बीजापुर. नक्सल संगठन के खिलाफ सरकार की आक्रामक रूख से माओवाद प्रभाव वाले इलाकों में युद्ध जैसे हालात निर्मित हैं, जिससे नक्सलियों और जवानों के साथ निरीह आदिवासी भी मारे जा रहे हैं. दोनों तरफ से वार-पलटवार से आदिवासी इस कदर सहमे हुए हैं कि वे अब सरकार से बस्तर में शांति बहाली की दिशा में जल्द से जल्द कदम उठाने की मांग कर रहे हैं. भले ही दो दशक पहले बस्तर में शांति कायम करने सलवा जुडूम के नाम पर आदिवासी हथियार उठाने को मजबूर हुए थे, लेकिन अब उसे बड़ी भूल मानते शांति बहाली के लिए वार्ता को उचित ठहरा रहे हैं.
हिंसा-प्रतिहिंसा के बीच शांति वार्ता के लिए दंतेवाड़ा और बीजापुर जिले की सरहद पर बसे गांव मुतवेंडी से आवाज उठी है, जहां प्रेशर आईईडी की जद में आने से गांव के एक 18 वर्षीय युवक गड़िया पुनेम की मौत हो गई. मौत से ना सिर्फ पूरा गांव सहमा हुआ है बल्कि घटना ने ग्रामीणों को भीतर तक झकझोर कर रख दिया है.
यह घटना 20 अप्रैल की है, जब गड़िया गांव के अन्य ग्रामीणांे के साथ तेंदूपत्ता बांधने सिहाड़ी पेड़ की छाल से रस्सी निकालने गांव के नजदीक पहाड़ी में गया था. जंगल में चलते वक्त उसका पांव प्रेशर आईईडी पर पड़ गया और वह मुर्छित होकर गिर पड़ा. गांव वालों का कहना है कि धमाके की आवाज सुनते ही बाकी ग्रामीण सहम गए और गांव की तरफ दौड़े. अगले दिन तक जब गड़िया घर नहीं लौटा तो उसकी तलाश में ग्रामीण वापस जंगल गए, जहां गड़िया गंभीर घायल अवस्था में मिला. ग्रामीण उसे घर लेकर आए. एम्बुलेंस की व्यवस्था के लिए फोन पर संपर्क किया गया, गांव में नेटवर्क नहीं होने से पहाड़ी पर चढ़कर फोन से संपर्क साधा गया, लेकिन बदकिस्मती से मदद जब तक पहुंचती गड़िया जिंदगी की जंग हार चुका था.
क्रॉस फायरिंग में भांजी तो आईईडी की चपेट में आने से मामा की मौत
सोमवार को अंत्येष्टि में मुतवेंडी समेत आसपास बसे गांवों रिश्तेदार और परिचित गांव पहुंचे. बताया जा रहा कि गड़िया रिश्ते में उस छह माह की दूधमुंही मंगली का मामा है, जिसकी जिंदगी एक जनवरी 2024 को क्राॅस फायरिंग में चली गोली ने ले ली थी. मुतवेंडी के जिस घर के आंगन से भांजी की अर्थी उठी थी, चार माह के भीतर उसी आंगनी से मामा की अर्थी उठी. गोली से मंगली और प्रेशर आईईडी से गड़िया की मौत ने ना सिर्फ मुतवेंडी के लोगों को झकझोर दिया अपितु उनके मन में हिंसा-प्रतिहिंसा को लेकर गुस्से का सैलाब भी उमड़ रहा है. चारपाई पर गड़िया के शव को रखकर पूरा गांव फूट-फूट कर रो रहा था. करूण विलाप गांव भाव विभोर था.
युवाओं ने कहा – आदिवासियों के सामने कुआ-खाई जैसे हालात
गमगीन माहौल और वार-पलटवार से युद्ध जैसे बने हालातों को लेकर गांव के कुछ नौजवानों का कहना है कि बस अब बहुत हुआ, अब बर्दाशत से बाहर है. हिंसा थमनी चाहिए. टूटी -फूटी हिंदी में युवकों का दो टूक कहना था कि समाचार माध्यमों से उन्हें पता चला कि सरकार शांति वार्ता करना चाहती है, लेकिन ये शांति वार्ता होगी तो कब होगी? खींझ जताते उन्होंने कहा कि बस्तर का हर आदिवासी आज डरा हुआ है. जंगल जाओ तो डर, खेत जाओ तो डर, पहाड़ जाओ तो डर, डर हर जगह है और हमें डर दोनों तरफ से है. बस्तर में जो युद्ध चल रहा है आदिवासियों के सामने इधर कुआ-उधर खाई जैसे हालात हैं.
ग्रामीणों का सवाल – गांव में कैंप खुले पर स्कूल क्यों नहीं
सुरक्षा कैम्पों पर सवाल उठाते मुतवेंडी समेत आसपास के ग्रामीणों ने कहा कि मुतवेंडी में कैम्प स्थापित हुए चार माह होने काे है. जब कैम्प लग चुका है तो गांव वालों की परेशानी हल क्यों नहीं हो रही है? कैम्प खोला गया तो साथ में गांव के बच्चों के लिए स्कूल क्यों नहीं खोला गया? कैम्प लगने के बाद भी आदिवासी बेमौत मारे जा रहे हैं. चार माह के भीतर मुतवेंडी में दो लोगों की अकाल मृत्यु हो चुकी है. आगे और कितने मरेंगे ये कह पाना भी मुश्किल है. किसकी गोली से मरेंगे हम ये भी नहीं कह सकते हैं इसलिए हम नक्सल संगठन और सरकार दोनों तक अपनी बात रखना चाहते हैं. इस मसले पर सरकार को सबसे पहले और ठोस पहल करने की दरकार है. हिंसा-प्रतिहिंसा के बीच आदिवासियों की परवाह शायद किसी को हो. आने वाले दिनों में इन्हीं इलाकों में और नए कैम्प लगेंगे, ढेरों एंकाउंटर होंगे, एंकाउंटर के नाम पर कई निर्दोषों की जानें भी जाएंगी.
शांति वार्ता के लिए जल्द कदम उठाए सरकार
ग्रामीण लखन पुनेम और सोमलू समेत अन्य युवाओं का कहना है कि भले ही गड़िया की मौत पर गांव के बाकी लोग खामोश है, जिसकी वजह सिर्फ और सिर्फ डर है. इस बात को हर कोई भलीभांति समझ सकता है. सरकार की तरफ से शांति वार्ता की पेशकश से ज्यादातर ग्रामीण अनभिज्ञ हैं तो ऐसे हालात में वे क्या समझ पाएंगे और क्या भी कहेंगे, इसलिए सरकार से हमारी गुजारिश है कि आदिवासियों को बचाने, बस्तर को बचाने सरकार शांति वार्ता की दिशा में जल्द से जल्द कोई ठोस कदम उठाएं अन्यथा पुलिस-नक्सलियों में जारी जंग के बीच निरीह आदिवासियों के कत्लेआम का ये दौर जारी रहेगा और बस्तर में शांति चांद पर पहुंचने जैसा मुश्किल काम होगा.
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