शैलेन्द्र पाठक, बिल्हा। है तो ये एक बेहद साधारण कहानी लेकिन कहानी है हार नहीं मानने की, मुश्किलों के सामने घुटने नहीं टेकने की. समाज में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं लेकिन ये इतने साधारण हैं कि इन्हें कहीं भी न तो टीवी में जगह मिलती है और न ही अखबार के किसी पन्ने पर. साधारण तो है लेकिन खास भी. खास इसलिए कि ये उदाहरण एक ऊर्जा देते हैं. ऊर्जा मुश्किलों से लड़ने की, ऊर्जा रास्तों को तलाशने की, ऊर्जा हार नहीं मानने की, ऊर्जा गलत रास्तों पर कदम को बढ़ने से रोकने की. लिहाजा समाज में ऐसे किरदारों को सामने लाना बेहद जरुरी है और यही एक छोटा सा प्रयास भी है.

हम बात कर रहे हैं बिलासपुर जिले के बिल्हा विधानसभा स्थित आजाद नगर बस्ती में रहने वाले युवा तेज प्रकाश की. बचपन में पोलियो होने की वजह से दोनों पैर खराब हो गए. माता-पिता ने काफी इलाज कराया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. दोनों पैर से विकलांग तेज प्रकाश की दुनिया भी उसी की तरह धीरे-धीरे खिसक रही थी. 6 लोगों के परिवार में तेज प्रकाश घर में सबसे बड़े हैं और बाकी दो भाई व बहन उनसे छोटे हैं. परिवार में पिता ही अकेले काम करते थे. पिता पेशे से मिट्टी तेल हॉकर थे. मिट्टी तेल बेचकर बच्चों की शिक्षा समेत परिवार का पालन पोषण किया करते थे. तेज प्रकाश बच्चों में घर में सबसे बड़े थे. 12 वीं पास करने के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति की वजह से वह आगे पढ़ न सके. जिसका उसे आज भी मलाल है.

दिव्यांगता की वजह से काम ढूंढने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा और उसे ऐसा व्यवसाय चुनना पड़ा जहां वह बैठकर ही काम कर सके. लिहाजा उसने एक दुकान में फोटो फ्रेमिंग का कार्य सीखना शुरु कर दिया और सीखने के बाद वह वहीं काम करने लगा. फोटो फ्रेमिंग के कार्य में उसे प्रतिदिन 70 से 80 रुपए की रोजी मिलती थी. इस तरह महीने में बमुश्किल 2 हजार से 22 सौ रुपए महीने ही कमा पाता था. गरीबी उसमें भी आटा गीला की तर्ज पर पिता का काम भी साल डेढ़ साल पहले ही बंद हो गया. मिट्टी तेल हॉकरों को जो मिट्टी तेल बेचने के लिए दिया जाता था सरकार ने उसे बंद कर दिया. एका-एक परिवार पर यह किसी गाज गिरने से कम नहीं था. ऐसे में परिवार की मुश्किलें बढ़ गई.

घर में दो जून की रोटी दूभर हो गई. तेज प्रकाश की आमदनी से घर का खर्चा नहीं चल पा रहा था उधर पिता को दूसरा काम नहीं मिल रहा था. इसी बीच तेज प्रकाश को उसके दोस्तों से ई-रिक्शा के बारे में पता चला. सरकारी दफ्तर जा कर उसने योजना की जानकारी ली और ई-रिक्शा चलाने का निर्णय लिया. जिसके तहत उसने श्रम विभाग में आवेदन किया.

श्रम अधिकारी अनीता गुप्ता ने उसकी मदद की. उसे 50 हजार की सब्सिडी तुरंत मिल गई. दोस्तों और थोड़े बहुत खुद का पैसा मिलाकर उसने 10 हजार रुपए इकट्ठा किया और 95 हजार रुपए फायनेंस कराकर ई-रिक्शॉ खरीद लिया. ई-रिक्शा खरीदकर अब वह और उसका भाई मिलकर चलाने लगे. दिनभर की मेहनत के बाद प्रतिदिन उन्हें 300 से 400 रुपए की आमदनी होने लगी. इस तरह परिवार की जिम्मेदारी उसने अपने कंधों पर ले लिया.

तेज प्रकाश का कहना है कि उसकी कमाई बहुत ज्यादा तो नहीं है लेकिन इस योजना की वजह से उसके परिवार का पेट भरने का एक बड़ा साधन उसे मिल गया है. उसकी इच्छा है कि दिव्यांग कोटे से उसे कोई छोटी-मोटी नौकरी मिल जाती तो परिवार को बहुत बड़ा सहारा मिल जाता. दिव्यांगता और रोजगार नहीं होने की वजह से उसकी शादी नहीं हुई है उसका कहना है कि अब वह शादी कर सकता है. उधर मां राम प्यारी भी बेटे की मेहनत से बेहद खुश है उसका कहना है कि अगर ई-रिक्शा के लिए सरकारी मदद नहीं मिल पाती तो परिवार की मुश्किलें और भी ज्यादा बढ़ जाती.