Setting Deadline For President-Governor: संसद और विधानसभा से पास बिल को राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा अनिश्चितकाल तक रोकने के मामले में केंद्र सरकार (Central government) ने अपना जवाब सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में दायर कर दिया है। केंद्र सरकार ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की विधानसभा से पास बिलों पर कार्रवाई के खिलाफ राज्य सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन दायर नहीं कर सकते। केंद्र ने कहा कि राज्य सरकारें अनुच्छेद 32 का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। क्योंकि मौलिक अधिकार आम नागरिकों के लिए होते हैं, राज्यों के लिए नहीं।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि राष्ट्रपति जानना चाहती हैं कि क्या राज्यों को ऐसा अधिकार है। उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 361 के अनुसार राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने फैसलों के लिए कोर्ट में जवाबदेह नहीं होते।

केंद्र ने तर्क दिया कि कोर्ट राष्ट्रपति या राज्यपाल को कोई निर्देश नहीं दे सकती क्योंकि उनके फैसले न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आते। वहीं, कोर्ट ने कहा कि यदि कोई राज्यपाल छह महीने तक बिल लंबित रखता है तो यह भी सही नहीं है।

CJI बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने राज्य सरकारों की तरफ से भेजे बिलों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति के साइन करने के लिए डेडलाइन लागू करने वाली याचिका पर सुनवाई की। 15 मई, 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को एक संदर्भ दिया और अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों से जुड़े 14 सवालों पर कोर्ट की राय मांगी थी।

भाजपा शासित राज्यों ने कहा- कोर्ट समय-सीमा नहीं तय कर सकतीं

26 अगस्त को पिछली सुनवाई में भाजपा शासित राज्यों ने कोर्ट में अपना पक्ष रखा था। महाराष्ट्र, गोवा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पुडुचेरी समेत भाजपा शासित राज्यों के वकीलों ने कहा कि बिलों पर मंजूरी देने का अधिकार कोर्ट का नहीं है।

इस पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) बीआर गवई ने पूछा कि अगर कोई व्यक्ति 2020 से 2025 तक बिलों पर रोक लगाकर रखेगा, तो क्या कोर्ट को बेबस होकर बैठ जाना चाहिए? CJI ने केंद्र सरकार से पूछा कि क्या सुप्रीम कोर्ट को ‘संविधान के संरक्षक’ के रूप में अपनी जिम्मेदारी त्याग देनी चाहिए? महाराष्ट्र की ओर से सीनियर वकील हरीश साल्वे ने कहा कि बिलों पर मंजूरी देने का अधिकार सिर्फ राज्यपाल या राष्ट्रपति को है। संविधान में डीम्ड असेंट यानी बिना मंजूरी किए भी मान लिया जाए कि बिल पास हो गया जैसी कोई व्यवस्था नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- विधानसभा से पास बिल को अनिश्चितकाल तक रोकने का अधिकार नहीं

इससे पहले 21 अगस्त को हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि निर्वाचित राज्य सरकारें राज्यपालों की मर्जी पर नहीं चल सकतीं। अगर कोई बिल राज्य की विधानसभा से पास होकर दूसरी बार राज्यपाल के पास आता है, तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते। राज्यपालों को विधानसभा से पास बिल को अनिश्चितकाल तक मंजूरी देने से रोकने का अधिकार नहीं है।

देश के शीर्ष न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं- बिल को मंजूरी देना, मंजूरी रोकना, राष्ट्रपति के पास भेजना या विधानसभा को पुनर्विचार के लिए लौटाना। लेकिन अगर विधानसभा दोबारा वही बिल पास करके भेजती है, तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी होगी।

तमिलनाडु से शुरू हुआ था विवाद

यह मामला तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के बीच हुए विवाद से उठा था। जहां गवर्नर से राज्य सरकार के बिल रोककर रखे थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को आदेश दिया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।इसी फैसले में कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सामने आया था। इसके बाद राष्ट्रपति ने मामले में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी और 14 सवाल पूछे थे।

राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे थे

बता दें कि 15 मई को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को लेकर 14 सवाल पूछे थे। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से यह राय मांगी थी कि क्या कोर्ट राष्ट्रपति को राज्य विधानसभा से पास बिलों पर फैसला लेने के लिए समय सीमा तय कर सकता है?

यह भी पढ़ेंः- ‘एक मूर्ख की वजह से देश इतना नुकसान नहीं झेल सकता…,’ किरेन रिजिजू का राहुल गांधी पर करारा वार, बोले- अब हर बिल पास कराएगी सरकार

Follow the LALLURAM.COM MP channel on WhatsApp
https://whatsapp.com/channel/0029Va6fzuULSmbeNxuA9j0m