम कहती है कि ड्यूटी से ही उन्हें दायित्व का बोध होता है. डीआरजी में रहते उन्हें संघर्षशील स्थितियों का सामना जरूर करना पड़ता है. महिला होने से ऑपरेशन के दौरान निजी दिक्कतें पेश जरूर आती है, लेकिन जज्बात इससे कम नहीं होते. मनोबल सदैव उंचा होता है. दीवाली हो या रक्षाबंधन का पर्व, अवश्य त्योहार साल में एक बार आते हैं, लेकिन छुट्टी की कोई गारंटी ना होने से त्योहार का रंग फीका पड़ जाए ऐसा कभी नहीं होता. फिलहाल रक्षाबंधन पर ऑपरेशन पर होने के साथ अन्य व्यस्तताओं के चलते डीआरजी की महिला आरक्षकों की राखी की खरीददारी त्योहार के दिन से चंद घंटों पहले तक शुरू नहीं हो पाई थी.