सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court) की पांच जजों वाली संविधान पीठ आज गवर्नर और राष्ट्रपति की शक्तियों पर अहम फैसला सुनाने जा रही है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा उठाए गए 14 संवैधानिक सवालों पर शीर्ष अदालत अपनी राय देगी। इस फैसले का देश की संघीय व्यवस्था, राज्यों के अधिकार और गवर्नर की भूमिका पर दूरगामी प्रभाव होने की संभावना है। संविधान पीठ यह तय करेगी कि क्या अदालत राज्यपाल और राष्ट्रपति पर राज्यों के विधेयकों (State Bills) पर निर्णय लेने की समयसीमा तय कर सकती है या नहीं।

5 जजों की संविधान पीठ सुनाएगी फैसला

चीफ जस्टिस बी.आर. गवई की अगुवाई वाली पांच जजों की संविधान पीठ आज गवर्नर और राष्ट्रपति की शक्तियों पर अहम फैसला सुनाएगी। पीठ में जस्टिस सूर्य कांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगी कि क्या गवर्नर की बिल से संबंधित शक्तियां न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के अधीन हैं या नहीं। यह फैसला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए 14 संवैधानिक सवालों पर आएगा। राष्ट्रपति का यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच के उस फैसले के बाद आया था, जिसमें तमिलनाडु सरकार के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा गया था कि गवर्नर बिलों पर फैसला करने में देरी नहीं कर सकते।

राष्ट्रपति के 14 सवालों पर निर्णय देगा SC

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए 14 संवैधानिक सवालों पर सुप्रीम कोर्ट आज अपनी राय देगी। यह फैसला देश की संघीय व्यवस्था, राज्यों के अधिकार और गवर्नर की भूमिका पर दूरगामी प्रभाव डाल सकता है। संविधान पीठ यह तय करेगी कि क्या अदालत गवर्नरों और राष्ट्रपति पर राज्य के विधेयकों (State Bills) पर निर्णय लेने की समयसीमा तय करने का अधिकार रखती है या नहीं।

यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच के उस फैसले के बाद आया था, जिसमें तमिलनाडु सरकार के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा गया था कि गवर्नर बिलों पर फैसला करने में देरी नहीं कर सकते। सितंबर में सुप्रीम कोर्ट की पांच-जजों की संविधान पीठ ने 10 दिन की मैराथन सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस पीठ की अध्यक्षता चीफ जस्टिस बी.आर. गवई कर रहे हैं, जबकि जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर भी इसमें शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगी कि क्या अदालत गवर्नरों और राष्ट्रपति पर राज्य के विधेयकों (State Bills) पर निर्णय लेने की समयसीमा तय कर सकती है या नहीं।

 8 अप्रैल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का प्रभाव

इस मामले का संदर्भ सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच के उस फैसले से जुड़ा है, जिसमें जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन ने कहा था कि गवर्नर को किसी भी राज्य विधेयक पर तीन महीने में निर्णय लेना होगा, चाहे वह असेंट रोकना हो, पास करना हो या राष्ट्रपति को भेजना हो। दोबारा पारित बिल पर निर्णय एक महीने में लेना होगा। राष्ट्रपति को गवर्नर की ओर से भेजे गए बिल पर तीन महीने में फैसला करना चाहिए। इस फैसले के बाद राष्ट्रपति ने यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के पास औपचारिक रूप से भेजा था। सितंबर में सुप्रीम कोर्ट की पांच-जजों की संविधान पीठ ने 10 दिन की मैराथन सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रखा था। इस पीठ की अध्यक्षता चीफ जस्टिस बी.आर. गवई कर रहे हैं, जबकि जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर भी इसमें शामिल हैं।

सुनवाई के दौरान मुख्य मुद्दे इस प्रकार हैं:

अनुच्छेद 200 के तहत गवर्नर के पास किसी राज्य विधेयक पर निर्णय लेने के क्या विकल्प हैं?

क्या गवर्नर मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार बाध्य हैं या स्वतंत्र निर्णय ले सकते हैं?

क्या अनुच्छेद 200 के तहत गवर्नर के निर्णय न्यायिक समीक्षा (judicial review) के दायरे में आते हैं?

क्या अनुच्छेद 361 गवर्नर की कार्रवाई को न्यायालयीय समीक्षा से पूरी तरह बाहर करता है?

जब संविधान में कोई समयसीमा निर्दिष्ट नहीं है, तो क्या सुप्रीम कोर्ट समयसीमा तय कर सकती है?

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने कहा था कि गवर्नर को किसी भी राज्य विधेयक पर तीन महीने में निर्णय लेना होगा और राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी तीन महीने में फैसला करना चाहिए। इसके बाद राष्ट्रपति ने यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के पास औपचारिक रूप से भेजा। सितंबर में पांच-जजों की संविधान पीठ ने 10 दिन की सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रखा। इस पीठ की अध्यक्षता चीफ जस्टिस बी.आर. गवई कर रहे हैं, जबकि जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर इसमें शामिल हैं।

 केंद्र की दलील, SC को ऐसा अधिकार नहीं

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अदालत के पास गवर्नर और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित करने का अधिकार नहीं है। हालांकि, उन्होंने यह भी माना कि गवर्नर बिलों को अनिश्चितकाल तक रोककर नहीं रख सकते। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने कहा था कि गवर्नर को किसी भी राज्य विधेयक पर तीन महीने में निर्णय लेना होगा और राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी तीन महीने में फैसला करना चाहिए। इसके बाद राष्ट्रपति ने यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के पास औपचारिक रूप से भेजा। सितंबर में पांच-जजों की संविधान पीठ ने 10 दिन की सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रखा। इस पीठ की अध्यक्षता चीफ जस्टिस बी.आर. गवई कर रहे हैं, जबकि जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर इसमें शामिल हैं।

राज्यों ने समयसीमा को बताया था जरूरी

सुनवाई में तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक सहित कई राज्यों ने 8 अप्रैल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही बताया और कहा कि समयसीमा हटाने की कोई जरूरत नहीं है। उनका कहना था कि गवर्नर द्वारा बिलों पर फैसला लेने में देरी संविधान के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाती है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने कहा था कि गवर्नर को किसी भी राज्य विधेयक पर तीन महीने में निर्णय लेना होगा और राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी तीन महीने में फैसला करना चाहिए। इसके बाद राष्ट्रपति ने यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के पास औपचारिक रूप से भेजा।

सुप्रीम कोर्ट आज यह स्पष्ट करेगा कि क्या सुप्रीम कोर्ट गवर्नर और राष्ट्रपति पर बिलों पर निर्णय लेने की समयसीमा लागू कर सकती है? क्या गवर्नर की बिल-सम्बंधी शक्तियां न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के अधीन हैं? सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि अदालत के पास समयसीमा निर्धारित करने का अधिकार नहीं है, लेकिन गवर्नर बिलों को अनिश्चितकाल तक रोककर नहीं रख सकते।

क्या है पूरा मामला?

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में सदन से पारित बिलों पर मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों को तीन महीने की अधिकतम अवधि निर्धारित की थी। इस फैसले का संदर्भ गवर्नर और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर कार्रवाई करने की समय-सीमा और उनकी शक्तियों के दायरे से जुड़ा है। राष्ट्रपति ने इस निर्णय को संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन मानते हुए चिंता जताई और सर्वोच्च न्यायालय से 14 सवालों पर सलाह मांगी कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति अपने विवेक का प्रयोग करते हुए विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक सकते हैं।

विशेषज्ञों के अनुसार, इस संदर्भ के निहितार्थ व्यापक हैं। यह मामला संघवाद, शक्तियों के पृथक्करण और कार्यकारी तथा न्यायिक भूमिकाओं के बीच सीमाओं को स्पष्ट करने में अहम भूमिका निभाएगा। इसे राष्ट्रपति और राज्यपालों की संविधान प्रदत्त विवेकाधीन शक्तियों में संभावित कटौती के रूप में देखा जा रहा है। संविधान पीठ ने दस दिनों तक इस मामले में देश के वरिष्ठ वकीलों और संविधान विशेषज्ञों की दलीलें सुनीं और 11 सितंबर को सुनवाई पूरी करने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। इस पीठ की अध्यक्षता चीफ जस्टिस बी.आर. गवई कर रहे हैं, जबकि जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर इसमें शामिल हैं।

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