उदयपुर. राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (RRVUNL) ने अपने परसा ईस्ट केते बासेन (पीईकेबी) खदान में 12.76 लाख पेड़ लगाकर एक घना जंगल तैयार करने में महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है. यह काम अदाणी इंटरप्राइजेस लिमिटेड (एईएल) के बागवानी विभाग की तरफ से किया गया, जिन्होंने अपनी नर्सरी में साल के पौधों की नर्सरी तैयार की और इन्हें खदान के 450 हेक्टेयर से अधिक रिक्लेमेशन एरिया में उगाकर नया जंगल तैयार किया.
इस जंगल में 90 हजार से अधिक जंगली पेड़ साल को मिश्रित प्लांटेशन के रूप में रोपे गए हैं, जो अब 30 से 40 फुट ऊंचाई के वृक्षों की शक्ल ले चुके हैं. इसके अलावा, 43 प्रजातियों के वृक्ष जैसे महुआ, खैर, शीशम, आम, बरगद, बीजा, हर्रा, बहेरा आदि भी लगाए गए हैं. जापानी मियावाकी पद्धति से भी 84 हजार से अधिक पौधे रोपे गए हैं. विशेष ट्री ट्रांसप्लांटर मशीन के माध्यम से 60 इंच से कम मोटाई वाले करीब नौ हजार पेड़ जंगलों से स्थानांतरित कर पुनर्रोपण किया गया है.
इस प्रयास से क्षेत्र की जैव विविधता में महत्वपूर्ण सुधार आया है. अब यहाँ कई प्रकार की तितलियाँ और प्रवासी पक्षी अपने घोंसले बना चुके हैं, और हाल ही में भालू और बंदर भी देखे गए हैं.
वृक्षारोपण की उपलब्धियां और आगामी योजनाएं
बागवानी विभाग के प्रमुख राज कुमार पांडेय ने बताया कि “सर्गुजा जिले के उदयपुर तहसील में स्थित पीईकेबी खदान में खनन कार्य 2012 में शुरू हुआ था. तभी से हमने क्षेत्र में वृक्षारोपण पर विशेष ध्यान दिया है. अब तक लाखों पेड़ लगाए जा चुके हैं और वर्तमान में पांच लाख पौधे विकसित किए जा चुके हैं. इस वित्तीय वर्ष में 1.20 लाख पौधे लगाने का लक्ष्य रखा गया था, जो जुलाई के अंत तक पूरा हो चुका है. हालांकि, वृक्षारोपण की प्रक्रिया जारी रहेगी.”
स्थानीय लोगों की प्रतिक्रियाएँ
स्थानीय निवासी और व्यापारियों ने जंगल की इस हरियाली को देखकर अचंभा व्यक्त किया. उदयपुर से आए शेखर कुमार सिंहदेव और आशीष अग्रवाल ने कहा, “यहां आकर हमें विश्वास नहीं हो रहा कि यहां कभी कोयला खदान थी. नया जंगल और उसमें लगे पेड़ विशेषकर साल के पौधे हमें बहुत प्रभावित कर रहे हैं.”
आरआरवीयूएनएल की सामाजिक सहभागिता
आरआरवीयूएनएल ने न केवल पर्यावरण संरक्षण में योगदान दिया है, बल्कि स्थानीय लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में भी सुधार किया है. बच्चों को अंग्रेजी माध्यम की स्मार्ट शिक्षा, मुफ्त नाश्ता और किताबें मिल रही हैं, जबकि स्वास्थ्य सेवाओं से स्थानीय लोग अब स्वस्थ जीवन जी रहे हैं. आदिवासी महिलाएं भी अब स्व-सहायता समूहों से जुड़कर आर्थिक रूप से सशक्त हो रही हैं और देश की तरक्की में योगदान दे रही हैं.
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