जान के डर से पहली बार मज़दूरों का घरों की ओर बदहवास निकल पड़ना,भूख शारीरिक शक्ति और बीमारी को चुनौती के उनके जज़्बे, कई सवाल भी खड़े करते है। पहला सवाल उन नियोक्ताओं पर जो इन्हें संभाल नही पाए, श्रम को फ़ायदे से जोड़ने के बजाय लाईबिलिटी के पैमाने में रख हाँथ खड़े कर दिए गए ! दूसरा उन राज्यों की सरकारों पर जिन्होंने उद्योगों के नुक़्ता ए नज़र से वास्ता रख पल्ला झाड़ लिया .! केंद्र सरकार से जो संघीय गणराज्य के क़ायदे से मुक्त दिखने लगी.? सवाल उन राज्यव्यापी राजनैतिक दलो से भी जो अपने वोट के लिए भीड़ को फ़ायदे के प्रबंधन में सिद्धहस्त है। सवाल उन सामाजिक- धार्मिक संगठनों से भी जो आत्मा के परमात्मा से मिलन के रास्ते में अपनी आत्मा की आवाज़ भूल चुके.! सवाल सड़क के किनारे बसे गाँव, शहरों से जो भीड़ के इस प्रवाह के लिए अपने दरवाज़े बंद कर बैठे है ! सवाल उस मीडिया से भी जो समस्या के उपाय को प्रेरित करने के बजाय विसंगतियों को हवा दे रहे है।
लाक्डाउन खुलने के बाद प्रॉडक्टिविटी की चिंता में पूरा देश रहेगा, आर्थिक मंदी से झूझने के बड़े खिलाड़ी ये मज़दूर अपने परिवार के साथ अपने पैरो के छाले सेंकते अपने घरों में रहेंगे । अविश्वास, और भविष्य के डर के साथ और उधर उनके नियोक्ता उद्योग, ठेकेदार इनकी वापसी से अपने लाभ के गणित तय करेंगे। सरकारें मंदी से पार पाने के लिए इन उद्योगों पर निर्भर दिखती नज़र आएगी और शायद श्रम के सार्थक महत्व को समझने का दावा करे। देशव्यापी पलायन को राज्यवार आंके तो ज़्यादातर मज़दूर महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान,दिल्ली, तेलंगाना, आंध्र, तमिलनाडू, कर्नाटक से निकले और बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड, ओड़िशा, मध्यप्रदेश, और छतीसगढ़ लौटने वाले है। जिन प्रदेशों की आबादी कम है वहाँ का उपलब्ध संसाधन इन्हें समेट सकता है रोज़गार उपलब्ध करा कर जैसे छतीसगढ़, झारखंड ।लेकिन बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, ओड़िशा के लिए बड़ी चुनौती आ चुकी है या आने वाली है, बड़ा संकट उन औद्योगिक विकसित राज्यों को ज़्यादा है जो इन्हें ना सम्भाल पाने की भयंकर चूक कर बैठे हैं।
अच्छा होता यदि ठेकेदार, उद्योग, निगम निकायों के साथ मिल कर एक मज़दूरों और उनके परिवार का प्रॉपर डाटा तैयार करते और आवश्यक ज़रूरते जैसे खाद्य सामग्री, दवाइयाँ, मानसिक साहस उसी स्थान पर उपलब्ध कराने की सारी क़वायद करते जहाँ ये मज़दूर कार्यरत है और रहते हैं ।इनके सम्बंधित राज्य और उनकी सरकार, केंद्र, नियोक्ताओं के बीच सेतु के रूप में खड़े होते और मीडिया इसमें मदद करता सबसे आवश्यक “ भरोसा” यदि पैदा होता तो ये जान पर खेलने का रिस्क ले कर पूरे देश को साँसत में डालने का रिस्क नही लेते ।
मज़दूर अपने गाँव के अलावा जहाँ काम करता है उस संस्थान, शहर और राज्य के प्रति हमेशा अपनापन और आदरभाव लिए होता है कोशिशें की जानी थी उस भरोसे की जो उसे विलग करने के बजाय समेटने वाली होती, अच्छा होगा यदि सरकार और अथॉरिटी पलायन को प्रेरित करने वाले नियोक्ताओं को चिंहांकित भी करे, उनका बारीकी से मूल्यांकन करे और उद्योगों को दी जाने वाली रेवड़ियाँ बाँटने से पहले जवाब तलब ज़रूर करे । सरकारों को अब स्वीकारना पड़ेगा कि श्रमिक अब भरोसा नही करेगा इसलिए साफ़ और पारदर्शी व्यवस्था मज़दूरों के लिए आवश्यक होगी, श्रम क़ानून को लचीला कर वैश्विक निवेश को आकर्षित करने की क़वायद में श्रमिक रूपी खंभे को मजबूत बनाना पड़ेगा, और फिर ईमारत की कल्पना की जाए ।
लेखक- मनोज त्रिवेदी ( मनोज त्रिवेदी नवभारत के CEO, दैनिक भास्कर- नईदुनिया के GM रह चुके हैं )
ये लेखक के निजी विचार है