नागपुर/ नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अब अपनी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी संगठन को नियमित तौर पर प्रचारक देने के मूड में नहीं है. न ही संघ अब भाजपा के मामलों में सीधा दखल देगा. हालांकि, सहयोग जारी रहेगा. मौजूदा समय में भाजपा में संगठन मंत्री के तौर पर काम कर रहे प्रचारक यथावत काम करते रहेंगे और अपवादस्वरूप एकाधिक प्रचारक भेजे भी जा सकते हैं.

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समाचार पत्र पत्रिका में छपी खबर के मुताबिक, इस नई व्यवस्था का कारण दोनों ‘पिता-पुत्र’ संगठनों के बीच रिश्ते बिगड़ने की स्थिति नहीं है, बल्कि भाजपा की संघ के सीधे नियंत्रण से दूर होने की मंशा और संघ का अपने कार्य विस्तार पर ज्यादा ध्यान देना है. दोनों ने अपना दायरा तय कर लिया है.

संघ में कम आ रहे प्रचारक

भाजपा में संगठन मंत्री के तौर पर मूलत: संघ के प्रचारक काम करते हैं. यह व्यवस्था जनसंघ के समय से चली आ रही है. संघ की चिंता दो स्तर पर है. एक तो जब से भाजपा सत्ता में आई है तब से संघ का मत बना है कि उसके प्रचारक संगठनात्मक कार्यों की अपेक्षा राजनीति में ज्यादा उलझ गए हैं. निचले व मध्यम स्तर पर यह ज्यादा हुआ है. इससे संघ चिंतित है.

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दूसरी ओर संघ का पिछले सालों में काम बढ़ा है. इसका विस्तार राजनीतिक क्षेत्र के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी हुआ है. संघ को लगता है कि शताब्दी वर्ष में सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में काम करने के बजाय अन्य क्षेत्रों पर भी ध्यान दें. इसके अलावा नए प्रचारकों की संख्या कम होने से भी समस्या बढ़ी है. ऐसी स्थिति में संघ ने भाजपा को प्रचारक नहीं देने और उसके कामकाज में सीधे दखल के बजाए सहयोग देने की रणनीति तय की है.

झटके के बाद संभली भाजपा

सूत्रों के अनुसार भाजपा ने लोकसभा चुनाव से पहले संघ के सीधे प्रभाव से मुक्त होने का प्रयास किया लेकिन चुनाव परिणाम ने झटका दे दिया. संघ और भाजपा के थिंक टैंक मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मजबूत छवि का चुनाव में विपक्षी दलों के पास कोई तोड़ नहीं था.

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भाजपा की राजनीतिक सक्रियता व रणनीति भी गजब थी. लेकिन सामाजिक मोर्चे पर वह पिछड़ गई. चुनाव से पूर्व संघ के मूल मुद्दों से अलग हट रही भाजपा ने चुनाव के बीच में कमजोरी का अहसास होने पर रणनीति बदली. चुनाव का तीसरा चरण आते-आते भाजपा मूल मुद्दों पर लौटी. राम मंदिर को लेकर बड़ा वातावरण बना भी, इसके बावजूद भाजपा की सीटें घटीं और बहुमत भी नहीं मिला.

लोकसभा चुनाव में अपेक्षित सफलता नहीं मिलने पर रणनीति बदली गई व सरकार संघ के मूल मुद्दों पर लौटी. पार्टी और संघ, दोनों ने अपनी सीमा तय कर ली. भाजपा ने वादा किया कि वह अपनी नीतियों में संघ की अधिकांश बातें मानेगी. बदले में संघ को अपने प्रचारकों पर नियंत्रण बढ़ाना होगा जो राजनीति में उलझ गए हैं.

दोनों को एक-दूसरे की जरूरत

यह भी स्पष्ट हुआ कि संघ व भाजपा को एक-दूसरे की जरूरत है, लड़ने से दोनों को नुकसान होगा. ऐसे में बीच का रास्ता निकला कि दोनों संगठन स्वतंत्र होकर काम करेंगे. परस्पर दखल नहीं देंगे लेकिन सहयोग पूरा रहेगा. इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए भाजपा ने संघ के मूल मुद्दों पर ध्यान बढ़ाने व संघ ने भाजपा के बजाए संगठन में ही प्रचारकों के ज्यादा उपयोग का निर्णय किया है.