देश में हाल हर में कृषि क्षेत्र से संबंधित 3 कानून बनाए गए हैं, जिनका पूरे देश के किसानों द्वारा विरोध किया जा रहा है। किसानों के अंसतोष का सबसे बड़ा कारण यह आशंका है कि केन्द्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को समाप्त करना चाहती है। मोदी सरकार द्वारा गठित शान्ताकुमार समिति द्वारा वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री को प्रस्तुत रिपोर्ट में यह कहा गया था कि देश के मात्र 6 प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था का लाभ प्राप्त हो रहा है। समर्थन मूल्य की व्यवस्था कथित रूप से दोषपूर्ण होने के कारण इसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाए जाने, न्यूनतम समर्थन मूल्य के स्थान पर नकद सब्सिडी देने की अनुशंसा भी शान्ताकुमार समिति द्वारा की गई थी। एक किसान होने के नाते किसानों के समक्ष आसन्न संकट की ओर देश एवं राज्य की जनता का ध्यान आकृष्ट करना इस लेख को लिखने का मुख्य प्रयोजन है।
एक षड्यंत्र के तहत देश में यह भ्रम फैलने का प्रयास हो रहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था का लाभ मात्र कुछ हो किसानों को प्राप्त हो रहा है। 3 अक्टूबर 2020 के टाइम्स ऑफ इंडिया के नई दिल्ली संस्करण में यह समाचार प्रकाशित हुआ है कि वर्ष 2018-19 में देश के मात्र 12 प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ प्राप्त हुआ है। उक्त समाचार का ध्यान से अध्ययन करने पर यह विदित होता है कि इसमें सिर्फ धान के उत्पादन एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी एजेंसियों द्वारा संग्रहण के आंकड़े दिए गए हैं।
उक्त समाचार के अनुसार पंजाब के 95 प्रतिशत, हरियाणा के 70 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश के 3.6 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल के 7.3 प्रतिशत तथा बिहार के 1.7 प्रतिशत किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ प्राप्त हुआ है। इन आकड़ों का आधार कृषि लागत और मूल्य आयोग सीएसीपी की वर्ष 2020 की खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की अनुशंसाओं संबंधी प्रतिवेदन को बनाया गया है।
यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि सीएसीपी वर्ष में दो बार, खरीफ एवं रबी को फसलों का पृथक- पृथक न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करता है। टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित आंकड़े सिर्फ खरीफ को फसलों के संबंध में हैं। यदि इसमें रबी की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य से लाभान्वित किसानों का प्रतिशत भी जोड़ा जाए तो न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मात्र 6-12 प्रतिशत किसानों को मिलने के झूठ का पर्दाफाश हो जाएगा। छत्तीसगढ़ राज्य के उदाहरण का यहां उल्लेख भी आवश्यक है। खरीफ विपणन वर्ष 2018-19 एवं 2019-20 में राज्य के जितने किसानों ने धान की फसल ली थी, उनमें लगभग 90 फीसदी किसान न्यूनतम मूल्य से लाभान्वित हुए हैं। उत्तर प्रदेश में अधिकांश कृषक सुगंधित वैरायटी के धान की खेती करते हैं, जिसका बड़ा हिस्सा अन्य देशों को निर्यात किया जात है। देश में भी खुले बाजार में सुगंधित किस्मों के चावल का मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य के चावल की कीमत से अधिक रहता है, जिसके कारण किसानों को उनका धान समर्थन मुल्य पर बेचने की आवश्यकता नहीं है. इसके अतिरिक्त अनेक किसान स्वयं के उपयोग हेतु धान सुरक्षित रख लेते हैं। अतः इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि बहुत कम किसानों को धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिल रहा है।
सरकार का सर्वप्रथम यह प्रयास होना चाहिए कि किसानों को सम्पूर्ण तथ्यों कौ भली-भाँति जानकारी दी जाए तथा उन्हें मक्का, दलहनों, तिलहनों एवं अन्य नगदी फसलों के लिए खाद्यान्नों को तुलना में अधिक अनुदान दिया जाए जिससे किसान ‘फसल विविधीौकरण “के प्रोत्साहित हो। एपीएमसी एक्ट में इस प्रकार बदलाव किए जाएं जिससे कृषकों को आय में सही मायनों में वृद्ध हो सके। किन्तु किसो भी बदलाव से पहले किसानों, राजनीतिक दलों, कृषि विशेषज्ञों, निजी क्षेत्र के विषणन विशेषज्ञों से व्यापक विचार-विमर्श किया जाना चाहिए, जिससे सर्वसम्मति के आधार पर सुधारों को लागू किया जा सके। न्यूनतम समर्थन मूल्य को वर्तमान व्यवस्था में कमियां हों तो उनके सुधार हेतु प्रयास किए जाने को आवश्यकता है। पंजाब, हरियाणा एवं छत्तोसगढ़ जैसे राज्यों कौ तरह हो अधिकांश कृषकों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ दिलाने सभी आवश्यक उपाय किए जाएं। बिना संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श किए न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था तथा मंडी व्यवस्था समाप्त करना समस्या का समाधान नहीं है। जिस तरह केन्द्र सरकार द्वारा आनन-फानन में असंवैधानिक तरीके से 3 कानून बनाए गए हैं, उनसे किसानों के कप्टों में वृद्धि होना तय है. केंद्र सरकार को चाहिए कि किसानों के हितों को देखते कानूनों के क्रियावयन को स्थगित करें तथा आदोलनरत किसानों से चर्चा कर उनकी शंकाओं का समाधान करें जिससे वे अपना आंदोलन समाप्त कर अपने खेलें में जाकर किसानों कार्य कर सके।