500 करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट गया गुजरात
बड़ी कोशिश की थी प्रोक्टर एंड गैंबल ने एमपी में अपना प्लांट लगाने के लिए। मंत्रालय के पांचों माले एक कर दिया, दिन-हफ्ते महीनों तक केबिन-दर-केबिन भटकते रहे लेकिन सीएम साहब की निवेश प्लानिंग पर पानी फिर गया। इस प्रोजेक्ट को किसी सरकारी मदद की जरूरत नहीं थी, लेकिन औपचारिकताओं का पुलिंदा इतना बड़ा हो गया कि कंपनी प्रबंधन ने यहां से रवानगी को बेहर विकल्प समझ लिया। अब यह प्रोजेक्ट गुजरात में लग रहा है और सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली गई हैं। जल्द ही देश की नामी कंपनी गुजरात में अपना प्लांट खड़ा करेगी। सीएम साहब ज़रा इधर-उधर हुए और चंद बाबूओं ने सब बेड़ा गर्क कर दिया। मंत्रालय के गलियारों में अभी भी घूम रहे अन्य निवेशक ये चर्चाएं करते देखे जा सकते हैं कि सीएम साहब जितनी सुविधाएं देते हैं, लालफीताशाही उतने ही बैरियर खड़े कर देती है। ऐसे तो होने से रहा जय मध्यप्रदेश।
बीजेपी का मिला टिकट, वाया जबलपुर
खुलकर न सही लेकिन प्रदेश बीजेपी दफ्तर के गलियारों में टिकट मांगते नजर आने वाले दावेदार आपस में ये चर्चा करते देखे गए कि जबलपुर अब पार्टी का नया मदीना साबित हो रहा है। जबलपुर कनेक्शन निकल जाए तो सब कुछ संभव है। कई टिकट दावेदारों ने जबलपुर से लाइन क्लीयर करके अपनी टिकट फाइनल करवाई। जबलपुर के उत्प्रेरण से हर उलझन खत्म हुई कई लोगों की कोशिश नाकामयाब भी हो गई है। सुना है इटारसी से जिसे नगर पालिका का अध्यक्ष बनाने के लिए चुनाव लड़वाया जा रहा है, उनकी टिकट भी जबलपुर इफेक्ट से ही फाइनल हुई है। फोन सीधे दिल्ली से आया था। अब आप भी समझिए कि दिल्ली ने इटारसी के एक पार्षद टिकट के लिए दिलचस्पी क्यों दिखाई होगी। कुछ लोग अब गाने गा रहे हैं ना बाप बड़ा ना भइया और कुछ लोग दूसरा गाना गा रहे हैं चारों धाम घरवाली है।
एडिशनल डायरेक्टर की कुर्सी का खौफ
राजधानी के एक प्रमुख ब्रिज के करीब स्थित एक डायरेक्टोरेट में दो कुर्सियों पर बैठने के लिए अफसर दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। खौफ यहां के मुखिया का है जो सख्त अंदाज़ के लिए जाने जाते हैं। महकमे में एक से एक काबिल अफसर हैं, कई जुगाड़ू अफसर भी हैं जिनकी दिलचस्पी मूल काम से ज्यादा दफ्तरी और प्रबंधकीय जिम्मेदारियों में है। विभाग में पदोन्नति लिस्ट भी जारी की गई है, कई अफसरों से सीधे संपर्क भी किया गया है, लेकिन इस दफ्तर में बैठने को कोई तैयार नहीं है। यहां अफसर डेपुटेशन से भेजे जाते हैं। साहब के आने के पहले ये दो कुर्सियां मलाईदार कही जाती थीं, लेकिन करीब 6 महीने से ज्यादा का वक्त हो गया केवल कुर्सियां ही नहीं, पूरा केबिन ही धूल खा रहा है। इस दफ्तर में अब यह चर्चाएं हो रही हैं कि साहब के कहीं तबादला होने के बाद ही इन कुर्सियां पर बैठने वाला आएगा।
पूरी वफा करके भी तन्हा रह गए साहब
अफसरों के साथ आमतौर पर ऐसा होता नहीं है, कम से कम बेआबरू होकर कोई रवाना नहीं किया जाता। चंद रोज पहले एक आदेश ऐसे वक्त निकला कि साहब इसे रुसवाई से कम नहीं समझ रहे हैं। साहब ने पूरी तैयारी कर रखी थी, एक इंटरनेशनल फेस्टिवल के लिए दिन रात एक किया था। पूरी मेहनत से महीन तैयारियां की जिससे तनिक भर भी कमी नहीं रह जाए। हुआ भी वही। स्पेशल सूट-बूट के साथ स्पीच तैयार करने में भी दिमाग लड़ाया था साहब ने। आयोजन के बीच में एक रात ही बाकी रह गई कि साहब का तबादला आदेश जारी हो गया। दिल के अरमां आसूंओं में बह गए जैसी हालत हो गई। आंसू भले ही नहीं निकले हों, लेकिन हालत लगभग वैसी ही रही। इन तैयारियां का ताज अब नए साहब के सिर चढ़ाया गया। ऐसा नहीं है कि बड़े अफसरों के बीच चर्चा नहीं हुई, लेकिन तबादला आदेश जिसके निर्देश पर निकाला गया था, वहां दखल की कोई गुंजाइश नहीं है। सो अब, हाथ मलने का अलावा कोई चारा नहीं है।
मंत्री के कब्जे से लाभार्थियों को नुकसान
यह एक ऐसी परेशानी है, जिसका निराकरण इसलिए संभव नहीं क्योंकि निराकरण करने वाला ही परेशानी बना हुआ है। परेशानी में है ग्रामीण और आदिवासी इलाकों के लाभार्थी। इनकी कला को बाजार देने के लिए जिस स्थान में दुकानें दी गई हैं। वहां मंत्रीजी का दफ्तर चल रहा है। सरकारी बंगला नहीं मिलने की दशा में शुरुआत में मंत्रीजी ने यहां अस्थाई बैठक का इंतज़ाम किया था। लेकिन बंगला मिलने के बाद भी बैठक और कब्जा बदस्तूर जारी है। हालांकि विभाग के ही मंत्री के इस्तेमाल की वजह से इसे वैधानिक रुप से कब्जा नहीं कहा जा सकता है। मुसीबत उस दफ्तर की है, जो पहले मंत्रीजी की बैठक स्थल से चलता था। यह दफ्तर लाभार्थियों की दुकानों में शिफ्ट किया गया। इससे कई दुकानें अब दफ्तर बन चुकी है और लाभार्थियों को फायदा नहीं मिल पा रहा है। सारी शिकायतें दिल के अंदर हैं, क्योंकि शिकायत ही कर्ता-धर्ता से है। ज्यादा कुछ इसलिए नहीं कहा जा सकता है कि लाभार्थियों को लाभ देने वाले महकमे के मंत्री है। बस इंतज़ार मंत्रीजी के स्वत: ज्ञान होने का है।
दुमछल्ला…
एमपी में भी रायपुर जैसा एपिसोड शुरू हो गया है। जिस तरह विधानसभा चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ के एक कलेक्टर ने नौकरी से इस्तीफा देकर बीजेपी जॉइन की थी और विधानसभा का चुनाव लड़ा। उसी मंशा से ही एमपी के भी एक आईएएस ने नौकरी त्याग दी है। अब तक सबकुछ दबा-छिपा है, लेकिन हम ये बता दें कि भविष्य में साहब चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। एक सीट भी तय की गई है। साहब ने सबकुछ राज रखा हुआ है, अपनी ब्रांडिंग के लिए भी भारी-भरकम प्लान तैयार किया जा रहा है। साहब की कवायदों को इसलिए गंभीरता से लिया जा सकता है कि त्यागपत्र एक पूर्व सीएम की हरीझंडी के बाद दिया गया है। इंतजार कीजिए आगे की रणनीति का।
(संदीप भम्मरकर की कलम से)