महान समाज सुधारक, विचारक, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी कार्यकर्ता महात्मा जोतिराव गोविंदराव फुले की आज जयंती है. उनका जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सतारा में एक माली परिवार में हुआ था. परिवार पुणे आकर फूलों से जुड़ा व्यवसाय करने लगा था, इसलिए उनके लिए ‘फुले’ सरनेम का इस्तेमाल किया जाने लगा. महात्मा ज्योतिबा फुले ने डेढ़ सौ साल पहले यानी 1873 में ‘गुलामगिरी’ किताब लिखी थी. इस किताब में फुले ने तर्क के साथ छुआछूत, भेदभाव और काल्पनिक बातों के खिलाफ अपनी लेखनी चलाई. इस पुस्तक ने महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देशभर में जबर्दस्त हलचल मचा दी थी.
ज्योतिबा ने कई किताबें लिखी हैं, किसान का आसुद, ब्राह्मण का कसाब, ऐसी किताबों से उन्होंने समाज को आलोकित किया. ज्योतिबा फुले की सबसे चर्चित किताब ‘गुलामगिरी’ रही है. वर्ष 1873 में प्रकाशित यह पुस्तक आज भी समाज में हो रहे भेदभाव पर खरी उतरती है. गुलामगिरी मूलतः मराठी में लिखी गई किताब है जिसका डॉ. विमलकीर्ति ने हिंदी अनुवाद किया है. भाषा के हिसाब से देखा जाए तो 150 साल पहले लिखी गई इस किताब का उन्होंने अच्छा अनुवाद किया है. यथास्थितिवाद किसी भी समाज और दौर के लिए खतरनाक है. ज्योतिबा फूले की यह किताब यथास्थितिवाद से लड़ने का रास्ता दिखाती है और हौसला भी देती है. ज्योतिबा जातिवाद का दंश झेलकर स्वयं हीनता में नहीं जाते, बल्कि दूसरों को हीनता से बाहर आने का रास्ता दिखाते हैं.
ऐसे मिली महात्मा की उपाधि
आधुनिक भारत में एक समाज सुधारक ज्योतिबा फुले को समाज के दबे-कुचले, वंचित और अनुसूचित जाति के तबके लिए उनके उल्लेखनीय कार्यों को देखते हुए 1888 में मुंबई में एक विशाल जनसभा में उस समय के एक प्रख्यात समाजसेवी राव बहादुर विट्ठलराव कृष्णाजी वान्देकर ने उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी थी. तब से उनके नाम के आगे महात्मा जोड़ा जाने लगा. फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल शुरू किया, अपनी पत्नी सावित्रीबाई को समाज में पढ़ाने के लिए शिक्षित किया, और देश की पहली शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त किया, समाज का चोला धारण किया और राष्ट्र के महत्व को बताया.
1873 में ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना
24 सितंबर 1873 में महात्मा ज्योतिबा फुले ने ‘सत्य शोधक समाज’ नामक एक संस्था की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य नीची समझी जाने वाली और अस्पृश्य जातियों के उत्थान के लिए काम करना था. बाबा साहेब भीमराव अंबेडर भी महात्मा फुले के विचारों से प्रभावित थे. ज्योतिबा एक वर्ष के ही हुए थे जब उनकी मां का निधन हो गया था. उनका पालन-पोषण एक बायी की देखरेख में हुआ. उनकी शुरुआती शिक्षा मराठी में हुई. परिस्थितियों के चलते पढ़ाई में गैप आ गया. इसके बाद 21 की उम्र में उन्होंने इंग्लिश मीडियम से सातवीं की पढ़ाई पूरी की. ज्योतिबा फुले की शादी 1840 में सावित्री बाई से हुई थी.
1848 में ज्योतिबा फुले अपने एक ब्राह्मण दोस्त की शादी में गए थे, जहां कुछ लोगों ने उनकी जाति को लेकर उनका अपमान किया. इस बर्ताव को देखते हुए ज्योतिबा फुले ने सामाज से असमानता को उखाड़ फेंकने के लिए कसम खा ली थी. महात्मा फुले का पूरा जीवन ही समाजिक कार्यों में बीता. छुआछूत और भेदभाव पर प्रहार करने के साथ ही उन्होंने किसानों और मजदूरों के अधिकार के लिए भी काम किए. महिलाओं के उत्थान के लिए उन्होंने प्रमुखता से कार्य किए. वह लड़कियों को शिक्षित किए जाने, बाल-विवाह रोकने और विधवा महिलाओं की शादी कराने के पक्षधर थे.
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समाज के कुछ लोगों ने उनके इस काम में बाधा भी डाली. उनके परिवार पर दबाव डाला गया. नतीजा यह हुआ कि ज्योतिबा फुले को परिवार छोड़ना पड़ा. इससे लड़कियों के लिए शुरू किए गए पढ़ाई-लिखाई के काम में कुछ समय के लिए व्यवधान आया, लेकिन जल्द ही फुले दंपति ने सभी बाधाओं को पार करते हुए लड़कियों के तीन स्कूल और खोल दिए. ज्योतिबा फुले के हर काम में उनकी पत्नी पूरा सहयोग करती थीं, इसलिए वह भी एक समाजसेवी कहलाईं. महिलाओं की शिक्षा के लिए किए गए उनके कार्यों को देखते हुए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने 1883 में ज्योतिबा फुले को सम्मानित भी किया था.
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