नई दिल्ली . समकालीन समाज में तलाक को कलंक नहीं माना जा सकता. यह बात किसी युवा को समझाना कठिन नहीं है, मगर क्या आप ये बात 82 वर्ष की उस महिला को समझा सकते हैं जो उन विचारों में रची-बसी हो कि पति के घर से औरत की अर्थी ही उठती है. नहीं समझा पाएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने भी यही माना और उसके पति की तलाक की अर्जी नामंजूर कर दी. महिला की दलील बस इतनी थी, मैं तलाक के कलंक के साथ मरना नहीं चाहती.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय समाज में विवाह को पवित्र और अध्यात्मिक मिलन माना जाता है, इसलिए विवाह के अपूरणीय विघटन (टूट के कगार पर पहुंच चुकी शादी) के आधार पर तलाक को मंजूरी नहीं दी जा सकती. शीर्ष अदालत ने 89 साल के एक व्यक्ति की मांग को खारिज करते हुए यह फैसला दिया. इस व्यक्ति ने 82 साल की पत्नी से तलाक की मांग की थी.
न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी की पीठ ने कहा कि पत्नी ने 1963 यानी 60 सालों से अपने पूरे जीवन भर पवित्र रिश्ते को बनाए रखा. उन्होंने इन वर्षों में अपने तीन बच्चों की देखभाल की और इस तथ्य के बावजूद पति ने उनके प्रति पूरी शत्रुता प्रदर्शित की.
शीर्ष अदालत ने कहा कि पत्नी अब भी पति की देखभाल के लिए तैयार और इच्छुक है. वह जीवन के इस पड़ाव पर पति को अकेला नहीं छोड़ना चाहती. अदालत ने अपने फैसले में कहा कि पत्नी ने यह भावना व्यक्त की कि वह तलाकशुदा महिला होने का कलंक लेकर मरना नहीं चाहती.
पति की याचिका खारिज
उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में फैसला देते हुए स्पष्ट किया कि समकालीन समाज में, इसे (तलाकशुदा होना) कलंक नहीं माना जा सकता है, लेकिन फिर भी हम प्रतिवादी (पत्नी) की भावना से चिंतित हैं. पीठ ने कहा कि ऐसे में पत्नी की इच्छा को ध्यान में रखते हुए इस मामले में तलाक को मंजूरी नहीं दी जा सकती. पीठ ने इसके साथ ही, पति की ओर से तलाक की मांग को लेकर दाखिल याचिका को खारिज कर दिया.
पीठ ने क्या कहा
पीठ ने कहा कि यदि हम संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत विवाह के पूरी तरह से विघटन के आधार पर तलाक को मंजूरी देते हैं तो यह पक्षकारों के साथ पूर्ण न्याय नहीं करना, बल्कि प्रतिवादी के साथ अन्याय करना होगा.