कर्ण मिश्रा, ग्वालियर। विजयीदशमी के मौके पर वैसे तो समूचे देश में अस्त्र-शस्त्र से लेकर वाहनों की पूजा की जाती है, लेकिन ग्वालियर में हथियारों की एक ऐसी पूजा होती है जिसे कोई आम आदमी नहीं बल्कि साधु-संत करते हैं. बताया जाता है कि यह हथियार कोई साधारण हथियार नहीं है. इन हथियारों का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है, इसलिए इनका खासा महत्व भी बढ़ जाता है.

शायद आपको पुराना वो जमाना याद आ जाए जब तोप और तलवारों से ही लड़ाई लड़ी जा रही थी, लेकिन आज शायद ही किसी के पास निजी तौर पर तोप देखने को मिले. लेकिन ग्वालियर में एक ऐसी तोप है जो पूरी तरह से निजी है और इसका मालिक कोई और नहीं बल्कि एक मंदिर के साधुसंत हैं.

दरअसल, ग्वालियर की लक्ष्मीबाई कालोनी में बना गंगादास की बड़ी शाला, जिसका इतिहास में अपना अलग ही महत्व है.  यह वही स्थान है जहां सन 1857 मे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से लड़ते लड़ते अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया था. जब रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते ग्वालियर तक आई और जब उन्हें अंग्रेजों ने चारों तरफ से घेर लिया था तब, रानी ने यहां पर रहने वाले गंगादास महाराज से मदद मांगी. जिस पर गंगादास संत ने अपने साधुओं के साथ रानी की रक्षा के लिए अंग्रेजों से इन्हीं हथियारों और तोप से लोहा लिया था.

साधुओं के युद्ध कौशल को देखकर अंग्रेज भाग खडे़ हुए, हालांकि इस लडाई मे रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं. वहीं इस स्थान के 745 साधु भी शहीद हो गए थे, लेकिन जिन अस्त्र-शस्त्रों से साधुओं ने अंग्रेजों से लोहा लिया था वो आज भी यहां रखे हुए हैं. जिनकी विजयीदशमी के दिन पूजा की जाती है. सबसे पहले सुबह के वख्त सभी शहीद साधुओं की समाधी की पूजा की जाती है. उसके बाद मन्त्रोउच्चार के साथ हवन में आहुती दी जाती है.

वहीं साधुओं की पूजा के बाद इस तोम की पूजा होती है. जो कई घंटो तक चलती है. खास बात यह है इस आश्रम मे आज भी सन 1857 की तलवार, तेगा, फरसा, वर्छी, भाला और वो सभी हथियार मौजूद हैं जिनसे उस दौर मे युद्ध लड़ा गया था. इतिहास की उन झलकियों को खुद में समेटी उस तोप को भी आज चलाया गया. गौरतलब है कि सन 1860 से प्रतिवर्ष विजयादशमी पर इन शस्त्रों का पूजन किया जाता आ रहा है.