लेखक- गौतम बंधोपाध्याय.
3 जनवरी को रायपुर में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जलवायु संबंधित संगोष्ठी में जो बातें कहीं, वो वनों की सुरक्षा और आदिवासियों की आजीविका की सुरक्षा के रिश्ते को मजबूत करने की दिशा में अहम सोच और समझ है. इसी के आधार पर हमें वैश्विक वन अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की कुंजी मिलती है.
बघेल ने अपने संबोधन में कहा था कि जंगल से आय बढ़ेगी तो वनवासियों का जंगल से प्रेम और बढ़ेगा. यह बहुत ही महत्वपूर्ण है. उनका ये बयान  वन संघर्ष के इतिहास को स्वीकार करता है और वन आधारित जीवनशैली को मज़बूत करने का मार्ग प्रशस्त करता है. केवल इसी सोच के आधार पर छत्तीसगढ़ में वन आधारित अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सकता है. ये छत्तीसगढ़ की समृद्धि की रीढ़ है.
पश्चिमी वन प्रबंधन की सोच आदिवासियों के वनों पर दबाव को कम करने के आधार पर बना हुआ है. जबकि प्रकृति का नियम कहता है वन और वनों पर आधारित समुदाय के बीच आपसी निर्भरता बढ़ाकर ही वनों को बचाया और वनवासियों के गुणात्मक जीवनस्तर को सुनिश्चित किया जा सकता है. क्योंकि वन और वनवासी एक दूसरे के पूरक और परस्पर निर्भर भी है.
2006 में नया वन-अधिकार कानून जंगल को लेकर सोच की ऐतिहासिक गड़बड़ी को सुधारने का एक प्रयास था. 2006 से पहले वन, वनोपज, वनभूमि और खनिज को लेकर देशभर के आदिवासी इलाकों में द्वंद चल रहे थे. जिसकी वजह से नए कानून की जरूरत पड़ी.
वन अधिकार कानून 2006 वनों का हक वनवासियों को देने के सोच के साथ सामने आया और इसे लागू करने की एक व्यवस्था बनाई गई. इस कानून के प्रस्तावना में ये बात स्वीकार की गई कि वनवासियो को आज़ादी के बाद अपने पूर्वजो की ज़मीन पर अधिकार एवम मालिकाना हक़ न  देकर एक ऐतिहासिक अन्याय हुआ है. उस ऐतिहासिक भूल को सुधारने के लिए ये कानून काम करेगा.
इस कानून में व्यक्तिगत अधिकार की मान्यता के साथ सामुदायिक वन अधिकार मान्यता का भी बात कही गई. इस पूरे कानून में आदिवासियों के लिए यह सुनिश्चित करने की कोशिश की गई कि उन्हें केवल जमीन पर अधिकार न मिले बल्कि वनों के प्रबंधन में भी उनकी सक्रिय व निर्णायक भागीदारी रहे तथा वनोपज का मालिकाना हक़ भी मिल सके.
इस पूरे कानून के क्रियान्वयन में एक संस्थागत व्यवस्था का उल्लेख भी है जिसमें ग्राम सभा, वन अधिकार समिति, आदिवासी विकास विभाग आदि इकाइयों की अहम भूमिका है. समय-समय पर व्यवस्था के मूल्यांकन की बात भी कही गई है. जिसकी जवाबदारी राज्य मॉनिटरिंग कमेटी को दी गई.
राज्य मॉनिटरिंग कमिटी के रूप में एक ऐसी व्यवस्था बनाई गई है जो इस कानून का क्रियान्वयन का मूल्यांकन करते हुए इस तरह आगे बढ़े कि कानून की आत्मा ज़िंदा रहे. कमेटी का काम वन अधिकार कानून के प्रभावी क्रियान्वयन पर नजर रखना है. ताकि कानून का क्रियान्वयन अपने उद्देश्यों के तहत हो और इसके लिए सकल आवश्यक कदम उठाया जाए.
दुर्भाग्य से राज्य की पूर्ववर्ती सरकार ने इस अहम समिति को कमजोर करके रख दिया था. कमेटी ने न तो निगरानी को लेकर कोई सुझाव दिए न ही कमेटी ने राज्य में इस कानून के सफल क्रियान्वयन को सुनिश्चित किया.
इससे राज्य में वनाधिकार कानून का ठीक से पालन नहीं हुआ. आदिवासियों के हित कानून बनने के बाद भी हासिए पर रहा. अगर भूपेश बघेल अपने कहे को अमल में लाना चाहते हैं तो कांग्रेस की एक साल पुरानी सरकार को कानून को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए गंभीरता से इस कमेटी को सशक्त बनाना होगा. कमेटी में जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी. जिसका फायदा प्रदेश को वन अर्थव्यवस्था की मज़बूती के रुप में हासिल होगा.
वनों को लेकर इस देश के अनुभवों से भी य़े बात समझ जाना चाहिये कि अब वनवासियों का जमीन पर मालिकाना हक सुनिश्चित करके ही वनों की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है. इससे प्रदेश के एक तिहाई वनवासियों को भी सम्मानपूर्वक जीवन लायक व्यवस्था उपलब्ध कराई जा सकेगी. इस व्यवस्था के लागू होने से वन संस्कृति भी मजबूत होगी.
ये बात अटल सत्य है कि वन,धान और जल छत्तीसगढ़ की संस्कृति की आत्मा है. इसके मद्देनज़र ये बात भी शासन को समझना होगा कि बिना वन आधारित अर्थव्यवस्था ,धान आधारित अर्थव्यवस्था और जल आधारित अर्थव्यवस्था को मजबूत किए छत्तीसगढ़ की संस्कृति को समृद्ध नहीं किया जा सकता.
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने यहाँ एक और बात कही जिसका ज़िक्र मैं यहां करना ज़रुरी समझता हूं. मुख्यमंत्री ने कहा कि वनों पर मालिकाना हक आदिवासियों का है. वन विभाग का काम केवल वनों का प्रबंधन करना है. ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि वन विभाग और उससे जुड़ी व्यवस्था इस बात को कैसे अंगीकार करेगी. इसकी वजह में वन विभाग का ढांचा है. दरअसल, वन विभाग का ढांचा जिस कानून के हितों के पालन हेतु बना था वह अंग्रेजों का बनाया हुआ 1927 का कानून और उसके धाराएं थीं. इस कानून को अंग्रेजों ने अपने कॉमर्शियल लाभ और आदिवासियों को उनके प्राकृतिक हक से वंचित करने के लिए बनाया था.
तो सवाल उठता है कि वन विभाग के सांगठनिक ढांचे और अवधारणा में बदलाव लाए बिना आदिवासियों को जंगल का मालिकाना हक देना कैसे मुमकिन है. अंग्रेज शासन द्वारा बनाए गये विभाग के अधिकारियों के प्रशिक्षण पद्धति और मानसिकता में आमूलचूल परिवर्तन करे बिना इस लक्ष्य को हासिल करना बेहद कठिन है. प्रदेश में अभ्यारण एवं वनग्रामों में रह रहे आदिवासियों को व्यक्तिगत एवं सामुदायिक वनाधिकार देने में शासन को अपने कार्य एवं योजना  की समीक्षा करनी चाहिए और विफलता को समयावधि लक्ष्य के साथ दूर करनी चाहिए.
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2019 में केंद्र सरकार ने जंगल का क्षेत्रफल बढ़ते हुए बताया है. इस परिपेक्ष्य में छत्तीसगढ़ में भी वनाच्छादित क्षेत्र बढ़ता हुआ दिखता है. लेकिन इसका सच है कि वनाच्छादित क्षेत्रों में केंद्र सरकार ने संयुक्त वन प्रबंधन के क्षेत्रों को भी जोड़ दिया.असल में गुणवत्त्ता युक्त जंगल के क्षेत्र मेंं कोई वृद्धि नहीं हुई है. ये बात समझने की है कि संयुक्त वन प्रबंधन के क्षेत्र को सामुदायिक वन अधिकार का क्षेत्र बना देने से कोई विशेष लाभ ना वनों का होगा ना आदिवासियों का ना ही जलवायु प्रभाव का. सामुदायिक वन अधिकार मान्यता को वन अधिकार कानून के निहित एवं समुचित अर्थों में देखना होगा.
समुदाय की रोज़मर्रा की जीवन शैली बेरोकटोक बेहतर तरीके से चलती रहे. साथ ही वन समृद्ध हों. वनाधिकार मान्यता कानून इस व्यवस्था को सुनिश्चित करता है. ताकि अगली पीढ़ी भी एक बेहतर वन संस्कृति के साथ जीवन जी सके.
(गौतम बंधोपाध्याय वनाधिकार कानून बनवाने की प्रक्रिया में शामिल रहे और उन्होंने वनाधिकार कानून को लेकर संसदीय समिति के सामने स्वयं प्रस्तुतिकरण दिया था. वे पिछले चार दशक से छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओडिशा और बंगाल में जल,जंगल और ज़मीन की मुखर आवाज़ रहे हैं.) 
(ये लेखक के निजी विचार हैं)