SpaDeX Docking Status Update: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) अपने स्पेस डॉकिंग एक्सपेरीमेंट (स्पेडेक्स) मिशन के साथ इतिहास रचने जा रहा है। इस मिशन में शामिल दोनों उपग्रह अब ऑर्बिट में सिर्फ 15 मीटर की दूरी पर हैं, जो लगभग 50 फीट के बराबर है। इसरो ने दोनों सैटेलाइट की दूरी की तस्वीर और वीडिय़ो साझा की है। ये मिशन अंतरिक्ष में डॉकिंग तकनीक का प्रदर्शन करने के उद्देश्य से किया गया है, जो भारत के भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों के लिए महत्वपूर्ण है।
इससे पहले शनिवार (11 जनवरी) को दोनों उपग्रहों (सैटेलाइट्स SDX01 (चेसर) और सैटेलाइट्स SDX02 (टार्गेट) ) के बीच की दूरी 230 मीटर थी और आज यानी रविवार को दोनों सैटेलाइट के बीच की दूरी 15 मीटर रह गई है। इसरो ने इस मिशन को 30 दिसंबर को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा से सफलतापूर्वक लॉन्च किया था।
बता दें कि ये मिशन अंतरिक्ष स्टेशन और चंद्रयान-4 की सफलता तय करेगा। इस मिशन में एक सैटेलाइट दूसरे सैटेलाइट को पकड़ेगा और डॉकिंग करेगा। इससे ऑर्बिट में सर्विसिंग और रीफ्यूलिंग करना भी संभव हो सकेगा। इसरो ने 30 दिसबंर को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा से PSLV-C60 रॉकेट की सहायता से इस मिशन को सफलतापूर्वक लॉन्च किया था। इसरो अब डॉकिंग के लिए भारतीय ग्राउंड स्टेशनों से सिग्नल मिलने का इंतजार कर रही है। पहले इसकी तारीख 7 जनवरी थी। मगर टेक्निकल इश्यू के चलते इसे 9 जनवरी तक के लिए स्थगित कर दिया गया था।
क्या है Spadex मिशन?
इस मिशन में दो सैटेलाइट हैं. पहला चेसर और दूसरा टारगेट। चेसर सैटेलाइट टारगेट को पकड़ेगा। उससे डॉकिंग करेगा। इसके अलावा इसमें एक महत्वपूर्ण टेस्ट और हो सकता है। सैटेलाइट से एक रोबोटिक आर्म निकले हैं, जो हुक के जरिए यानी टेथर्ड तरीके से टारगेट को अपनी ओर खींचेगा। ये टारगेट अलग क्यूबसैट हो सकता है. इस प्रयोग से फ्यूचर में इसरो को ऑर्बिट छोड़ अलग दिशा में जा रहे सैटेलाइट को वापस कक्षा में लाने की तकनीक मिल जाएगी। साथ ही ऑर्बिट में सर्विसिंग और रीफ्यूलिंग का ऑप्शन भी खुल जाएगा. Spadex मिशन में दो अलग-अलग स्पेसक्राफ्ट को अंतरिक्ष में जोड़कर दिखाया जाएगा।
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दुनिया का चौथा देश बना भारत
ISRO ने बताया कि यह तकनीक तब जरूरी होती है, जब एक ही मिशन के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कई रॉकेट लॉन्च की जरूरत पड़ती है। अगर यह मिशन सफल होता है, तो भारत दुनिया का चौथा देश बन जाएगा, जो इस तकनीक को हासिल कर चुका है। अब तक अमेरिका, चीन और रूस के पास ही ये तकनीक है।
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