रायपुर , छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस की कमान मूलत: किसके हाथ में है ? अध्यक्ष अजीत जोगी के या उनके विधायक बेटे अमित जोगी के हाथ में? यह सवाल इसलिए उठा है क्योंकि अजीत जोगी चुनाव लड़ेंगे या नहीं, लड़ेंगे तो कहाँ से लड़ेंगे, यह पिता के लिए बेटा तय कर रहा है. कम से कम हाल ही में घटित एक दो घटनाओं से तो यही प्रतीत होता है. वैसे भी पुत्र-प्रेम के आगे जोगी शरणागत है. इसकी चर्चा नई नहीं, उस समय से है जब जोगी वर्ष 2000 से 2003 तक कांग्रेस शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उनके उस दौर में अमित संविधानेत्तर सत्ता के केन्द्र बने हुए थे तथा उनका राजनीतिक व प्रशासनिक कामकाज में ख़ासा दख़ल रहता था. अब तो ख़ैर दोनों बाप-बेटे की राह कांग्रेस से जुदा है और दो वर्ष पूर्व गठित उनकी नई पार्टी ने छत्तीसगढ़ में अपनी जड़ें जमा ली है. यद्यपि कहने के लिए अजीत जोगी अपनी नई पार्टी के प्रमुख कर्ता-धर्ता हैं लेकिन कार्यकर्ता बेहतर जानते हैं कि अमित जोगी की हैसियत क्या है और संगठन में उनका कैसा दबदबा है. पिता-पुत्र के संयुक्त नेतृत्व में छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस अपना पहला चुनाव लड़ रही है. राज्य की 90 सीटों के लिए मतदान 12 एवं 20 नवंबर को है.

अजीत जोगी चुनाव लड़ेंगे या नहीं, अभी भी स्पष्ट नहीं है. जैसी कि चर्चा है, बहुत संभव है वे मरवाही से लड़ें. यह उनके बेटे की सीट है जो दूसरी सीट की तलाश में है. दरअसल इस मुद्दे पर सूत्र अमित जोगी के हाथ मे हैं. दो माह पूर्व अजीत जोगी ने घोषणा की थी कि वे मुख्यमंत्री रमन सिंह के विरूद्ध राजनांदगाव से चुनाव लड़ेंगे लेकिन अभी, 19 अक्टूबर को उनकी ओर से अमित जोगी ने फ़ैसला सुनाया कि पिताश्री चुनाव नहीं लड़ेंगे बल्कि राज्य की सभी 90 सीटों पर गठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष मे प्रचार करेंगे. यह बड़ा फ़ैसला था जो अगले ही दिन पलट गया.

अमित जोगी के हवाले से मीडिया को बताया गया कि बड़े जोगी चुनाव लड़ेंगे और मरवाही से लड़ेंगे क्योंकि वहाँ के कार्यकर्ताओं की माँग है कि वे चुनाव लड़ें. कार्यकर्ताओं ने आश्वस्त किया है कि उन्हें मरवाही तक सीमित नहीं रखा जाएगा तथा वे अन्य क्षेत्रों में चुनाव प्रचार के लिए स्वतन्त्र रहेंगे. 24 घंटे के भीतर फ़ैसले को अलटने-पलटने के मुद्दे पर अजीत जोगी ख़ामोश है और फिलहाल इस संदर्भ में उनका अधिकृत बयान नहीं आया है. इन्हीं घटनाओं से संकेत मिलता है कि अमित जोगी हावी हैं तथा उम्मीदवारों के चयन से लेकर चुनावी रणनीति बनाने तथा संगठन संबंधी नीतिगत मामलों में वे पिता के साथ बराबरी के साझेदार हैं.

लेकिन इस उठापटक से पार्टी की साख को धक्का लगा है. विश्वसनीयता आहत हुई है. कल तक सब कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन एक नाटकीय घटनाक्रम की वजह से जोगी का चुनाव लड़ना एक मजाक बन गया है. ऐसे समय जब मतदान के लिए एक महीने से भी कम समय शेष हैं, तब जरूरी था एक स्टैंड पर कायम रहना. राजनांदगाव से चुनाव लड़ने के निर्णय पर कायम रहना. मुख्यमंत्री रमन सिंह के खिलाफ ताल ठोकने से यह सीट सर्वाधिक प्रतिष्ठापूर्ण सीट बन गई थी.

वर्तमान मुख्यमंत्री व पूर्व मुख्यमंत्री के बीच मुक़ाबला बेहद संघर्षपूर्ण व रोमांचक होता. हार या जीत से प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आती. बल्कि वह बढ़ती. जनता के बीच एक सकारात्मक संदेश जाता कि जोगी ने पीठ नहीं दिखाई. लोगों को इस मुक़ाबले की प्रतीक्षा थी. उन्हें निराशा हाथ लगी. जोगी के राजनांदगाव से चुनाव न लड़ने के पीछे यह तर्क दिया गया कि बसपा सुप्रीमो मायावती से विचार विमर्श के बाद उन्होंने चुनाव न लड़ने का फ़ैसला किया. अगर यही बात थी तो मरवाही से चुनाव लडने का कार्यकर्ताओं का कथित आग्रह क्यों स्वीकार किया गया ?

गौर करें, नई प्रादेशिक पार्टी बनाने के बाद अजीत जोगी का अब तक का सफर, राजनीतिक दृष्टि से शानदार रहा. बीते दो वर्षों में उन्होंने सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ा. वे लगातार ऐसी बातें करते रहे, ऐसे वायदे करते रहे जिनमें गजब का आकर्षण था और इस वजह से उनकी पार्टी को कांग्रेस व भाजपा के बाद तीसरी राजनीतिक शक्ति मान लिया गया था. और तो और मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने भी सर्टिफिकेट दे दिया. हालाँकि इस सर्टिफिकेट से जोगी कांग्रेस पर भाजपा की बी टीम होने की छाप और गहरी हो गई. इसी से पीछा छुड़ाने के लिए जोगी रमन सिंह के खिलाफ लड़ने वाले थे. पर अब क्या करेंगे स्पष्ट नहीं है. हालाँकि डाक्टरों ने उनके स्वास्थ्य को देखते हुए ज्यादा भागदौड़ न करने की सलाह दी है.

इसमें क्या शक कि अजीत जोगी एक विचारशील, बौद्धिक व दृष्टि सम्पन्न राजनेता हैं जो कूटनीति रचने व तोड़फोड़ की राजनीति के भी उस्ताद हैं. उन्होंने कांग्रेस में पेंच फँसा रखा है. वह भी दो साल से. उनकी पत्नी, कोटा से विधायक रेनू जोगी कांग्रेस में बनी हुई है और वहाँ से पुन: कांग्रेस की टिकिट चाहती है. इसके लिए उन्होंने आवेदन कर रखा है. कांग्रेस धर्म संकट में है, क्या करें. जोगी ने कांग्रेस से अलग होकर जब नई पार्टी बनाई, रेनू जोगी उसमें शामिल नहीं हुईं. यह मूल्यों की राजनीति थी अथवा नई पार्टी बनाने के जोगी के फैसले से असहमति ? इसके बीच सच क्या है, यह तलाशना अभी शेष है. यह संभव है, सोनिया गांधी से कथित मधुर रिश्तों के चलते भी रेनू जोगी ने कांग्रेस छोड़ना मुनासिब न समझा हो? पर एक अर्थ में इसे परिवार की सुविधाजनक राजनीति भी कह सकते हैं. राजनीति ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है जिसमें एक परिवार के सदस्य अलग-अलग पार्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और अभी भी कर रहे हैं.

बहरहाल रेनू जोगी के मामले में काफी पहले से कांग्रेस की स्थिति न उगलते बने न निगलते जैसी बनी हुई है. अब चुनाव सिर पर है तथा राज्य में पहले दौर के मतदान के लिए अधिसूचना जारी हो चुकी है. पेंच कायम है. प्रादेशिक इकाई रेनू जोगी की उम्मीदवारी पर कोई फैसला नहीं ले सकी और इस ज्वलन्त मुद्दे पर निर्णय लेने का अधिकार सोनिया गांधी पर छोड़ दिया गया है. कांग्रेस व सोनिया गांधी के प्रति वफादारी प्रदर्शित करने के इस खेल में अंतत: जीत जोगी की ही होनी है.

जोगी की कूटनीति रफ़्ता-रफ़्ता आगे बढ़ती रही है. उनकी कूटनीतिक फ़तह का एक बड़ा मामला है बहुजन समाज पार्टी के साथ चुनावी गठजोड़. पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस केवल बातचीत के दौर ही निपटाते रही. एक दिन अकस्मात लखनऊ से ख़बर आई कि मायावती ने छत्तीसगढ़ में जोगी से हाथ मिला लिया. जोगी बड़ी ख़ामोशी से बसपा को ले उड़े. यानी खिचड़ी अंदर ही अंदर पक रही थी जिसका कांग्रेस को भान नहीं था या वह बेपरवाह बनी हुई थी. कांग्रेस के लिए यह बड़ा धक्का था क्योंकि वह राष्ट्रीय स्तर पर बसपा के साथ तालमेल के लिए प्रयत्नशील थी और उसे उम्मीद थी कि नवंबर-दिसंबर में चुनाव का सामना करने वाले राज्यों में भी स्वीकार्य फ़ार्मूला लागू हो जाएगा. पर अजीत जोगी ज़्यादा तेज़ निकले. लखनऊ में मायावती के साथ छत्तीसगढ़ में आपसी सहयोग से चुनाव लडऩे की उनकी घोषणा और संयुक्त विज्ञप्ति जारी करना उनकी कूटनीति का ज़बरदस्त शंखनाद था.

जोगी कांग्रेस व बसपा के बीच छत्तीसगढ़ में सीटों के बँटवारे की संख्या तय हो गई. जोगी 55, मायावती 35. बाद में यह भी तय हो गया कौन कहाँ से लड़ेगा. यानी बँटवारे की सीटों को लेकर दोनों दलों के बीच कोई झगड़े नहीं हुए, कोई तनातनी नहीं हुई। आपसी समझदारी दिखाते हुए दोनों ने गठबंधन की शर्तों का सम्मान कायम रखा. इस गठबंधन के बाद जोगी की दूसरी सफलता थी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समझौता. समझौते मे उन्होंने कोंटा व दंतेवाड़ा सीट सीपीआई को दे दी. इसका फ़ायदा उन्हें उन निर्वाचन क्षेत्रों के औद्योगिक इलाक़ों में मिलेगा जहॉं कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव है. कोंटा व दंतेवाड़ा दोनों विधानसभा क्षेत्रों में वाम का ख़ासा दखल है. और पिछले तीनों चुनाव में उसका प्रदर्शन शानदार रहा है. ख़ासकर कोंटा में. इस बार गठबंधन की ताक़त उसे और मज़बूती प्रदान करेगी.

जोगी का एक और आश्चर्यजनक क़दम है, अपनी पुत्रवधू ऋचा जोगी को अकलतरा से बसपा की टिकिट पर चुनाव मैदान में उतारना हालाँकि इसकी अधिकृत घोषणा अभी नहीं हुई है. लेकिन उन्हें बसपा की सदस्यता दिला दी गई है. ऋचा मरवाही से विधायक अमित जोगी की पत्नी है. यह उनका पहला चुनाव होगा. बहू को बसपा के चुनाव चिन्ह पर लड़ाने का मतलब साफ़ है, बसपा के वोट बैंक को साधना. इससे यह संकेत मिलता है कि अजीत जोगी व मायावती के बीच गहरा तालमेल है और उनहोंने चुनावी संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए परस्पर विशवास को तरजीह दी है. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि गठबंधन मे सीटों की अदला-बदली अथवा परिस्थितियों के अनुसार फ़ैसले लेने का अधिकार अजीत जोगी पर छोड़ दिया गया है. वैसे भी वे गठबंधन के नेता है. हालाँकि असंतुष्टों का आरोप है कि उन्होंने प्रदेश बसपा को हाईजैक कर लिया है

बहरहाल, जोगी वे ग़लतियाँ नहीं दुहरा रहे हैं जो 2003 के राज्य के पहले चुनाव में कांग्रेस से बाग़ी होकर एनसीपी का नेतृत्व संभालने वाले विद्याचरण शुक्ल ने की थी. उन्होंने सभी 90 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए और सिर्फ एक को जीता पाए. संसाधनों की भारी कमी आड़े आ गयी हालाँकि उन्होंने लगभग 7 प्रतिशत वोट लेकर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया. जोगी को इसका अहसास है और अपनी क्षमता का भी. इसलिए उन्होंने उतने ही पैर फ़ैलाए कि वे चादर से बाहर न निकले. सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ने के बजाए जोगी ने गठजोड़ का रास्ता अपनाया और 53 सीटों पर खुद को सीमित रखा. उनका अनुसूचित जाति की 10 व जनजाति की 29 सीटों पर फोकस रहेगा. इस चुनाव में उनकी कोशिश किंग मेकर की भूमिका में आने की है. कितनी कामयाबी मिलेगी, कहना मुश्किल है पर यह स्पष्ट है कि अपने रणनीतिक कौशल से उन्होंने राज्य के चौथे चुनाव को बेहद संघर्षपूर्ण व रोचक बना दिया है.

लेखक-दिवाकर मुक्तिबोध (ये लेकर के निजी विचार हैं)