बक्सर. जिला मुख्यालय से महज तीन किलोमीटर पूरब, औद्योगिक थाना क्षेत्र में एक ऐसा आदर्श गांव है, जंहा के अमन परस्त लोग आजादी के 77 साल गुजर जाने के बाद भी न तो उस गांव में कभी पुलिस गई है. और न ही इस गांव के लोग कभी कोट कचहरी या थाने गए हैं. मुसलमान बहुल इस गांव में सभी समाज के लोग मिल जुलकर एक-दूसरे के सुख दुख में शामिल होते हैं और गांव की समस्या को गांव में ही बैठकर सुलझा लेते हैं. जो पूरे देश के लिए मिशाल है.

इसी गांव के मैदान में लड़ा गया था बक्सर का युद्ध

23 अक्टूबर 1764 में इसी कतकौली गांव के मैदान में ईस्ट इंडिया कंपनी के हेक्टर मुनरो, मुगलों और नवाबों की सेनाओं के बीच एक युद्ध लड़ा गया था. बंगाल के नवाब मीर कासिम, अवध के नवाब शुजाउदौला, मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना और अंग्रेजी सेनाओं के बीच युद्ध हुआ था. इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत हुई. परिणाम स्वरूप पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और बांग्लादेश की दीवानी और राजस्व अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में चला गया.

युद्ध में हुआ था भारी रक्तपात

इस युद्ध में इतना इतना रक्तपात हुआ कि पूरे गांव की मिट्टी ही लाल हो गई थी. शहीद हुए भारतीय सैनिकों में हिंदू भी थे और मुसलमान भी. आसपास के ग्रामीणों ने मारे गए. सैनिकों के शवों का उनके मजहब के अनुसार अंतिम संस्कार किया. मुसलमान सैनिकों के शव को गांव के बाहर विशालकाय कुएं में दफनाया गया. हिंदू सैनिकों के शवों को उत्तर दिशा में 2 किलोमीटर पर स्थित जीवनदायिनी गंगा में प्रवाहित कर दिया गया. शहीद हुए भारतीय सैनिकों की याद में उस समय एक बरगद का वृक्ष उसी कुएं पर लगाया गया जिसमें मुसलमान सैनिकों के शव को दफनाया गया था. आज भी वह वृक्ष लोगों को उस युद्ध की याद दिलाता है.

क्या कहते हैं ग्रामीण

कतकौली गांव के लोगों का कहना है कि इस गांव के एक पीढ़ी के लोग आने वाले दूसरे पीढ़ी के लोगों को उस समय के हुए भीषण रक्तपात की बाते बताते हैं. तो आज भी मन द्रवित हो जाता है. इस गांव में मुसलमानों की संख्या सबसे अधिक होने के बाद भी हर धर्म के लोग मिलजुलकर रहते हैं. इस गांव के जीविका का मुख्य साधन खेती किसानी है. ज्यादातर लोग विदेशों में मेहनत मजदूरी कर अपने परिवार के लोगों को पैसा भेजते हैं. इस गांव के लोगों ने इतना रक्तपात देखा है कि अब युद्ध और लड़ाई झगड़ा शब्द से नफरत हो गई है. यही कारण है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक कोई मामला इस गांव का थाने नहीं गया है.

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16 साल पहले चर्चा में आया गांव

यह गांव उस समय चर्चा में आया जब 16 साल पहले पाकिस्तान में रहने वाले कुछ मुसलमान अपने परिजनों से मिलने औद्योगिक थाना क्षेत्र के इस कतकौली गांव पहुंचे. इसकी सूचना चौकीदार ने स्थानीय पुलिस प्रशासन को दी. जिला प्रशासन और पुलिस प्रशासन के अधिकारियों में हड़कंप मच गया. आनन-फानन में जब अधिकारियों ने गांव के इतिहास को खंगालना शुरू किया तो पता चला कि सैकड़ों साल पहले बक्सर का युद्ध इसी गांव के मैदान में लड़ा गया था. आजादी के बाद से लेकर अब तक ना तो उस गांव के लोग कभी थाना और कोर्ट कचहरी गए और ना ही कभी पुलिस उस गांव में गई.

एक पीढ़ी-दूसरे पीढ़ी को विवादों से दूर रहने का देते हैं सीख

ग्रामीणों ने बताया कि इस गांव ने इतना खून-खराबा देखा है कि उसके बाद से यहां रहने वाले हर जाति धर्म के लोग लड़ाई झगड़े से नफरत करते हैं. आजादी के 77 साल बीत जाने के बाद भी इस गांव में किसी भी व्यक्ति का किसी से कोई विवाद नहीं है. ना तो इस गांव के लोग आज तक कोर्ट कचहरी गए हैं. ना ही कभी पुलिस इस गांव में आई है. ऐसा नहीं है कि ये गांव किसी की नजरों में नहीं है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इस गांव में आ चुके हैं. गांव के लोग एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को ये संदेश देते हैं की लड़ाई-झगड़े या किसी विवाद से दूर रहना है.

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क्या कहते हैं एसपी मनीष कुमार

बक्सर पुलिस कप्तान मनीष कुमार ने बताया कि उस गांव के मामले थाने तक नहीं पहुंचते हैं. ना ही कभी पुलिस को गांव में जाने की जरूरत पड़ी है. जिले का यह एक ऐसा आदर्श गांव हैं, जिससे न केवल बक्सर बल्कि पूरी दुनिया को सीख लेने की जरूरत है. कभी जिस गांव में इतना भयंकर युद्ध हुआ उसके बाद से गांव के लोग हिंसा से इतनी नफरत करते हैं कि आज तक उस गांव में कोई विवाद ही नहीं हुआ. आपसी मन मुटाव को गांव के लोग आपस में ही सुलझा लेते है.

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विकास की रफ्तार में पिछड़ता गांव

आजादी के 77 सालों बाद शांतिप्रिय गांव के लिहाज से भले ही कतकौली गांव की अलग पहचान हो, लेकिन विकास की रफ्तार में अब यह गांव रोजाना पिछड़ता जा रहा है. आलम यह है कि इस लड़ाई के मैदान पर आसपास के लोग कब्जा करते जा रहे है. जिसपर न तो अधिकारियो का ध्यान है और न ही जनप्रतिनिधियों का. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आश्वासन के बाद भी विकास के रफ्तार में यह गांव पिछड़ता जा रहा है.

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