जयपुर. मेवाड़ का चौथा धाम चारभुजानाथजी मंदिर, राजस्थान के राजसमंद जिले की कुम्भलगढ़ तहसील के गढ़ब़ोर गांव में स्थित है. उदयपुर से 112 और कुम्भलगढ़ से 52 कि.मी. दूरी मेवाड़ का जाना माना तीर्थ स्थल हैं. 5 हजार 288 साल पुराना चारभुजानाथ जी मंदिर, श्रीकृष्ण का चतुर्भुज स्वरूप गोमती नदी पर पाडंवो द्वारा स्थापित है.
अनूठी है सेवा-पूजा की परंपरा
अनूठी परंपराओं वाले चारभुजाजी में पुजारी गुर्जर समाज के 1000 पुजारी परिवार है. जिसमें सेवा-पूजा ओसरे के अनुसार बंटी हुई है. कुछ परिवार का ओसरा जीवन में एक बार आता है तो किसी का 4 तो किसी का 48 से 50 साल में आता है . हर अमावस्या को ओसरा बदलता है और अगला परिवार का मुखिया पुजारी बनता है. ओसरा चलने तक मंदिर में ही रहते हैं पुजारी, परिवार में मौत हो तब भी नहीं जा सकते. ओसरे के दौरान पाट पर बैठ चुके पुजारी को एक महीने के कठिन तप, मर्यादाओं में रहना पड़ता है. ओसरा चलने तक पुजारी घर नहीं जा सकते है. परिवार या सगे-संबंधियों में मौत होने पर भी पूजा का दायित्व निभाना होता है.
आरती में दिखती है वीरता की मुद्रा
आरती के दौरान जब गुर्जर परिवार के पुजारी जिस प्रकार से मूर्ति के समक्ष खुले हाथों से जो मुद्रा बनाते है और आरती के दौरान जिस प्रकार नगाड़े और थाली बजती है वो पूर्णत वीर भाव के प्रतिक है. चारभुजा जी की आरती और भोग लगभग श्रीनाथ जी की तरह ही है किन्तु चारभुजा जी के दर्शन सदैव खुले रहते है अर्थात उनके दर्शन का वैष्णव सम्प्रदाय की पूजा पद्धतियों की भाँती समय आदि नहीं है.
शिलालेख में मिला जीर्णोद्धार की जिक्र
इस मन्दिर का निर्माण राजपूत शासक गंगदेव ने करवाया था. चारभुजा के शिलालेख के अनुसार सन् 1444 ई. (वि.स. 1501 ) में खरवड़ शाखा के ठाकुर महिपाल चौहान व उसके पुत्र रावत लक्ष्मण ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. एक मन्दिर में मिले शिलालेख के अनुसार यहां इस क्षेत्र का नाम “बद्री” था जो कि बद्रीनाथ से मिलता जुलता है.
पौराणिक कथा
भगवान श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से स्वयं व बलराम की मूर्तियां बनवाई, जिसे राजा इन्द्र को देकर कहा कि ये मूर्तियां पांडव युधिष्ठिर व सुदामा को सुपुर्द करके उन्हें कहना कि ये दोनों मूर्तियां मेरी है और मैं ही इनमें हूं. वर्तमान में गढ़बोर में चारभुजा जी के नाम से स्थित प्रतिमा पांडवो द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति और सुदामा द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति सत्यनारायण के नाम से सेवंत्री गांव में स्थित है. कहा जाता है कि पांडवो ने हिमालय जाने से पूर्व मूर्ति को जलमग्न करके गए थे ताकि इसकी पवित्रता को कोई खंडित न कर सके.
साल में दो बार लगता है प्रसिद्ध मेला
चारभुजानाथ जी में दो प्रसिद्ध मेले भरते है जिसमे पहला है प्रतिवर्ष भाद्रपद शुकल एकादशी ( जल झुलनी एकादशी ) को भरने वाला मेला जो पूरे प्रांत में प्रसिद्ध है जिसे लक्खी मेला भी कहते हैं. दूसरा मेला होली के दूसरे दिन से अगले पंद्रह दिवस तक चलता है जिसमें अनेक दर्शनार्थी आते हैं.