सृष्टि की रचना काल में पार्वती को “माया” कहा जाता है और पालन के समय वही ‘अन्नपूर्णा’ के नाम से जानी हैं, जबकि संहार काल में वे ‘कालरात्रि’ बन जाती हैं. पालन करने वाली अन्नपूर्णा का व्रत-पूजन दैहिक, दैविक, भौतिक सुख प्रदान करता है. अतः अन्न-धन, ऐश्वर्य, आरोग्य एवं संतान की कामना करने वाले स्त्री-पुरूषों को अन्नपूर्णा माँ का व्रत-पूजन विधिपूर्वक करना चाहिए.

मार्गशीर्ष (अगहन) मास में शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को श्री अन्नपूर्णा षष्ठी का पूजा और व्रत किया जाता है. हालांकि यह व्रत अगहन मास में कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से प्रारम्भ होकर शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि तक 16 दिन चलता है, लेकिन जिन को ऐसा करना संभव ना हो वे एक दिन में इसका संपूर्ण लाभ पा सकते हैं.

सबसे पहले स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करके पूजन की सामग्री रख कर रेशमी अथवा साधारण सूत का डोरा लेकर उसमें 17 गांठ लगायें. सारी सामग्री एकत्रित करके सफेद वस्त्र धारण कर पूजागृह में धान की बाली का कल्पवृक्ष बनायें और उसके नीचे भगवती अन्नपूर्णा की मूर्ति सिंहासन पर स्थापित करे. उस मूर्ति के बायीं ओर अन्न से भरा हुआ पात्र तथा दाहिने हाथ में करछुल रखें. धूप दीप, नैवेद्य, सिन्दूर, फूल आदि भगवती अन्नपूर्णा को समर्पित करे. अपने हाथ के डोरे को निकालकर भगवती के चरणों में रख प्रार्थना करे.

उसके बाद अन्नपूर्णा व्रत की कथा सुनें. गुरू को दक्षिणा प्रदान करें. 17 प्रकार के पकवानों का भोग लगाएँ. सुपात्र को भोजन करायें, उसके बाद रात में स्वयं भी बिना नमक का भोजन करें. ऐसा करने से पुत्र, यश, वैभव, लक्ष्मी, धन-धान्य, वाहन, आयु, आरोग्य और ऐश्वर्य की प्राप्‍ति होती है.