विशेष आलेख: यूपी में बीजेपी सरकार दूसरी बार सत्तानशीं हो चुकी है. उत्तर प्रदेश में खासकर ऐसे नतीजों की उम्मीद एग्जिट पोल से पहले भाजपा के दिग्गज नेताओं को भी न थी. इसलिए आकलन अभी तक हो रहा है. राजनीतिक गणित को देखें तो बीजेपी के जीत की बड़ी वजह बीएसपी रही. लेकिन बीएसपी के वोटों का फायदा अगर बीजेपी को हुआ तो उसके कई कारण रहे.
ऐसे चुनाव परिणाम के लिए बीजेपी भी आश्वस्त नहीं थी. उत्तर प्रदेश की राजनीति के अध्ययन में अपना जीवन खपा चुके तमाम विश्लेषक चुनाव में सपा का अपर हैंड मान रहे थे. बीजेपी के नेताओं के प्रचार और चेहरे से यह बात झलक भी रही थी. ऐसे आकलन के कई ठोस ज़मीनी आधार थे.
चुनाव में समाजवादी पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं की उम्मीदें साइकिल नहीं हेलीकाप्टर बनकर उड़ रही थी. रैलियों में सपा के अखिलेश और कांग्रेस की प्रियंका गांधी किसी भी भाजपा नेताओं से ज़्यादा भीड़ जुटा रहे थे. इनकी सभाओं मे आई भीड़ उत्साह से लबरेज थी. भाजपा नेताओं को खदेड़ने और मारपीट के वीडियो लगातार आ रहे थे. ऐसा भी कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी की एक सभा भीड़ ना जुटने के चलते कैंसिल हुई. जनता अलग-अलग चैनल, यूटूबर्स से बातचीत में महंगाई, बेरोजगारी, खुला सांड को अपना मुद्दा बता रही थी, जो बीजेपी के खिलाफ थे. ये तमाम तथ्य बीजेपी के खिलाफ दिख रहे थे.
हालांकि इसमें बिजली की निर्बाध सप्लाई, बेहतर कानून व्यवस्था और गरीबों को राशन जैसे बीजेपी के हक़ वाले मुद्दे भी चुनावी फिज़ा में तैर रहे थे. तीन चरण के बाद भाजपा की सबसे मजबूत सीटों पर सबसे वोट कम पड़ रहे थे. बीजेपी की तमाम कोशिशों के बाद भी हिंदू और मुस्लमान का मसला किसी वोटर की ज़ुबान पर नहीं दिखा. जिस पश्चिमी यूपी में सबसे ज़्यादा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होता आया है, वहां सामाजिक तौर पर इस बात का ख्याल रखा गया कि चुनाव सांप्रदायिकता की पिच पर ना जाए. चुनाव आखिरी तक मुद्दों पर टिका दिखा.
फिर क्या हुआ कि नतीजों तक आते- आते चुनाव पूरी तरह बदल गया! सारे आकलन धराशाई हो गए. जिन लोगों ने तमाम उम्र उत्तर प्रदेश की राजनीति पर लिखते- पढ़ते और बदलता हुआ देखते गुजार दी, कैसे वे सब के सब आकलन करने में बुरी तरह विफल रहे. क्या ये तमाम विश्लेषक बायस्ड थे ? फिर भाजपा के नेता कैसे ये दावा नहीं कर पा रहे थे कि वो प्रचंड बहुमत से सरकार बना रहे हैं!
अब ऐसी परिस्थिति में ऐसे नतीजे के होने की दो ही वजह हो सकती हैं। पहला, चुनाव की चोरी. जिसका दावा टीएमसी की ममता बनर्जी कर रही हैं. या फिर भाजपा ने ऐसी रणनीति के साथ चुनाव लड़ा, जिसके बारे में देश के सारे विश्लेषक अनजान है.
पहले दावे पर चर्चा करने की गुंजाइश ज़्यादा नहीं है. ईवीएम हैकिंग का हल्ला खूब उड़ता है लेकिन तथ्य यही है कि कई राज्यों में बीजेपी इसी ईवीएम से हारी है. इसमें बंगाल का चुनाव भी शामिल है.
बीजेपी पर आरोप लगता है कि ईवीएम के साथ वो एक और खेल करती है, उसे बदलने का. गुजरात के सूरत में ईवीएम बदलने का आरोप कांग्रेसी नेताओं ने लगाया था. इस बार वाराणसी में लावारिस हालात में ईवीएम मिले. उससे भी आगे कानपुर में समाजवादी पार्टी की रचना सिंह ने ट्विटर पर एक वीडियो डाला जिसमें स्ट्रांग रूम का ताला खुला हुआ है, और एक व्यक्ति की संदिग्ध मौजूदगी दिख रही है. रचना सिंह ने यहां चुनाव चोरी होने का आरोप लगाया है. वाराणसी में भी ईवीएम गाड़ी में पकड़ाया. लेकिन ये इतनी बड़ी संख्या में हो सकता है क्या कि चुनाव बदल जाए !
अब संभावना दो पर चर्चा करते हैं. यानि बीजेपी जिस तरह से चुनाव लड़ती है बाकी पार्टियां उससे अनजान है. इससे, विरोधी को जब ज़्यादा बड़ी लीड हो तब वो ज़रुर हार जाती है लेकिन वो बराबरी या कम लीड को अपने पक्ष में कर लेती है. बिहार और यूपी में यही हुआ.
दरअसल, ये समझना पड़ेगा कि बीजेपी चुनाव को पूरी ताकत और शिद्दत के साथ कई स्तरों पर लड़ती है. आखिरी तक अपना सब कुछ दांव पर लगा देती है. वो प्रचार और मैनेजमेंट के वो तरीके अपनाती है, जिससे बाकी दल अनजान हैं.
इसकी बानगी मार्च में तब दिखी जब नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में जब तीन दिन कैंप किया. तब अमित शाह बाकी नेताओं की तरह प्रचार भी कर रहे थे और दूसरी तरफ बैठकों में संगठन को सक्रिय रखने की कवायद में जुटे थे. चुनाव प्रचार में जाने से पहले वे कार्यकर्ताओं को ताकीद कर रहे थे कि वे व्हाट्सअप के ज़रिए संदेशों को भेजते रहें. ये वो वक्त था, जब कहा जा रहा था कि योगी को अमित शाह और मोदी निपटाना चाहते हैं. अपने बारे में टिप्पणियों से बेपरवाह शाह अपना काम बारीकी से कर रहे थे. अब आप सोचिए कौन सी पार्टी का मुख्य रणनीतिकार व्हाट्सअप संदेशों के प्रचार-प्रसार पर ध्यान देता है. बाकी पार्टियों के लिए सोशल मीडिया का मतलब ट्विटर और फेसबुक पर कंटेट शेयर करना है. बाकी पार्टियों को लगता है कि कंटेट शेयर करने से उनके कार्यकर्ता और समर्थक इसे फैला देंगे. जबकि सबसे बड़ी कार्यकर्ताओं की फौज वाली बीजेपी ऐसा नहीं मानती. वे सिर्फ पालिटिकल कंटेंट नहीं देते, बल्कि उसके ऑर्गुमेंट्स, ऑडियोलॉजिकल विज़न, एजेंडे, अपने ऊपर लगने वाले आरोपों का काउंटर आर्गुमेंट तैयार कराती और फैलाती है.
बीजेपी अपने हर मुद्दे को नैरेटिव बना लेती है. चाहे वो सही हो या गलत. इस काम में वो मेन स्ट्रीम मीडिया की भी मदद ले रही है. जिसे वो जमकर विज्ञापन और दूसरी मदद करके पाल-पोस रही है. चर्चा तो यहां तक है कि दिन का एजेंडा बीजेपी दफ्तर से तय होता है. चर्चा यहां तक है कि सवाल से लेकर गेस्ट तक में बीजेपी के लोगों का दखल चलता है.
मीडिया की बात को बाकी राजनीति दल जानते हैं. राहुल गांधी इस बात का ज़िक्र कई कर चुके हैं कि मुख्य धारा की पत्रकारिता बेईमानी कर रही है. लेकिन मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया का कॉकटेल क्या असर डाल रहा है, इसका अंदाज़ा भी किसी राजनीतिक पार्टी को नहीं है.
बाकी पार्टियां अभी भी फेसबुक और ट्विटर पर कंटेट पर खुद को केंद्रित किए हुए हैं. जबकि बीजेपी नॉन फिक्शन से फिक्शन तक पहुंच चुकी है. बीजेपी खुद या उसके समर्थन में लोग मीम और चुटकुले से लेकर कार्टून और सिनेमा बना रहे हैं. ज्यादातर न्यूज़ चैनलों और अखबारों में बीजेपी से प्रभावित लोग निर्णायक पदों पर पर हैं. ये सब मिलकर जो कंटेट बनाते हैं. बीजेपी अपने संसाधनों के ज़रिए इसे जनता के बीच कम से कम बाकी दलों की तुलना में हज़ार गुना ज़्यादा क्षमता के साथ लोगों तक पहुंचाती है. कंटेट और उसका पेनेट्रेशन बीजेपी समर्थकों का ऐसा वर्चुअल यूनिवर्स बनाता है, जिसके ओर छोर की जानकारी बीजेपी विरोधियों को नहीं है. ये वर्चुअल यूनिवर्स दिन-ब-दिन बड़ा होता जा रहा है.
इसका असर है कि यूपी चुनाव में बभनी का सब्जी बेचने नौजवान सोशल मीडिया के वीडियो में महंगाई का ज़िक्र करने भर से भड़क जाता है और पूछता है कि कहां है महंगाई. रायबरेली का बीजेपी समर्थक किसान उल्टा पूछ बैठता है कि महंगाई कब नहीं बढ़ती है. इसमें मोदी या योगी क्या कर लेंगे. ये लोग उस तबके की नुमाइंदगी करने वाले लोगों के उदाहरण हैं, जिन पर महंगाई का सबसे ज़्यादा कहर टूटता है.
बीजेपी अपने हक में नैरेटिव गढ़ने में कैसे बाकियों को पछाडती है, इसका बेहतरीन उदाहरण द कश्मीर फाइल फिल्म है. फिल्म और उसके बाद टीवी चैनल और बीजेपी के सोशल मीडिया कैंपेन के ज़रिए न सिर्फ इस औसत फिल्म को आशातीत सफलता दिलाई गई अपितु तथ्य हासिए पर डाल दिए गए. फिल्म ने मुसलमान और कांग्रेस के विरोध का नैरेटिव गढ़ा लेकिन ये बात सतह पर ठीक से आ ही नहीं पाई कि मरने वालों में बाकी कौम और जातियों के लोग भी थे. जिस वक्त कश्मीर से पलायन हुआ उस वक्त बीजेपी के समर्थन वाली वीपी सिंह की सरकार थी. राज्यपाल बीजेपी के जगमोहन थे. कांग्रेस के तात्कालीन सबसे बड़े नेता राजीव गांधी के संसद घेराव के बाद वहां सेना भेजी गई. जगमोहन की भूमिका पर सवाल आज तक उठते रहे हैं. लेकिन ये तथ्य आम लोगों की चर्चा में है ही नहीं. जबकि आम लोगों के बीच कांग्रेस और मुसलमानों पर सवाल उठाने वाले आर्गुमेंट पहुंच गए हैं.
कांग्रेस समेत दूसरी विपक्षी पार्टियों के आर्गुमेंट ट्विटर, फेसबुक और दूसरे माध्यमों से पढ़े- लिखे समर्थकों तक सीमित है. ये कांग्रेस और उसकी जैसी अन्य पार्टियों की ताकत है कि ये कार्यकर्ताओं से ज़्यादा शिद्दत से बीजेपी के वर्चुअल दुनिया से लड़ रहा है. लेकिन इसका दखल बीजेपी के युनिवर्स तक नहीं है.
बीजेपी के वर्चुअल यूनिवर्स और ज़मीनी संगठन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. जबकि बाकी पार्टियों में इसमें तालमेल का जबर्दस्त अभाव है. यूपी चुनाव में कांग्रेस ने मैदान पर जबरदस्त काम किया. संगठन बनाये. मुद्दे उठाए. चुनाव को सांप्रदायिकता की पिच पर जाने नहीं दिया. लेकिन इसके लिए ना वो संगठन स्तर पर माहौल पैदा कर पाई. ना ही वर्चुअली मतदाताओं के दिमाग तक पहुंच पाई.
कांग्रेस के लिए यूपी में सबसे बड़ा सवाल था कि जनता उसे गंभीर चुनौती के रुप में क्यों ले. इसका जवाब उसे साल-दो साल पहले से देना शुरु करना था. लेकिन चुनाव तक इसका जवाब कार्यकर्ताओं तक नहीं पहुंचा. अगर, इसका जवाब कांग्रेस लोगों तक पहुंचा देती तो उसके कार्यकर्ता आत्मविश्वास से लबरेज रहते. उनके घोषणापत्र के वादे मतदाताओं तक पहुंचते.
जबकि बीजेपी पांच साल तक चुनाव में व्यस्त रहती है. बाकी पार्टियों अपने कार्यकर्ताओं के जरिए गांव मोहल्लों तक पहुंचती है. पार्टी के निष्ठावान वोटर तक संगठन का विस्तार होता है. जो अपने स्तर पर पार्टी की विचारधारा, नीतियों और कार्यक्रम जनता तक पहुंचाते हैं. लेकिन बीजेपी के पास सबसे बड़ी ताकत उसके निष्ठावान वोटरों की है. जिन्हें बीजेपी लगातार सशक्त करते हुए कट्टर अघोषित कार्यकर्ताओं में तब्दील कर चुकी है.
इनके पास लॉजिक भले ही ना हो, लेकिन ये बहस छोड़ने का मौका नहीं छोड़ते. चुनाव किसी भी राज्य में हो. इनमें से बड़ी संख्या में वे लोग हैं जिनको अच्छे से तालीम तक नहीं मिली होगी. जिसके चलते सालों से इसे बोलना नहीं आता होगा लेकिन बीजेपी ने इन्हें दमदारी के साथ खड़े होकर बोलना सीखा दिया है. लेकिन उत्तर प्रदेश में जीत के लिए सिर्फ प्रचार की जीत मानना बड़ी चूक है. इस बात को स्वीकार करना होगा कि बीजेपी ने राज्य में ऐसे काम भी किए जिसका सरोकार आम जनता की समस्याओं से था. गुंडाराज और इसके उलट बुलडोज़र जैसे राजनीतिक बयानबाजी के भीतर की सच्चाई ये थी कि बाबा के राज में महिलाएं बिना डरे रात को बाहर निकली.
बीजेपी ने ये बहुत अच्छे से जनता को समझा दिया कि अगर सपा आई तो फिर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाएगा. इसी तरह बिजली का मसला रहा. यूपी के लोगों को पहली बार बाबा के राज में बिना कट के बिजली मिलने लगी. हालांकि बिजली की उपलब्धता पूरे देश में बढ़ी है लेकिन जनता ने माना कि ये बाबा के कार्यकाल की वो उपलब्धि है, जिससे वे अब तक महरूम थे. अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में बुनियादी संरचनाओं के निर्माण में काम किया. ये काम आज भी अनवरत चल रहा. बीजेपी इसे भी भुना ले गई. मुफ्त राशन का फायदा भी बीजेपी को वोटों की बारिश के रुप में मिला. जनता को फ्री गल्ला मिलना बड़ी राहत के तौर पर सामने आई. इसने कोरोना के दर्द और महंगी की पीड़ा को हल्का कर दिया.
बीजेपी की राह में सबसे बड़ी बाधा महंगाई थी. बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने लोगों को पूरे दमखम के साथ मेहनत करके ये समझाया कि महंगाई हमेशा बढ़ती रहती है. जिस वक्त चुनाव हुए, सरकार ने भी महंगाई को रोके रखा. ऐसा लगता है कि छुट्टे सांड़ के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भरोसे पर जनता ने ऐतबार किया. बेरोज़गारी के मसले पर हुए नुकसान की भरपाई भी कर ली. बीजेपी के समर्थकों ने ये यकीन दिला दिया कि सपा सत्ता में आई तो गुंडागर्दी बढ़ जाएगी. बिजली कटौती होगी. जबकि जिन सीटों पर कांग्रेस मज़बूत थी, वहां उसे प्रदेश की लड़ाई से बाहर बताने की बात समझाने का काम किया गया.
बीजेपी की एक और मज़बूत ताकत बूथ मैनेजमेंट है. जिस पर संगठन की कड़ी नज़र रहती है. हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी बीजेपी मतदाताओं को बूथ तक लाने और वोट करवाने में मुस्तैद दिखी.
दरअसल, चुनाव अब सिर्फ वोटर तक पहुंचने और उसे लुभाने की होड़ नहीं है बल्कि वोटरों के दिमाग पर कब्जा करने की होड़ है. इस होड़ में बीजेपी फिलहाल अकेली पार्टी है. व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक और मीडिया के ज़रिए संदेशों की लगातार बमबारी करती है. जो वोट लोग अपनी मर्जी से देते थे, अब इस बमबारी के प्रभाव से होते हैं. आज़ादी के बाद देश की बड़ी आबादी को साक्षर तो बनाया गया लेकिन उन्हें वैज्ञानिक चेतना और लाजिकल बनाने लायक शिक्षा से वंचित रखा गया. जिसका नतीजा है कि धर्म, राष्टवाद जिस रुप में इन्हें समझाया जाता है, वे उस पर यकीन कर लेते हैं. सही और गलत को जांचने की योग्यता इनके पास नहीं होती.
अब सवाल है कि विरोधी क्यों बीजेपी की वर्चुअल दुनिया में नहीं घुस पाते. दरअसल मुख्य मीडिया में विरोधियों के लिए स्पेस बचा नहीं. बाकी सोशल मीडिया पर विरोधियों ने बीजेपी समर्थकों से घबराकर उनसे दूरी बना ली है. ये लोग अपने विरोधियों को जवाब देने या इग्नोर करने की बजाय उसे ब्लॉक करते चले गए. इस तरह ये लोग बीजेपी समर्थकों से कटते चले गए और अब बीजेपी विरोधियों के कंटेट उनके विरोधियों तक ही घुमते रहते हैं.
लेखक – रुपेश गुप्ता, राजनीतिक संपादक NEWS 24 MP-CG/ LALLURAM.COM