सुरेन्द्र जैन, धरसींवा। प्रदेश की राजधानी रायपुर से लगी एक ऐसी ग्राम पंचायत है, जिसमें लगभग तीस बड़ी औधोगिक इकाइयां और जायसवाल निको स्टील प्लांट जैसी बड़ी फैक्ट्री स्थापित है. उस ग्राम पंचायत का मजदूर रहते सरपंच बनना और फिर किसी फेक्ट्री में मजदूर बनकर दो वक्त की रोजी रोटी कमाना, मेहनत करना क्या वर्तमान समय में ऐसा किस्सा सुनना कुछ अटपटा सा नहीं लगता लेकिन ये सच है. यह कहानी है एक पूर्व आदिवासी महिला सरपंच की है, जो 5 साल गांव की प्रधान रही लेकिन अब फिर से मजदूरी करती नजर आती हैं
इस पूर्व आदिवासी महिला सरपंच की कहानी जानने के पहले यह भी जानना जरूरी है कि सांकरा ऐसी ग्राम पंचायतों में शुमार रखती है. जहां सरपंच चुनाव जीतने लाखों रुपये पानी की तरह बहाया जाता है. दारू मुर्गा से लेकर नगद नारायण का दौर चुनाव में सर चढ़कर बोलता है. इसी कारण एक बार जो सरपंच बनता है उसके बारे न्यारे हो जाते हैं वो जमीन से आसमान पर पहुंच जाता है और गांव जमी में धंसता जाता है. बावजूद इसके आदिबासी महिला सरपंच रहीं सोनिया धुरू की कहानी पूरी तरह अलग है.
ऐसे बनी मजदूर से सरपंच
बात उस समय की है जब सोनिया धुरू एक छोटी सी रत्ना इंजीनियरिंग नामक फेक्ट्री में मजदूरी करती थी. साल 2010 में ग्राम पंचायत आदिवासी वर्ग को आरक्षित हुई. तब यहां दो ही आदिवासी महिलाएं थी सोनिया धुरू का प्रेम विवाह अन्य जाति में होने से वह स्वयं को उसी जाति का समझती थी. इस कारण एक ही महिला आदिवासी के निर्विरोध की चर्चा आम थी. तभी एक पत्रकार को पता चला कि रत्ना फेक्ट्री में काम करने वाली आदीवासी महिला श्रमिक का प्रेम विवाह सतनामी समाज के पुनेन्द्र के साथ हुआ है. स्थानीय पत्रकार ने उन्हें अवगत कराया कि अंतरजातीय विवाह से जाति नहीं बदलती है तब उन्होंने सांकरा पंचायत से चुनाव में नामांकन दाखिल किया. उनके खिलाफ बड़ी संख्या में आपत्तियां लगी लेकिन सब आपत्ति निरस्त हो गई. जिसमें दो आदीवासी महिलाओं में मुकाबला हुआ. जिसमें सोनिया धुरू की सरपंच चुनाव में जीत हुई. वह पहली महिला आदिवासी सरपंच बनी.
अपने कार्यकाल में नहीं होने दी पेयजल की समस्या
उन्होंने 5 साल तक सरपंच रहकर गांव के लोगों को कभी पेयजल के लिए परेसान नहीं होने दिया. अंतिम छोर तक उनके कार्यकाल में लोगों को भरपूर पेयजल मिला. 2010 से 2015 तक सरपंच रहकर भी उनका कच्चा घर जस का तस रहा. पूरी निष्ठा और ईमानदारी से सोनिया धुरू ने 5 साल सरपंच की कुर्सी संभाली. 2015 के बाद से वह पुनः परिवार चलाने फैक्ट्रियों में मेहनत मजदूरी करने जाने लगीं. आज भी वह रोज की तरह सुबह आठ बजे फैक्ट्री में मजदूरी करने डेढ़ किलो मीटर पैदल ही जाती हैं. जबकि इनके अलावा जो भी अब तक सरपंच रहे उनकी आर्थिक रीढ़ इतनी मजबूत हो गई कि वह कार से नीचे नहीं उतरते.
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