विशेष आलेख – तारण प्रकाश सिन्हा
पेंड्रा आज भी एक छोटी जगह ही है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के करीब 20 साल बाद भले ही गौरेला-पेंड्रा-मरवाही आज एक जिला बन चुका है, लेकिन इस प्रदेश के बाहर बहुत से लोगों के लिए इन जगहों के नामों से अजनबीयत महसूस होती होगी। ऐसे में यदि कोई यह बता दे कि राष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ की जिस पत्रकारिता ने अपना लोहा मनवाया, उसका उद्गम पेंड्रा ही है, एक हैरानी वाली बात हो सकती है.
सन् 1900 में जब पूरे छत्तीसगढ़ में कोई प्रिंटिंग प्रेस नहीं था, अंचल का पहला अखबार छत्तीसगढ़-मित्र इसी छोटे से गांव से निकाला गया था। उस पहले अखबार से लेकर अब तक समाचार-पत्रों की दुनिया बहुत बदल चुकी है। इसी बदली हुई दुनिया के बीचो-बीच खड़े होकर तब के पेंड्रा की ओर देखा जाए, तो संभव है कि छत्तीसगढ़-मित्र के एक-एक अंक के लिए कागज, स्याही और प्रकाशन सामग्री के जूझते माधव राव सप्रे जी के संघर्ष की ताप को महसूस किया जा सके। तहसीलदारी जैसे रुतबे को ठोकर मारकर, मशीन से ताजा-ताजा छपकर निकले अपने अखबार की एक प्रति उठाकर उनकी लाइनें बांचते सप्रे जी के संतोष को महसूस किया जा सके.
केवल तीन साल तक छप सके, उस समाचार पत्र ने सप्रे जी को जो संतोष दिया होगा, वह निश्चित ही दुर्लभ था। छत्तीसगढ़-मित्र का प्रकाशन केवल इसलिए उपलब्धि नहीं थी, कि इसे एक पिछड़े हुए अंचल के एक छोटे से गांव से प्रकाशित किया, यह इसलिए भी बड़ी बात थी क्योंकि यह उस भाषा को समृद्ध कर रहा था, जिसकी तब अपनी कोई कोई कहानी नहीं थी। यानी हिंदी को। हिंदी की पहली कहानी लिखने –एक टोकरी भर मिट्टी- सप्रे जी ने ही लिखी थी। इस अखबार के अलावा भी अनेक मौलिक लेखन और अनुवादों से उन्होंने हिंदी को सतत रूप से समृद्ध किया.
ऐसा जुझारुपन और ऐसा जुनून किसी समृद्ध विचार की कोख से ही जन्म लेता है। अंग्रेजों द्वारा बख्शी गई ऊंची कुर्सी से उतरकर जमीन पर खड़े हुए लोगों के बीच जा खड़ा होना, और फिर उनमें से एक होकर, अपनी मिट्टी के लिए लड़ाई लड़ना, इन्हीं विचारों का परिणाम था। अंग्रेजी प्रशासन के दस्तावेजों पर चलने वाली सप्रे जी की कलम जन-जन के बीच उतरकर मशाल बनकर धधकी, और खूब धधकी। उसके प्रकाश से हम आज भी आलोकित है, उसकी आंच से हमारी नसों में बह रहा लहू आज भी गर्म है.
आज सप्रे जी की जयंती है। शत-शत नमन।