विधि अग्निहोत्री, रायपुर/ निशा मसीह, रायगढ़-  रोज़ किसी ना किसी की उपलब्धि हम अख़बार और न्यूज चैनल में देखते व पढ़ते है. अभी हाल ही में आई फिल्म संजू को दर्शकों ने काफी पसंद किया. इस फिल्म में संजय दत्त के जीवन के संघर्ष को दिखाया गया है. लेकिन हन क्यों इन फिल्मी हस्तियों और फेमस लोगों के जीवन में इतनी दिल्चस्पी रखते हैं. क्या हमने कभी कोशिश की है उन लोगों के जीवन संघर्ष को जानने की जो हमारी बिल्डिंग के सुरक्षा गार्ड हैं, जो हमारे अन्नदाता किसान हैं या एक ऑटो चालक है.

आइए लिए चलते हैं आपको रायगढ़ जिले के छोटे से गांव पतरापाली. इस गांव में हर ग्रामीण परिवार की तरह ही 8 लोगों का एक परिवार है. यह एक कृषक परिवार है जिसमें छ: बच्चों के पेट पालने का जिम्मा कृषक पिता पर है, जो दूसरों के खेतों में काम करते तो कभी मज़दूरी करके परिवार का पेट पालते. इसी परिवार की बेटी है पूर्णिमा. 4 बहनों और 2 भाईयों में सबसे छोटी है पूर्णिमा.

पूर्णिमा भी घर के सबसे छोटे बच्चों की तरह शरारती थी और पढ़ाई में काफी तेज़ थी. वह अपने सभी भाई बहनों में सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी है. पूर्णिमा ने 12वीं तक की पढ़ाई की है और आगे भी पढ़ना चाहती थी. लेकिन घर के आर्थिक हालात काफी कमज़ोर थे लिहाज़ा पूर्णिमा भी खेती में पिता का हाथ बटांने लगी. वह खेत में रोपा लगाती, धान काटती और सोचती की कभी ना कभी तो हालात बदलेंगे, उसके भी अच्छे दिन आयेंगे जैसे मोदी सरकार में अन्य लोगों के अच्छे दिन आये हैं.

शायद पूर्णिमा के भी दिन बदलने वाले थे एक दिन ग्रामसभा की बैठक में सरकार की विभिन्न योजनाओं की जानकारी दी जा रही थी. इस सभा में पूर्णिमा के बड़े पिताजी के बेटे जगतराम चौहान भी मौजूद थे. सभा के तुरंत बाद जगतराम पूर्णिमा के घर गये और इसकी जानकारी पूर्णिमा और उसके परिवार को दी. जगतराम ने बताया कि सरकार कि तरफ से लाईवलीहुड कॉलेज चलाए जाते है जहां मुफ्त में बच्चों की रूचि के अनुसार प्रशिक्षण दिया जाता है और कई युवाओं को इससे रोजगार भी मिला है, अच्छी बात यह है कि सरकार ही इस प्रशिक्षण का सारा खर्च उठाएगी.

लेकिन पूर्णिमा के माता-पिता को यह मंज़ूर ना हुआ. उन्होने पूर्णिमा को गांव से बाहर भेजने से इंकार कर दिया. परिवार को पूर्णिमा के बाहर जाकर प्रशिक्षण लेने से गुरेज़ तो था ही कि अब समाज और गांव वाले भी विरोध में आ गए. समाज ने कहा कि अगर पूर्णिमा बाहर जाकर प्रशिक्षण लेगी तो हम पूरे चौहान परिवार का समाज से बहिष्कार कर देंगे. समाज को नागवांरा था कि गांव की लड़की बाहर जाकर काम सिखे. अगर ऐसा हुआ तो पूरे परिवार का गांव में हुक्का पानी बंद कर दिया जाएगा.

 वो कहावत है ना होई है वही जो राम रचि राखा. काफी मिन्नतों के बाद पूर्णिमा के पिता लाईवलीहुड कॉलेज जाकर जानकारी लेने को राज़ी हो गए. पूर्णिमा पिता और भाई के साथ लाईवलीहुड कॉलेज गई. वहाँ सोनू मैडम से मिलकर पूर्णिमा के पिता ने समझा कि बेटी को बाहर भेजकर प्रशिक्षण दिलाने में कोई बुराई नहीं, बल्कि इससे परिवार का ही भला होगा. पूर्णिमा के पिता की सोच अब बदल चुकी थी वे पूर्णिमा को लाईवलीहुड कॉलेज भेजने के लिए राज़ी हो गए. पूर्णिमा के आग्रह पर सोनू मैडम गांव आई और गांव के लोगों को समझाया कि बेटी के बाहर निकलकर अपने पैर पर खड़े होने में कोई बुराई नहीं. मैडम की बात से गांव के कुछ लोग सहमत हुए. लेकिन पूर्णिमा की मां काफी चिंतित थीं कि कैसे वो अपनी बेटी को आनजान लोगों के बीच भेज दे. मैडम ने पूर्णिमा कि मां को भी समझाया. अब पूरा परिवार पूर्णिमा के साथ था. लेकिन गांव के कुछ लोगों ने इस फैसले का जमकर विरोध किया. इस बार पूर्णिमा के पिता का हाथ उसके सर पर था. समाज के दबाव को दरकिनार कर पिता ने पूर्णिमा को लाईवलीहुड कॉलेज भेज दिया.

रायगढ़ में पूर्णिमा ने 3 महिने का फ्रंट रिसेप्सनिस्ट का कोर्स किया. वहाँ शहरों के बड़े-बड़े होटलों में ट्रेनिंग होती थी. वहीं ट्रेनरों को नौकरी के ऑफर भी मिल रहे थे, लेकिन पूर्णिमा को कोई ऑफर नहीं आया. मजबूरन पूर्णिमा को घर लौटना पड़ा. घर आते ही गांव वालों ने पूर्णिमा को ताना मारना शुरू कर दिया. लेकिन पूर्णिमा को उम्मीद थी कि वह अपने मकसद में ज़रूर सफल होगी, वो अब सही समय का इंतेज़ार करने लगी. और जल्द ही पूर्णिमा को मेग्नेटो मॉल में मैक्डोनल्स से नौकरी का ऑफर आया. लेकिन एक बार फिर पूर्णिमा को विरोध का सामना करना पड़ा और मशक्कत के बाद पूर्णिमा रायपुर आकर नौकरी करने लगी. लेकिन यहाँ भी उसका संघर्ष खत्म नहीं हुआ. उसे वेतन कभी 3 हजार मिलता तो कभी 5 हजार. पूर्णिमा इससे संतुष्ट नहीं थी तो कंपनी ने उसे इंदौर भेजा. पर रूढ़िवादी समाज हर बार आड़े आता, लेकिन पिता ने पूर्णिमा का साथ दिया. 20 दिनों की ट्रेनिंग के बाद पूर्णिमा वापस आई और ट्रेनी स्काट के पद पर काम करने लगी. अब उसे 9 हजार रूपये प्रतिमाह मिलने लगे.

लेकिन पूर्णिमा के जीवन में कहां कुछ आसानी से होना था. एक सड़क हादसे में पूर्णिमा का एक पैर टूट गया. ऑपरेशन में डेढ़ लाख का खर्च आना था. पूर्णिमा ने बचत के पैसों, पिता ने कर्ज़ लेकर और कंपनी की मदद से यह ऑपरेशन हो पाया. पाँच महिने काम छोड़कर पूर्णिमा को घर पर ही रहना पड़ा. ठीक होकर पूर्णिमा दोगुने उत्साह के साथ वापस काम पर आई. उसकी मेहनत और आगे बढ़ने की लगन को देखकर कंपनी ने उसे पुणे ट्रेनिंग के लिए भेजा, जहाँ वो सलेक्ट हो गई. अब वह बतौर फ्लोर मैनेजर के पद पर काम कर रही है और 40 कर्मचारियों को लीड करती है. वर्तमान में पूर्णिमा 15 हजार रूपये प्रतिमाह कमा रही हैं. पूर्णिमा कहती हैं कि जो लोग उच्च शिक्षा से वंचित हो गए हैं उनके लिए सरकार की बहुत सारी योजनाएं हैं. जिनका लाभ उठाकर युवा अपना भविष्य गढ़ सकते हैं.

पूर्णिमा कहती हैं कि-

नारी का अर्थ ये नारा है, नारी ने ही जग सवांरा है.

जब नारी में है शक्ति सारी, तो फिर नारी क्यों बेचारी.

क्यों रोकते हैं लोग, क्यों टोकते हैं लोग.

बात तो समानता कि करते हैं पर क्या वाकई हम ऐसा करते है?

पूर्णिमा के वाक्य सुनकर समाज में फैली उस रूढ़िवादिता के दलदल का अंदाज़ा लगाया जा सकता है जिसमें न जाने कितनी लड़कियाँ गिरकर अपने सपनों का दम तोड़ देती हैं. पूर्णिमा आज गांव के सभी लोगों के लिए मिसाल हैं. अपनी इस उपलब्धि का श्रेय पूर्णिमा सरकार को देते हुए कहती हैं कि सरकार की इस योजना ने उसके सपनों के पंखों को उड़ान दी.