डॉ. वैभव बेमेतरिहा –

रायपुर। छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव-2023 को लेकर हमारी स्पेशल रिपोर्ट की ये 16वीं कड़ी है. इसी श्रृंखला में दल बदलने और पार्टी छोड़ने वाले शीर्ष नेताओं की कहानी भी आप पढ़ रहे हैं. पार्टी छोड़ने और नई पार्टी से जुड़ने वाले नेताओं की सफलता और विफलता पर आधारित यह सातवीं स्टोरी है. यह कहानी उस महिला नेता की है, जो सरकार बदलने में सफल रहीं, लेकिन 2009 में मिली हार के बाद के बाद खुद को सफल होते नहीं देख पाई.

स्व. करुणा शुक्ला

2003, 08 और 13 में लगातार तीन चुनावों में हार के बाद कांग्रेस कार्यकर्ता निराश हो चुके थे. बूथ स्तर पर कांग्रेस का ढांचा बिखर चुका था. ऐसे वक्त में 2014 में भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की कमान संभाली थी. भूपेश बघेल एक नई ऊर्जावान टीम तैयार कर रहे थे. इसी वक्त में कांग्रेस में एक-तेजतर्रार महिला नेता का प्रवेश हुआ था. देश-भर में चिर-परिचित और वाजपेयी परिवार से नाता रखने वाली ये महिला थीं पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला.

करुणा शुक्ला का जन्म 1 अगस्त 1950 को ग्वालियर में हुआ था. करुणा शुक्ला राजनीतिक परिवार से थी. संघ और भाजपा की पृष्ठभूमि वाले परिवार से. अविभाजित मध्यप्रदेश में 1980 के दशक में करुणा शुक्ला सक्रिय राजनीति में आ गई थी. संगठन के विभिन्न दायित्वों के साथ वे आगे बढ़ती रहीं. छात्र जीवन से ही राजनीति को समझने वाली करुणा शुक्ला शादी के बाद जब छत्तीसगढ़ पहुँचीं, तो प्रदेश में उनकी राजनीति बलौदाबाजार जिले शुरू हुई.

करुणा शुक्ला के पति माधव शुक्ला बलौदाबाजार और कसडोल क्षेत्र में सरकारी चिकित्सक के तौर पर पदस्थ थे. माधव शुक्ला की पहचान एक चर्चित डॉक्टर के तौर पर रही है. पति डॉ. शुक्ला की प्रसिद्धि और करुणा की राजनीतिक सिद्धि का संयोग ऐसा बना की बलौदाबाजार ही पहले निर्वाचन का ठिकाना बना.

सन् 1993 में बलौदाबाजार से भाजपा प्रत्याशी के तौर पर करुणा शुक्ला विधानसभा के चुनावी समर में उतरीं और जीतकर पहली बार सदन में पहुँचीं.1998 में हुए चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 2004 में जांजगीर से लोकसभा का चुनाव लड़ीं और जीतकर पहली बार ससंद पहुँचीं. लेकिन 2009 में जांजगीर सीट आरक्षित होने के बाद कोरबा से दूसरी बार लोकसभा लड़ीं और इस बार डॉ. चरण दास महंत से हार गईं.

राष्ट्रीय राजनीति में करुणा शुक्ला अपनी पहचान बना चुकी थीं. भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व निभा चुकी थीं. लेकिन प्रदेश की राजनीति में धीरे-धीरे हाशिए पर जाती रहीं. डॉ. रमन सिंह के दो कार्यकाल पूरा होते-होते, भाजपा में जैसे करुणा शुक्ला का वक्त भी पूरा हो चुका था.

करुणा शुक्ला इस बात से नाराज रही कि छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनने के बाद उन्हें कोई खास तवज्जों नहीं दी गई. धीरे-धीरे भाजपा और डॉ. रमन सिंह से उनकी दूरियां बढ़ती चली गईं. 2013 में भाजपा की तीसरी बार सरकार बनी और डॉ. रमन तीसरी बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन करुणा शुक्ला की किसी से नहीं बनीं. नाराजगी और बढ़ी, इतनी बढ़ी कि 2013 के अंत-अंत आते करुणा शुक्ला ने भाजपा से अपना नाता तोड़ लिया.

32 साल तक जिस पार्टी से जुड़कर काम करती रहीं, जिससे विधायक और सांसद बनीं, जिसमें रहकर संगठन के कई पदों को संभाला, उस पार्टी का साथ राज्य में तीसरी बार सरकार बनने के बाद करुणा शुक्ला ने छोड़ दिया. करुणा शुक्ला भाजपा को छोड़ने के साथ ही उस पार्टी से जुड़ गईं जिसे मुख्य प्रतिद्वंदी मानकर ही वो अब तक राजनीति करती रहीं, जिसके खिलाफ लड़कर ही वो विधानसभा और लोकसभा पहुँचीं थी. करुणा शुक्ला साल 2014 की शुरुआत के साथ कांग्रेसी हो गईं थी. अब उनके लिए भाजपा सबसे बड़ी प्रतिद्वंदी पार्टी बन चुकी थी.

कांग्रेस प्रवेश के साथ करुणा शुक्ला छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन के मिशन में जुट गईं. रमन सरकार को बदलने की चाहत लिए कांग्रेस संगठन को मजबूती देना ही मकसद बना. लेकिन विधानसभा से पहले लोकसभा चुनाव की तैयारी थी. पार्टी ने करुणा शुक्ला को बिलासपुर से लोकसभा का उम्मीदवार बना दिया. 2014 में करुणा शुक्ला का मुकाबला भाजपा प्रत्याशी लखनलाल साहू से हुआ. और एक बार फिर हार का सामना करुणा शुक्ला को करना पड़ा. 2009 में भाजपा प्रत्याशी के तौर पर कोरबा से हार गईं थी और 2014 में कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर हार गईं.

लोकसभा में हार के बाद विधानसभा में जीत का मिशन लेकर करुणा शुक्ला कांग्रेस में बूथ ट्रेनर के तौर पर काम करने लगी. चार वर्षों तक सभी 90 सीटों पर जाकर करुणा शुक्ला ने कड़ी मेहनत की. समय बीता और विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो गया. पार्टी के सभी बड़े नेता बतौर प्रत्याशी चुनावी रण में उतर गए. करुणा शुक्ला को भी प्रत्याशी बनाया गया. उन्हें डॉ. रमन सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ने राजनांदगांव भेजा गया. हालांकि करुणा शुक्ला बलौदबाजार सीट से चुनाव लड़ना चाहती थीं, लेकिन पार्टी के आदेश पर रमन सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ना स्वीकार किया.

कांग्रेस राजनांदगांव में डॉ. रमन सिंह को घेरना चाहती थी. कांग्रेस इसमें सफल भी रही. हालांकि करुणा शुक्ला सफल नहीं हो पाई. हारने का सिलसिला यहां भी नहीं थमा. लेकिन डॉ. रमन सिंह को कड़ी टक्कर उन्होंने जरूर दी. रमन सिंह 17 हजार मतों से ही चुनाव जीत पाए थे.

2018 में कांग्रेस की भारी बहुमत के साथ सरकार बनीं. करुणा शुक्ला रमन सरकार उखाड़ फेंकने में सफल रही थी, लेकिन हार के बाद करुणा शुक्ला का राजनीतिक कैरियर जैसे ढलान पर जा पहुंचा था. सरकार बनने के साथ ही निगम-मंडलों में नियु्क्ति पार्टी नेताओं को दी जाने लगी. करुणा शुक्ला को भी नियुक्ति दी गई. उन्हें समाज कल्याण बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन उन्होंने इस पद को स्वीकार नहीं किया. शायद करुणा शुक्ला कुछ और ही चाह रही थी. एक उम्मीद राज्यसभा जाने की भी थी, लेकिन वो भी पूरी नहीं हो पाई.

2021 आते-आते भूपेश सरकार के सफल तीन साल पूरे हो चुके थे. लेकिन पार्टी बदलने के साथ करुणा शुक्ला स्वयं को सफल होते भी देखना चाह रही थीं. उम्मीदों के इसी संकट काल में कोरोना का संकट काल भी चल रहा था. 70 वर्षीय करुणा शुक्ला बीमार पड़ गईं. राजनीतिक संक्रमण से लड़ रही करुणा शुक्ला अब कोरोना संक्रमण से घिर गईं थी. कई मोर्चों पर राजनीतिक युद्ध जीतने वाली जुझारू नेता कोरोना से युद्ध हार गईं. अभी तक वो चुनाव ही हार रहीं थी, लेकिन 27 अप्रैल 2021 को कोरोना से जिंदगी हार गईं. उन्होंने सदा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया. अब सिर्फ यादें ही शेष हैं…

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