रायपुर. स्वामी विवेकानंद जी के उदात्त धर्म की अवधारणा को समझने के लिए धर्म, धर्माभास एवं धर्म सार को ठीक ठीक समझना होगा. 11 सितम्बर 1893 को शिकागो के धर्म सम्मलेन में स्वामी जी ने जिस धर्म स्वरुप की सिंह गर्जना की थी, वह आज भी प्रासंगिक है। उनकी मान्यता थी कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सामाजिक व्यवस्था में अपने अस्तित्व बोध के साथ दूसरों के अस्तित्व को सम्मानित करने की मान्यता होनी चाहिए। उनसे आत्मीय संबंध एवं सवांद होनी चाहिए. उससे ही समाज में समरसता एवं सद्भाव स्थापित होगा. धर्म आस्था की जड़ता नहीं जीवंत जीवन शैली बने.
फैशन के इस दौर में गारंटी का कोई वादा नहीं जैसे नीति वाक्य के बीच में आज धर्म परिधान, परिवेश, संकीर्णता के प्रपंच में उलझकर महत्वाकांक्षा के धुंध में खोते जा रहा है। स्वामी जी की मान्यता थी कि जैसे नदियों का कल कल निनाद करते हुए अविरल बहता रहता है, उसकी तरंगो में एक संकल्प का स्वर प्रति ध्वनित होता है. शायद उसकी तरंगे सुनिश्चित परम लक्ष्य को पाना चाहती है वह लक्ष्य क्या है ? समुद्र को प्राप्त करना, नदियों का मार्ग ऊँचा नीचा, अलग -अलग होता है। लम्बाई और चैड़ाई में गति और प्रवाह में, यहाँ तक जल के वर्ण में भी कुछ अंतर होता है। परन्तु सभी नदियों का परम लक्ष्य एक ही होता है समुद्र को प्राप्त करना।
परम लक्ष्य को प्राप्त करते ही उनका अस्तित्व बोध, नाम विसर्जित हो जाता है. वैसे ही सभी धर्म के मार्ग, मान्यताए, प्रवाह एवं गति भिन्न हो सकती है परन्तु लक्ष्य एक ही होता है. मावनता के महासागर को प्राप्त करना। स्थूल नहीं चैतन्य वैचारिक व्यवस्था का प्रबंधन एवं नियमन होता है। धर्म वह देह नहीं आत्मा की बात करता है। वह आभूषणों एवं जड़े हुए मणियों का विषय नहीं, धर्म स्वर्ण का सन्दर्भ है. इस मूल सिधांत को समझने पर ही धर्म की व्यापक परिभाषा एवं स्वरूप उभरकर आयेगा। धर्म की सहानुभूति का सम्बन्ध आत्मा से होता है, और वह सुख चैतन्य होता है, उसके विमल प्रकाश को सार्वजनिक करना आवश्यक है.
एक ऐसा धर्म जिससे सुख की अनुभूति हो, वह मानव धर्म है। उसके लिए स्वामी विवेकानन्द उन्होंने अपने चिंतन में नारायण को और अधिक उदार बनाकर “दरिद्र नारायण “ की सेवा का अलख पूरे विश्व में जगाया। स्वामी जी का आवाहन था कि धर्म एक उदार, संवेदानात्मक जीवन शैली बनेगा, तो स्वयं ही आत्मीय समरसता, सद्भाव स्थापित हो जायेगा. जिसकी परिक्रमा, परिभरण निरंतर मानव जीवन के लिए चलता रहे , उसकी निरंतरता बाधित ना हो. काल से प्रभावित ना हो वही धर्म है। जैसे पका हुआ आम पीला दिखाई देता है, पीले आम के छिलके को हम आम नहीं कह सकते है क्योंकि छिलका काल बाधित होता है। उस आम के बीच का रस वाला भाग भी आम नहीं है, उसके अन्दर गुठली होती है, उस गुठली में फिर से आम के अस्तित्व और स्वरूप को स्थापित करने का सामथ्र्य होता है. सही मायने में वही आम है.
इस गूढ़ रहस्य को स्वामी जी ने अनावृत करने का प्रयास किया है। वह पीला छिलका आम नहीं आम का आभास है. उसका रसभरी भाग भी आम नहीं आम का रस है, पर वो गुठली आम का सार है, ठीक उसी तरह धर्माभास – धर्म धर्मसार होता है. आज वैज्ञानिक एवं तर्क के इस युग में बौद्धिक चेतना को स्वामी जी के चिंतन से ही दिशा मिल सकती है।
मेरा ऐसा मानना है 151वी सताब्दी का स्वामी जी का यह वर्ष युवा शक्ति को आवाहन कर रहा है। और राष्ट्र की उर्जा को नए इतिहास के सृजन का आग्रह करता जान पड़ता है। जाति, धर्म, पंथ, मान्यताओं से विखंडित मानवता को मानव धर्म की मूल धारा से जुड़ने की आवश्यकता है. ऐसा लगता है स्वामी जी मानो कह रहे हो अब समय आ गया है, उतिष्ट, जागृत, प्राप्य वरांन बोधत, उठो, जागो एवं अपने अस्तित्व को पहचानों. जिससे समाज को हम एक दिशा दे पाए। एक नेक उदार मनुष्य बनकर ही आज युवा समाज की सेवा कर सकता है और वो ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। स्वामी जी का चिंतन धर्माभास-धर्म से हटकर धर्म सार के ओर प्रेरित करता है और इसे ही हमें आज समझने की जरुरत है।
…ये लेखक के निजी विचार हैं।