विधि अग्निहोत्री, रायपुर/आरंग। अकोली गांव में 8 लोगों का एक परिवार है. इसी परिवार की बेटी है श्यामा. श्यामा की कहानी आपको जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि लोग छोटी-छोटी परेशानियों से दुख़ी होकर अपना जीवन ख़त्म कर लेते हैं या फिर शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होने के बाद भी बेरोजगारी का राग अलापते रहते हैं. श्यामा 80% दिव्यांग है फिर भी वह मानसिक रूप से हमसे कहीं ज्यादा मज़बूत है.
ऐसा नहीं है कि श्यामा सिर्फ शारीरिक अक्षमता से जूझ रही थी. श्यामा ने भयंकर गरीबी की मार भी झेली है. श्यामा के पिता एक मजदूर हैं. पिता की आमदनी से घर नहीं चल सकता था, इसलिए श्यामा की माँ ने भी मजदूरी कर पति का हाथ बंटाया. पिता के पास सिर्फ डेढ़ एकड़ खेत था. जिसमें पूरा परिवार मिलकर काम करता. खेती और मज़दूरी से इतनी आमदनी नहीं होती कि पूरे परिवार का पेट आसानी से भर पाए. परिवार की स्थिति देख श्यामा को लगता कि काश वो भी परिवार की मदद कर पाती. दिव्यांगता की वजह से श्यामा कभी स्कूल नहीं जा पाई. उसने ओपन स्कूल से केवल 5 वीं तक की पढ़ाई ही की है इसलिए श्यामा कहीं नौकरी भी नहीं कर सकती थी.
श्यामा कहीं आने जाने में भी असमर्थ थी. जब भी गांव में कोई कार्यक्रम होता, तो श्यामा भी जाने की बात कहती, इसपर लोग कहते कि तुम इतनी भीड़ में कहाँ जाओगी. तुम भीड़ में कहीं दब ना जाओ. इससे बेहतर है कि तुम घर पर ही रहो. लोगों कि ऐसी बात सुन श्यामा को बहुत बुरा लगता. वो अपना मन मार कर रह जाती और सोचती कि काश वो भी कभी किसी कार्यक्रम में जा पाती.
श्यामा को उम्मीद थी कि एक दिन उसके हालात बदलेंगे और ऐसा हुआ भी. श्यामा गांव के एकता समूह से जुड़ी और यहां से उसके जीवन में बदलाव आने शुरू हुए. एकता समूह की महिलाओं ने श्यामा का हौसला बढ़ाया. अब श्यामा घर-घर मीटिंग में जाने लगी, पंचायत से जुड़ गई. समूह की महिलाओं से ही श्यामा को ई-रिक्शा ट्रेनिंग के बारे में पता चला. श्यामा ने घर वालों के सामने ई-रिक्शा सीखने की बात रखी, तो घर वालों ने श्यामा की परेशानियों को देखते हुए उसे ट्रेनिंग लेने से मना कर दिया. लेकिन श्यामा ने सोचा रखा था कि वो इस मौके को हाथ से जाने नहीं देगी. वो देनारसिटी ट्रेनिंग सेंटर गई और ई-रिक्शा सीखने की बात कही. शुरू में सबने श्यामा से कहा कि वो ई-रिक्शा नहीं चला सकती, लेकिन श्यामा का जज़्बा देख उसे एक मौका दिया गया. इस मौके का श्यामा ने पूरा फायदा उठाया और जल्द ही रिक्शा सीख सबको चौंका दिया. जल्द ही एकता समूह की महिलाओं की मदद से श्यामा को ई-रिक्शा भी मिल गई.
अब श्यामा का एक ही लक्ष्य था ई-रिक्शा चला घर को आर्थिक सहायता देना. श्यामा रोज़ सुबह 7.30 बजे निकल जाती है अपना रिक्शा लेकर और शाम को 6 बजे तक अकोली से आरंग तक रिक्शा चला मुसाफिरों को उनके गंतव्य तक छोड़ती है. ई-रिक्शा चला श्यामा को 8000 से 9000 रूपयों कि मासिक आमदनी हो जाती है. ये वही श्यामा है जो एक वक्त पर घर से बाहर कभी निकल नहीं पाती थी और अब श्यामा अपने गांव की पहली महिला रिक्शा चालक बन गई हैं. श्यामा खुश है कि वह पिता और भाई की तरह घर की जिम्मेदारी उठा रही है. श्यामा को गांव में अब मान-सम्मान मिलने लगा है. श्यामा सरकार का शुक्रिया अदा करती है कि इस योजना ने उसे घर की चार दीवारी से बाहर लाकर आत्मनिर्भर बना दिया. गांव के लोगों के लिए श्यामा एक प्रेरणा स्त्रोत है. श्यामा कहती है कि दिव्यांग भाई-बहनों को अपनी लाचारी से हताश होने की जरूरत नहीं वो कहती है कि आप एक बार कुछ करने की ठानिये तो रास्ते आपके लिए खुद ही खुल जाएंगें. कोई भी इंसान शारीरिक रूप से विकलांग नहीं होता, विकलांग व्यक्ति मन से होता है. जब तक आप अपने साथ खड़े हैं तब तक दुनिया की कोई भी ताकत आपको कमज़ोर नहीं कर सकती.