अमित कोड़ले,बैतूल। पैर में एक कांटा भी चुभ जाए तो वो बेहद तकलीफदेह होता है। लेकिन बैतूल में एक ऐसा समुदाय है जो खुद को पांडवों का वंशज बताते हैं और महाभारत काल की एक किंवदंती को परंपरा मानकर हर साल खुशी खुशी कांटों को फूल समझकर उस पर लोटकर खुद को यातनाए देते हैं। कांटों पर लोटने के इस आयोजन को भोंडाई कहा जाता है।

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कांटों भरा ताज वाली कहावत तो आपने सुनी होगी जिसका मतलब होता है की मुसीबतों और तकलीफों को अपने सिर लेना। लेकिन अब हम आपको आज एक ऐसे समुदाय से रूबरू कराएंगे जो कांटों के बिस्तर पर भी बड़े ही आराम से लेट जाते है। साथ ही कांटों पर लोट कर खुद को यातनाएं देते हैं। ये बैतूल के सेहरा गांव में रहने वाले रज्जढ़ समुदाय  के लोग हैं। जो खुद को पांडवों का वंशज बताते है और हर साल भोंडाई नाम का आयोजन करते है। जिसमें ये कांटों की सेज बनाकर उस पर लोटते है और खुद को सही साबित करते है। इस आयोजन के पीछे एक किवदंती है जो इस आयोजन का आधार है।

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इस आयोजन के लिए रज्जढ़ समुदाय  के लोग कई दिनों तक बेर के कंटीले पेड़ों को इकट्ठा करके उन्हें सुखाते हैं। फिर मुख्य आयोजन वाले दिन गाजे बाजे के साथ झड़ियों को लेकर अपने पूजन स्थल तक लाते है और कंटीली झाड़ियों से कांटों की सेज बनाकर उस पर बारी बारी से लोटते हैं। हैरत की बात ये है कि रज्जढ़ समुदाय के लोगों को कांटों पर इस तरह लोटने के बावजूद कोई तकलीफ नहीं होती और कुछ ही देर में वो सामान्य भी हो जाते है। इस आयोजन में हर उम्र के लोग शामिल होते हैं।

हालांकि भोंडाई को लेकर और भी कई किवंदतियां कही सुनी जाती है। जबकि उन्हें लेकर कोई एकमत नहीं है। लेकिन हैरत की बात ये है कि केवल एक किवदंती को परंपरा बनाकर रज्झड़ समुदाय के लोग खुद को यातनाए देते आ रहे है।

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