लेखक- बादल सरोज

अब जिस एक और नए व्यापारिक समझौते पर ‘खून में व्यापार” होने का दावा करने वाली सरकार दस्तखत करने जा रही है उसके असर से शायद ही कोई काम-धंधा बचेगा । आरसीईपी नाम के इस व्यापार समझौते में प्रावधान है कि इसमें शामिल देश एक दूसरे के यहां बिना किसी प्रतिबंध या टैक्स के अपना माल भेज सकेंगे ।

दूरगामी तो छोड़िए इसका फौरी असर ही भयानक होने वाला है और पहले से ही हांफ-कराह रही खेती किसानी, उद्योग धंधे, दूध डेयरी का काम तबाह होने जा रहा है । इसलिए कि बिना किसी रोकटोक के आने वाले सस्ते माल से भारतीय बाजार पट जाएगा ।

नव उदारीकरण के ऊंट की पूंछ से खुद को नत्थी करके हुक्मरानों ने पहले से भारतीय अर्थव्यवस्था की धोती ढीली कर रखी है, आर सी ई पी के बाद तो उसकी घंटी ही बज जाने वाली है ।

रीजनल कंप्रेहेंसिवे इकोनॉमिक पार्टनरशिप (क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी) नाम का यह समझौता सोलह देशों के बीच एक प्रस्तावित महाकाय मुक्त व्यापार समझौता – मेगा फ्री ट्रेड एग्रीमेंट – है। जिसे आसियान के दस सदस्य देशों तथा छह अन्य देशों (ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और न्यूज़ीलैंड) के बीच किया जाना है। आसियान यानी एसोसिएशन ऑफ़ सॉउथ इस्ट एशियन नेशन्स (दक्षिण पूर्वी एशियाई देश) संगठन है । इसमें ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्याँमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम देश शामिल हैं। निस्संदेह इस तरह के क्षेत्रीय समझौते बाजार पर साम्राज्यवादी वर्चस्व और बड़े विकसित देशों द्वारा अपने माल से अविकसित और पिछड़े देशों को पाट देने के खिलाफ एक जरिया हैं । मुनाफों और प्राकृतिक संसाधनों की साम्राज्यवादी लूट के वैश्वीकरण के विरुध्द कवच हैं । मगर उनमे शामिल होते समय भी कुछ एहतियात जरूरी होते हैं । अंधेरे के मुकाबले रौशनी आवश्यक है किन्तु अपना घर फूँककर उजाला करना अक्लमंदी नही कही जाती ।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर के करारों की अनदेखी करना जितना खतरनाक है उतना ही “उनसे हमे क्या फर्क पड़ेगा” के अति-आत्मविश्वासीभाव मे रहना भी है । आबादी के एक हिस्से में इसी तरह की एक प्रवृत्ति डंकल प्रस्ताव के समय थी जिसका परिणाम आज खेती किसानी की बदहाली और मैन्युफैक्चरिंग की चरमराहट में जाहिर उजागर है ।
तनिक सी गहराई में जाने से ही दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है । जैसे सिर्फ दूध और दुग्ध उत्पादों के उदाहरण से इस नए समझौते की असलियत समझ सकते है ।

भारत दुनिया मे दूध की खपत का सबसे बड़ा देश है । उत्पादन भी इफरात में है । यहां अभी बाहर से आने वाले दुग्ध उत्पादों पर 64% का टैक्स लगता है । इस समझौते के बाद यह पूरी तरह हट जाएगा । अभी भारत मे दूध पाउडर की कीमत 260 रुपये प्रति लीटर है । जबकि न्यूज़ीलैंड में इसका दाम है 160 से 170 रुपये प्रति लीटर । न्यूज़ीलैंड दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है और अपने दूध का 93% दुनिया को निर्यात करता है। दूध के सरप्लस और कीमत के मामले में लगभग यही स्थिति ऑस्ट्रेलिया की है ।

विज्ञान और तकनीक की प्रगति के बाद अब इत्ती दूर से दूध कैसे आएगा ? का प्रश्न अप्रासंगिक हो गया । यह आलरेडी आ रहा है । रामदेव बाबे जो दूध दही का एटीएम बेचते हैं वे उनकी कपिला-कामधेनु का नहीं होता । विदेशों से आया पाउडर ही होता है । अब वह पूरे मुक्त भाव से पानी के मोल आयेगा ।

भारत के 10 करोड़ किसान परिवारों की जिंदगी दूध की आमदनी से जुड़ी है । इसकी कुल आय का 71% इन्ही किसान परिवारों में जाता है । साल में दूध के कुल उत्पादन का मूल्य 3,14,387 करोड़ रुपये है जो कि धान और गेहूं के कुल उत्पाद के मूल्यों के योग से ज्यादा है। किसानों को धान और गेहूं के उत्पादन का जितना दाम मिलता है उससे ज्यादा दाम दूध के उत्पादन से मिलता है। जाहिर है ग्रामीण अर्थव्यवस्था और देश के आर्थिक जीवन मे दूध व्यापार के इस प्रवाह का बड़ा योगदान है ।

कृषि विशेषज्ञों की माने तो पिछली साल 2018-19 में भारत में दूध का उत्पादन 18.77 करोड़ टन हुआ था जो कि कुल वैश्विक उत्पादन में 21 फीसदी है और देश में दूध का उत्पादन सालाना आठ फीसदी की दर से बढ़ रहा है।

मगर बात निकलेगी तो सिर्फ दूध तलक ही थोड़े ही जाएगी । इन्हीं देशों से सब्जियां, मछली, अनाज और मसाले भी आएंगे । छोटे, मंझोले किसानों, खेतमज़दूरो यानी खेतिहर आबादी के 85% की वाट लगाएंगे । भट्टा सिर्फ ग्रामीणों का ही नही बैठेगा । ऑटोमोबाइल गाड़ी भी आयेंगी, स्टील, तांबा, कपड़ा सब कुछ आएगा । छुट्टा और निर्बाध । कारखाने बंद होंगे, मजदूरी घटेगी, बाजार और सिकुड़ेगा । दवा के क्षेत्र में तो यह बीमारी और भी तेजी से फैलेगी । न जाने कितनी दवा कंपनियों पर ताले डलेंगे ।

4 नवम्बर को इस करार पर दस्तखत होने की संभावना है । इस दिन किसान सभा सहित अनेक किसान मजदूर संगठनों ने एक साथ मिलकर देश भर में विरोध कार्यवाहियां करने का आव्हान किया है ।

कई बार यह सरल सा सवाल उठता है कि आखिरकार एक आम नागरिक कर भी क्या सकता है ? असहमत होते हुए भी चाहकर भी अपनी असहमति जताए तो कैसे जताए ? लेकिन इतना कठिन भी नही है । इस दिन जहां भी हो गला खंखारकर जोर से आवाज तो उठाई जा सकती है ; हुक्मरानों से कहा जा सकता है कि हिन्दू मुसलमान, भारत पाकिस्तान, मोदी भगवान अमितशाह महान का भागवत पुराण बाद में सुनाइयेगा पहले इस करार का विकल्प ढूँढिये ।

(लेखक- अखिल भारतीय किसानसभा के संयुक्त सचिव और माकपा नेता हैं. यह उनके निजी विचार हैं)