15 अगस्त, 26 जनवरी की तरह ही महिला दिवस भी एक दिन मनाकर, बढ़-चढ़कर उनकी तारीफों के पुल बांधकर, परंपरागत तरीका अपनाते हुए तथा सम्पन्न घरों से सक्षम महिलाओं को बुलाकर संगोष्ठियां करके, हमने यह बता और जता दिया कि हमारी सोच फेमिनिस्ट है, हम फेमिनिस्ट हैं और महिलाएं सशक्त हो चुकीं हैं.

कहा जाता है जब किसी भी वर्ग अथवा समूह का शोषण करना हो तो उसका सबसे अच्छा उपाय है कि आप उनकी खूब महिमामंडन करें, शब्दों को चयनित करके सम्मानजनक तरीके से संबोधित करें, उन्हें लगने लगे कि आप भी उनके लिए लड़ रहे हैं, उनके अधिकारों के लिए आप बहुत गंभीर एवं चिंतित हैं, भले ही शोषण में कोई कमी ना हो, ना ही उनके विरुद्ध अपराध में कोई कमी हो, भले ही हालात जस के तस रहें लेकिन लफ्फाजी में कोई कमीं नहीं होनी चाहिए.

जंगल का एक नियम है, ‘कमजोर पर ताकतवर हावी होता है’, अब जो स्त्री इस दुनियां में एक नए जीवन का सृजन करती है वह कमजोर तो हो नहीं सकती अतः पुरुष की सत्ता ने युगों तक स्त्रियों को दोयम दर्जे पर रखकर, घर में बैठाकर, उनका शोषण करके, हर तरह से कमजोर और कमतर होने का एहसास दिलाया जिससे वह खुद को पुरुषों की तुलना में कमजोर मानने लगें.

अमेरिका जैसे देश में भी 100 साल से अधिक लगे स्त्रियों को वोट तक देने का अधिकार पाने में. पूरे विश्व में स्त्रियों के लिए विज्ञान विषय पढ़ने की सुविधा नहीं थी बावजूद इसके, आज तक दुनियां में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हुआ जिसे विज्ञान के दो अलग-अलग विषयों में नोबेल पुरस्कार मिला हो, विश्व में आज तक ऐसी केवल एक महान महिला ही हुईं हैं जिनका नाम है ‘मैरी स्क्लोडोवस्का क्यूरी’ जिन्होंने फिजिक्स एवं केमिस्ट्री दो विषयों में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया, इतना ही नहीं आज तक वो ही एक मात्र ऐसी महिला हैं जिनके बच्चों सहित समूचे परिवार को 5 नोबेल पुरस्कार मिला है. कंप्यूटर का पितामह ‘चार्ल्स बैबेज’ को तो सब जानते हैं लेकिन दुनियां को प्रोग्रामिंग देने वाली लेडी ‘ऐडा अगस्ता’ को मदर ऑफ कंप्यूटर प्रोग्रामिंग का दर्जा हमने नहीं दिया, जिनके दिए प्रोग्रामिंग संरचना से ही कंप्यूटर आज यहां तक पहुंचा है.

हमने अल्बर्ट आइंस्टीन के विद्वत्ता के विषय में तो खूब पढ़ा है लेकिन ये नहीं जानते कि स्विट्जरलैंड के ज़्यूरिक पॉलीटेक्निक के एंट्रेंस एग्जाम में अल्बर्ट आइंस्टीन से भी ज्यादा मार्क्स लाने वाली भी एक स्त्री ही थीं जिसका नाम था ‘मिलेवा मैरिक’ वो भी तब, जब फ्रांस को छोड़कर अन्य कहीं विज्ञान विषय में स्त्रियों के लिए कोई जगह नहीं था. अल्बर्ट आइंस्टीन ने लाख मिन्नत करके मिलेवा मैरिक से प्रेम विवाह किया, आइंस्टीन के लगभग हर बड़े रिसर्च पेपर में उपयोग होने वाले मूल गणित को मिलेवा ने ही सॉल्व किया था, बच्चे की देखभाल करते हुए भी अल्बर्ट के थ्योरी में, गणित की कमियां ढूंढना, सारे आर्टीकल इकट्ठा करना सब मिलेवा ने किया लेकिन बदले में उसे कोई पहचान नहीं मिली. कहते हैं इतिहास हमेशा विजेता को पक्ष में रखकर लिखा जाता है, शायद इसीलिए सिर्फ पुरुषों की ही गाथाएं हम पढ़ते सुनते हैं. इतिहास के पन्नों में स्त्रियों के योगदान को नगण्य ही स्थान मिल पाया है.

अब आप सोचिए जब वैश्विक और इतने तरक्कीशुदा मुल्कों में ये हाल था तो पिछड़े उपमहाद्विपों का क्या हाल होगा? जिनकी सोच और मान्यताएं ज्यादातर धार्मिक मूल्यों पर ही आधारित थीं और अब भी हैं. लगभग हर धर्म की प्रणालियों पर भी पुरुष ही क़ाबिज़ रहे हैं, अतः धर्म का इस्तेमाल भी पुरुषों ने अपनी सुविधानुसार ही किया. हमारे देश की शिक्षा पद्धति तो ऐसी है कि विज्ञान विषय में, आज़ादी के बाद एक भी भारतीय नागरिक नोबेल लॉरेट हुए ही नहीं,अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि स्त्रियों के अधिकारों के संरक्षण में हमारी सोच क्या होगी…?

कल सोशल मीडिया, महिला दिवस के पोस्ट से पटा पड़ा था, विभिन्न स्थानों पर कार्यक्रमों का आयोजन, वक्ताओं के द्वारा बड़ी-बड़ी लच्छेदार बातें सुनने और देखने को मिलीं, लेकिन शायद ही किसी ने पीड़ित महिलाओं को इकट्ठा करके उनके लिए इंसाफ की मांग की हो, शायद ही किसी ने दर-दर भटकती बेसहारा महिलाओं की सूची बनाने का प्रयास किया हो. नारी निकेतन का भ्रमण करके किसी महिला समूह के द्वारा वहां के व्यवस्था का जायजा लेने की खबरें मिलीं हों, ना ही परिवार परामर्श केंद्र का हाल जानने की जरूरत किसी ने महसूस की हो, कभी कुटुंब न्यायालय की व्यवस्था में सुधार की मांग नहीं उठी, कोई ये क्यों नहीं पूछता कि आखिर इंसाफ में इतनी देरी क्यों होती है? सक्षम परिवार के लोग तो स्त्रियों को दी जाने वाली प्राथमिकताओं और सुविधाओं का लाभ उठाकर झूठे केस गढ़वा देते हैं लेकिन सच में जिन स्त्रियों के साथ अन्याय हुआ है उनकी एफआईआर तक क्यों नहीं लिखी जाती? उनके बेटे, बच्चे या पति को पुलिस अभिरक्षा में या फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाता है और उन्हें पोस्टमार्टम की रिपोर्ट तक समय पर क्यों नहीं दी जाती? ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जो पूछे जाने चाहिए.

वैश्विक दबाव बना तो हमारे देश में भी सरकारों ने महिला बाल विकास, महिला आयोग, महिला थाना आदि के नाम से विभिन्न माध्यम खोल दिए, जो महिलाओं द्वारा ही संचालित हैं, जहां से बीच-बीच में इंसाफ की खबरें भी मिल जाती हैं जिससे महिलाओं में एक भ्रम की स्थिति बनी रहे कि सरकारें उनके लिए गंभीर हैं. परंतु राजनीति से प्रेरित, ऐसे पदों पर केवल उन महिलाओं को ही पदस्थ किया जाता है जो कहीं ना कहीं किसी पुरूष की सुविधानुसार ही कार्य करती नज़र आती हैं. ब्यूरोक्रेसी में भी अहम पदों पर महिलाएं कम हैं या जो हैं भी तो वातावरण एवं प्रशिक्षण ऐसा होता है कि उनकी आधी मानसिकता पुरुष प्रधान ही हो जाती है. किसी राजनैतिक दल में मैंने तो ऐसा कभी नहीं देखा सुना कि महिलाओं के अधिकारों के लिए किसी महिला नेत्री/मंत्री ने अपने पुरुष प्रधान पार्टी के विरुद्ध बोला हो या अपनी सरकार को भी लताड़ा हो. चलिए एफआईआर, इंसाफ, न्यायालय राजनीति को छोड़िए ! पब्लिक ट्रांसपोर्ट में रोज यात्रा करने वाली स्त्रियों/बच्चियों से कोई जाकर कभी पूछ लेते कि उन्हें किन समस्याओं का रोज सामना करना पड़ता है? विशाखा समिति लागू करवाना तो दूर, कामकाजी महिलाओं को उनके कार्यस्थल पर क्या-क्या सहना पड़ता है यही पूछ आते ? कुछ नहीं तो समस्याओं की सूची ही तैयार कर लेते, कम से कम वर्ष भर में एकाध बार अपने शहर में संचालित विभिन्न गर्ल्स हॉस्टल की स्थिति का ही जायजा कोई ले आते…

बहुत बड़े काम करें यही जरूरी नहीं, यदि छोटी-छोटी परन्तु महत्वपूर्ण समस्याओं पर ही ध्यान दे दें तो कुछ तो सुधार होगा ही…

अंत में मेरी जो छात्राएं इस पोस्ट को पढ़ रहीं हैं उनसे बहुत छोटा सा निवेदन करना चाहूंगा, आप जहां भी हैं वहां आस-पास की 5 गरीब बच्चियों को पढ़ाना शुरू करें, रोज नहीं तो सप्ताह में दो बार, इतना भी नहीं तो सिर्फ रविवार को ही लेकिन उनके पढ़ाई पूरी करते तक ऐसा करते रहें, उन्हें सशक्त बनाएं, जिस दिन उनमें से एक भी बच्ची अपने जीवन में आत्मनिर्भर बन गयी तो यकीन मानिए उस दिन आपको लगेगा कि आपका जीवन सार्थक हुआ, अन्यथा अपने पापा, भईया या हसबैंड के नेम-फेम के कारण आपको भी किसी वर्ष, महिला दिवस में अतिथि बनाकर भाषण के लिए बुला लिया जाएगा और बड़ी-बड़ी बातें करके घर वापस आकर सोशल मीडिया में लिखिएगा,
नारी महान है, आज हर क्षेत्र में है, नारी सशक्त है,
महिला दिवस की सभी को बधाई !

लेखक – अकिल अहमद अंसारी