शिवम मिश्रा, रायपुर। बॉलीवुड के प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक अनुभव सिन्हा रायपुर पहुंचे हुए हैं. उन्होंने पत्रकारों से बातचीत में अपने जीवन से जुड़े कई अनुभव साझा किए. बता दें कि अनुभव ने बॉलीवुड की तुम बिन, मुल्क, दस, आर्टिकल 15, रा_वन जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्में बनाई है. सामाजिक मुद्दों पर सशक्त फिल्में बनाने वाले अनुभव सिन्हा छत्तीसगढ़ की नई संभावनाओं और स्थानीय कलाकारों से जुड़ाव को लेकर यहां आए हैं.
अनुभव सिन्हा ने नई कहानियों, नई लोकेशंस और नए टैलेंट को लेकर रायपुर में शूटिंग की संभावनाओं पर बात की. उन्होंने फिल्म की वास्तविकता से सबको अवगत कराया. एक फिल्म मेकर से बड़ी जिम्मेदारी उन्होंने पत्रकारों के कामों को बताया. अनुभव सिन्हा ने कहा कि सामाजिक मुद्दों पर फ़िल्म बनाना सिर्फ़ एक पेशा नहीं, बल्कि उनकी ज़िम्मेदारी है. वो नई पीढ़ी को भी प्रोत्साहित करना चाहते हैं कि वे अपनी मिट्टी की कहानियों को बड़े पर्दे पर लेकर आएं।
फिल्मों में रियलिज़्म, समाज और राजनीति के बीच मजबूत कहानी कहने के लिए पहचाने जाने वाले अनुभव सिन्हा का यह दौरा छत्तीसगढ़ की क्रिएटिव इंडस्ट्री के लिए एक सकारात्मक संकेत माना जा रहा है. अनुभव सिन्हा का यह रायपुर दौरा लोकल कलाकारों और फिल्ममेकर्स को नई दिशा दे सकता है. उम्मीद है कि आने वाले समय में छत्तीसगढ़ की कहानियां भी बड़े पर्दे पर और मजबूती से दिखाई देगी.


बॉलीवुड के प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता निर्देशक अनुभव सिन्हा ने कहा, मुझे अक्सर कहा जाता है कि भारत के छोटे शहरों में आपकी पिक्चरें नहीं चलती है. मेरा दिल जल जाता है, जैसे कोई आकर थप्पड़ मारा है. फिर मुझे याद आता है. इसी देश में विमल रॉय को भी देखा गया है. वासु चटर्जी, सुधीर मिश्रा, केतन मेहता को भी देखा गया है. इनका सिनेमा हिट रहा है. इन्हें भी तो इसी देश में देखा गया है. इसी पर कहा जाता है कि छोटे शहरों में समझदार आदमी नहीं है तो मैं सोचा प्रेमचंद कहा पैदा हुए थे. इन सब चीजों को देखकर मैं सोचा कि मुझे छोटे शहरों तक जाना चाहिए और ऐसे समय में जाना चाहिए, जिस समय मैं कुछ बेच नहीं रहा हूं.
उन्होंने बताया, इसी क्रम में मैं देशभर के शहरों में घूमने और समझने निकला हूं. ख़ासकर हिंदी भाषी वाले शहरों को चुना गया है. इस क्रम के दूसरे चरण में साउथ की तरफ निकलूंगा. मेरी कोशिशें रहेंगी कि यहां आकर लोगों से मिलू, उन्हें समझू, उनकी चीजों को देखू. इन शहरों में एक सिनेमा घर भी जाता हूं. इस सिलसिले में रायपुर आया हूं. छत्तीसगढ़ आकर बहुत आनंद आ रहा है. छोटे शहरों के लोग साहित्य, भूगोल, राजनीति से बहुत बेहतर तरीके से जागरूक हैं. हमारा जीवन दूसरी ओर बाकी चीजों में इतना उलझा हुआ है कि हम दूसरी किसी भी चीजों को सोच ही नहीं पाते हैं.
उन्होंने बताया कि मेरे करियर में आर्टिकल 15 मेरी पिक्चर अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म रही है, जिसमे मुझे अच्छा खासा व्यापार मिला है, लेकिन आप सोचिए कि अगर मेरी वही फ़िल्म मुझे दोगुना व्यापार देती तो क्या होता? एक फ़िल्मकार की ताक़त कितनी बढ़ती, न सिर्फ़ मेरी बढ़ती बाक़ी लोग जो उस प्रकार का सिनेमा बनाना चाह रहे हैं उनको हाथों हाथ लिया जाता. अभी तो ऐसा मिथ है कि अनुभव कुछ करता है और उसकी फ़िल्में चल जाती है.
अनुभव सिन्हा ने बताया, एक बार जब मैं छोटे शहरों के यंगस्टर वहां से पलायन के बारे में फ़िल्म लिखने बैठा तो कुछ समय बाद सोचा छोटे शहरों का युवा आख़िर करते क्या हैं? हमारा युवा शाम को करता क्या है! आज के यंगस्टर्स की शाम क्या है इसकी जानकारी नहीं है! इस तलाश में मैं बनारस गया, इसको जानने की कोशिश करते रहे. इन शहरों में जाकर लोगों से मुलाकात करना बहुत जबरदस्त अनुभव रहा है. मेरी एक सोच है. जिन चीजों से मैं असहज होता हूं उन फ़िल्मों को मैं नहीं बनाता हूं, क्योंकि उस फ़िल्म में मैं खुलकर अपने विचारों को नहीं रख पाता हूं.
उन्होंने बताया कि पिक्चर बनाना बहुत बड़ा चैलेंजिंग होता है. मेरे लिए ख़ास कर चैलेंजिंग पॉइंट है, क्योंकि मैंने दस बनाई, रा_वन बनाई, तुम बिन बनाई, कैश बनाई है, तुम क्या पागल हो चुके हो!! इतना अच्छा एक्शन शूट करते हो, म्यूजिक इतना अच्छा बनाते हो, इतने सुपरहिट गाने गा रहे हैं. फिर मुझे कन्विंस करना बहुत मुश्किल हो जाता है. मेरा मानना है कि घर की भाषा अलग होती है और कला की भाषा अलग होती है. जेंडर डिसपैरिटी हर जगह है. मैं मानता हूं हर जगह जेंडर डिस्पैरिटी है. अमेरिका का राष्ट्रपति कोई महिला को बनाकर दिखा दे. कभी ऐसा नहीं हो सकता है.
उन्होंने आगे बताया कि फ़िल्म देखने आज भी बहुत ज़्यादा दर्शक सिनेमा घरों तक पहुंच रहे हैं. आज के समय में बिल्कुल ओटीटी और बाक़ी प्लेटफॉर्म्स आ चुके हैं, लेकिन सिनेमा घरों में आज भी लोगों की भीड़ पहुँच रही है. बस थोड़े देखभाल पर मेंटेनेंस की जरूरत है. कोविड के बाद फ़ूड फॉल कम हुए हैं, लेकिन सिर्फ़ सिनेमा घरों में नहीं, बल्कि शॉपिंग मॉल, होटल और रेस्ट्यूरेंट्स जैसी जगहों पर भी कम हो चुके हैं, क्योंकि अब इंटरनेट की सुविधा आ चुकी है. हमारे बीच के ज्यादातर लोग घर से बाहर निकलना नहीं चाहते हैं.
सिन्हा ने बताया, बॉलीवुड के बारे में कुछ भी बोल देना और लिख देना बहुत आसान हो चुका है. मेरी इस यात्रा से मेरी फ़िल्म मेकिंग का कोई लेना देना नहीं है. हां कुछ अंश ज़रूर लिए जा सकते हैं. मेरी पिक्चर की कहानी वही होती है, जो मुझे बनानी है, मुझे मेरी कहानी से कोई बदलाव नहीं चाहिए होता है. इस यात्रा में मुझे लोग मिल रहे हैं. कहानियां नहीं ढूंढ रहा हूं, क्योंकि कहानियां हमें ढूंढती है.
उन्होंने बताया, फ़िल्म में कला और कारोबार दोनों का दबाव होता है. नेपोटिज़्म का अर्थ है किसी रिश्ते के कारण आपको बीना मेहनत किए ज्यादा फ़ायदा मिल जाना है. बिना डिज़र्विंग किए ज्यादा डिजर्विंग का फ़ायदा उठा लेना नेपोटिज़्म कहलाता है. अन डिजर्विंग फ़ायदा लेना जो हर क्षेत्र में होता है, मीडिया फ़ील्ड में पॉलिटिक्स में और बहुत जगह होता है. ये सब बॉलीवुड का मिथ है.
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