मैं उन पुराने  लीडर्स से ज़िक्र शुरू करना चाहूंगा, जिन्हे आपने कुर्त्ते पायजामे में, धोती में, लूंगी में अक्सर सिर्फ संघर्ष करते, कड़ा परिश्रम करते, डांट-डपट कर लोगों को सही रास्ते पर रखते देखा होगा. ये पीढ़ी बहुत सफलता मिलने पर न बहुत उत्साहित होकर निश्चिंत बैठती न असफलता पर निराश होकर घर पर बैठती, न दूसरों को बैठने देती.

आज दिल से लगता है ये पीढ़ी जिस मिट्टी से बनी थी वो मिट्टी बची नहीं. इस पीढ़ी ने जो परिश्रम किया, जो पसीना बहाया, प्रताड़नाएं सहीं और न जाने कितनी ही पीड़ाओं के बावज़ूद  प्रतिरोध का झंडा ऊंचा रखा वो कुर्बानी इतिहास में बहुत सम्मान और प्यार से दर्ज़ है. नए-नए नेताओं के नए तेवरों के चलते कई बार इस पीढ़ी की अनदेखी हुई. इनके त्याग और इनके द्वारा दिखाई दिशा को समझने की कोशिश नहीं हुई, ये एक सबसे बड़ी भूल रही.

दरअसल, एक झटका लगता है तो सोशल मीडिया में डूबा नया खून निराश-हताश हो जाता है. किसी भी लड़ाई में, चुनाव में, संघर्षों में यदि इनके विचार हारते हैं तो इनकी नकारात्मक बातें और विचार पूरे माहौल को हताशा से भर देती  हैं. मुझे लगता है इस पुरानी पीढ़ी ने जितने कठिन दिन, संघर्ष भरे दिन देखे हैं उसका अंश भी अभी आज की इस पीढ़ी ने नहीं देखा. बड़ा फर्क साफ़ दिख रहा है कि तब के लोग हारने के बाद जीतने के लिए अगले दिन से सीधे मैदान में होते थे. और आज नया खून सोशल मीडिया में ही होता है. इनका पूरा दिन व्हाटसऍप, ट्वीटर फिर फेसबुक, इंस्टाग्राम और भी जोड़ लें.

ज़ाहिर है मैदान का समय सोशल मीडिया निगल जाता है. इसलिए छोटे -छोटे झटके भी बर्दाश्त करने की  इम्युनिटी नहीं बची. आज सोशल मीडिया में बहते कुछ हताश आंसुओं से उन लोगों का महत्व समझ आ रहा जिनके शब्दकोश में हताशा निराशा जैसे शब्द कभी नहीं रहे. ये  हमारे असली ज़मीन से जुड़े बुज़ुर्ग लड़ाकू साथी सोशल मीडिया में भले ही सक्रिय नहीं हैं, पर आज भी मैदान इन्होने ही सम्हाला है, भले ही पदों पर न बैठे हों.

मैं पूरे दिल से इस पीढ़ी की लंबी उम्र के साथ ये कामना करता हूं कि इनकी कुर्बानी, जोश, जज़्बा और खून पसीना रंग लाए. जो सपने इन्होंने देखे नई पीढ़ी हताशा छोड़ अपने कथित ‘ईगो’ को  किनारे कर इनसे सीखे और इन सपनों में रंग भरे. भूलिए मत इसी पीढ़ी की दी रोशनी में अब तक हमें उजाला मिला.

“सूरज हूं जिंदगी की रमक़ छोड़ जाऊंगा,

मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊंगा”