रायपुर. प्रदेश में छात्रों को हाईस्कूल की पढ़ाई करने के लिए औसतन 15 किलोमीटर दूर स्कूल जाना पड़ता है. ये बात कांउसिल फॉर सोशल ड्वेलपमेंट यानि सीएसडी के रिसर्च में सामने आई है. सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में काम करने वाली संस्था सीएसडी ने छत्तीसगढ़ में स्कूली शिक्षा पर साल 2016-17 में रिसर्च करके एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. सीएसडी का कहना है कि प्रदेश की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए ये चिंताजनक है.
प्राथमिक स्कूलों की उपलब्धता की स्थिति बेहतर हैं. प्रदेश में करीब 99 फीसदी बच्चों के लिए आरटीई के तहत 1 किलोमीटर के दायरे में स्कूल उपलब्ध है. आरटीई के तहत माध्यमिक स्कूल 3 किलोमीटर के अंदर प्रदेश के 9 फीसदी बच्चों को नहीं मिल पा रहे हैं. इसमें से करीब 3 फीसदी बच्चों को माध्यमिक स्कूलों के लिए 5 से 15 किलोमीटर चलना पड़ता है जबकि करीब 6 फीसदी बच्चों को 3 से 5 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है.
रिसर्च में इस बात के लिए प्रदेश सरकार की तारीफ की गई है कि शिक्षक अध्यापक का अनुपात प्रदेश में काफी बेहतर है. प्रदेश में प्राथमिक स्कूलों के लिए 1:21 है जबकि आरटीई के मानदंडों के अनुसार 1:30 होना चाहिए.
संस्था के डायरेक्टर अशोक पंकज और असिस्टेंट प्रोफेसर सुष्मिता मित्रा ने ये 2016-17 के शैक्षणिक स्त रिसर्च किया है. रिसर्च में सुकमा और बस्तर जिले के दस-दस स्कूलों मे जाकर ये अध्ययन किया. इसके अलावा सरकार के स्कूली शिक्षा के आँकड़ों का भी विश्लेषण किया गया. रिसर्च के मुताबिक प्रदेश में आधे जिलों में स्कूलों की संख्या प्रदेश की औसत स्कूलों की संख्या से कम है.
सुकमा में प्राथमिक स्कूलों में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति बेदह चिंताजनक है. अध्ययन के दौरान पाया गया कि इस जिले के स्कूलों में करीब 40 फीसदी बच्चे ही विद्यालय आ रहे हैं. जबकि बस्तर और सुकमा के स्कूलों में औसतन 50 फीसदी ही उपस्थिति दर्ज की जा रही है. सीएसडी के अशोक पंकज का कहना है कि इसमें और अध्ययन की ज़रूरत है क्योंकि जिस दौरान ये अध्ययन किया गया वो वक्त परीक्षाएओं का था जब अमूमन स्कूलों में उपस्थिति ज़्यादा होती है.
अध्ययन में पाया गया कि गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चे को हर हाल में शिक्षा प्रदान कराना चाहता है लेकिन लेकिन गरीबी और निर्धनता के दुष्प्रभाव के चलते इन बच्चोंको काम के लिए बाध्य होना पड़ता है. बस्तर और सुकमा जिले में सर्वे के दौरान पाया गया अधिकांश बच्चे स्कूल के साथ मजदूरी करते हैं.
स्कूली शिक्षा का चिंताजनक पहलू ये भी है कि शिक्षकों को साल में औसतन 27 दिन आधार कार्ड बनाने, बीपीएल सूची और पल्स पोलियो अभियान जैसे कामों में चला जाता है. इसके अलावा बड़ी संख्या में शिक्षकों का अप्रशिक्षित होना भी चिंताजनक है. खासतौर पर आदिवासी इलाकों में. अध्ययन के मुताबिक बीजापुर में 38.3 फीसदी शिक्षक अप्रशिक्षित हैं जबकि सुकमा और बलरामपुर में 20 फीसदी अप्रशिक्षत शिक्षकों के कंधों पर छात्रों की ज़िंदगी संवारने की ज़िम्मेदारी है.
अध्ययन में इस बात पर भी चिंता जताई गई है कि जनजातीय बच्चों का एक हिस्सा हिंदी भाषी नहीं है. इसलिए उन्हें हिंदी समझने में मुश्किलें आती हैं. सरकार ने प्रयोग के तौर पर स्थानीय भाषाओं में कुछ पाठ्यक्रम तैयार किया है लेकिन शिक्षकों को इसके लिए उचित प्रशिक्षण नहीं मिला है.
अध्ययन में पाया गया है कि अभी भी केवल 15 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालयों में कंप्यूटर की व्यवस्था है. खेल का मैदान, चारदीवारी, बिजली और लड़कियों के लिए अलग एवं साफ सुथरे शौचालयों की सुविधा सभी विद्यालयों में उपलब्ध नहीं है.कई विद्यालयों में मिडडे मिल बनाने की व्यवस्था नहीं है. कई के भवन जीर्ण शीर्ण हो चुके हैं.
इस अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि स्कूली शिक्षा के सार्वजनिक ढांचे को मजबूत किया जाए. सरकारी स्कूल प्राथमिक शिक्षा का मुख्य स्त्रोत लेकिन इनकी घटती संख्या चिंताजनक है. 16-17 में बस्तर में 158 सरकारी स्कूलों का विलय कर दिया गया . राज्य में नई सरकारी स्कूलों को खोलने की ज़रुरत है.
इस रिसर्च के बाद रायपुर में प्राथमिक शिक्षा के हालात सुधारने के लिए एक चर्चा कराई गई. चर्चा का विषय था. छत्तीसगढ़ में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति एवं चुनौतियां. इस चर्चा में 5 वीं और 8वीं की बोर्ड परीक्षा को नियम विरुद्ध बताते हुए इस बात पर चिंता जताई गई कि प्रदेश में सरकारी स्कूलों पर यहां के करीब तीन चौथाई छात्र निर्भर हैं लेकिन सरकार उन्हें बंद कर रही है.