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शब्द, रंग पोशाक और खानपान से पहचान करने की बीमारी बहुत पुरानी है. भले ही इस मानसून में धरती हरी है पर इस हरे को एक खास पहचान दे दी गयी. इसी तरह भले ही तिरंगे का केसरिया रंग हो या शरीर के अंदर बहता लाल खून हो …पर रंगों से पहचान की ही जाती है. नॉन-वेज खाने वालों का प्रतिशत भले ही 75 % से ऊपर जा रहा हो पर इसे भी धर्म के साथ जोड़ने में लोग पीछे नहीं .
आज की दुनिया में लोग तरह- तरह के विविध लिबास पहनते हैं पर लिबास भी छींटाकशी से शर्मसार है. वैसे ये कोई आज का रोग नहीं है , बहुत पुराना संक्रमण है . अगस्त 1947 के आसपास इलाहाबाद में तरक्की पसंद हिंदी के लेखकों की कांफ्रेंस हुई इसमें शरीक होने सज्जाद ज़हीर साहब के साथ सरदार जाफ़री भी शरीक हुए .कांफ्रेंस के दौरान शहर में कर्फ्यू लग गया. जहाँ ये लोग ठहरे थे वो जगह 2 -3 मील दूर थी सरदार जाफरी फिराक साहब के मेहमान थे. कांफ्रेंस के बाद तीनों जब घर जाने के लिए निकले तो गहरा सन्नाटा था . सड़कें सांय -सांय कर रही थीं .तीनों पैंदल ही निकले थे.
इस सन्नाटे में सज्जाद ज़हीर साहब फिराक गोरखपुरी यानी रघुपति सहाय के लिए चिंतित थे, जो चूड़ीदार पायजामा और कश्तीनुमा टोपी पहने लिबास के अनुसार पक्के मुसलमान लग रहे थे. सरदार जाफरी अंग्रेजी सूट पहने और नंगे सर थे ,लिहाजा बिलकुल सुरक्षित और सज्जाद जहीर खद्दर पहने कांग्रेसी लग रहे थे.
सज्जाद जहीर लिखते हैं -” जब हम इलाहबाद की सुनसान सड़कों पर चंद अँधेरे गोशों से गुजरे, दो मुसलमान और एक हिन्दू तरक्की पसंद , तो मैं अपने दिल में सोचने लगा अगर इस वक्त किसी धर्मात्मा को जोश आया तो वह फिराक के लिबास से उन्हें मुसलमान समझ कर उन पर हमला करेगा और अगर मुजाहिदे इस्लाम की रगे-गैरत फड़की तो वह मेरे खद्दर के कुर्ते और पायजामे को कांग्रेसी हिन्दू की वर्दी समझकर पहले मुझ पर अपना ध्यान टिकायेगा. अंग्रेजी कपड़ों की वजह से जाफरी हमसे निस्बतन महफूज थे.”
रविंद्रनाथ टैगोर को नजरूरल इस्लाम के ‘ख़ून’ शब्द पर आपत्ति थी पर मुस्लिम समाज में उस वक्त भी यही प्रचलित शब्द था पर वे खून के बदले रक्त शब्द के हिमायती थे. टैगोर द्रोणाचार्य तो नजरूल अर्जुन थे उनके. पूरे अधिकार और सम्मान से उन्होंने अपने गुरु से कहा कि वे [टैगोर ] खुद टोपी और पायजामा पहनते हैं, लेकिन नाराज मुझसे होते हैं कि खून शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ. इस विषय पर चली चर्चा पर नजरूल ने बिलकुल मजाकिया लहजे में अपने गुरुदेव से पूछा था कि ‘संभ्रांत हिन्दू वंश के लोग पायजामा, शेरवानी, टोपी और कभी-कभी लुंगी का भी इस्तेमाल करने लगे हैं. इस पोशाक को पहनने के लिए उन पर कभी किसी ने आरोप नहीं लगाया, लेकिन वही पोशाक शेरवानी, पायजामा, कुरता जब मुसलमान पहन लेता है तो उसे मियां साहब बुलाया जाता है.’
तो मित्रों, सब पहनिए , सब खाइये, सब रंग आपके हैं. किसी रंग पर किसी का पेटेंट नहीं.
ऐतबार साजिद की सुनिए :
मेरी पोशाक तो पहचान नहीं है मेरी
दिल में भी झाँक मिरी जाहिरी हालत पे न जा
लेखक : अपूर्व गर्ग