अक्षय कुमार की बेतकल्लुफ अदा

जोशीले, फुर्तीले, बेबाक और तपाक से अपनी बात रखने वाले अक्षय कुमार जब भोपाल में हो रहे नेशनल शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल में पहुंचे तो बड़े ही बेतकल्लुफ नज़र आए। न स्पीच देने में दिलचस्पी दिखाई और न ही उनका खुशमिजाज़ी नजर आई। मौजूद लोगों ने आसानी से महसूस कर लिया कि मिस्टर खिलाड़ी मूड में नहीं हैं। उम्मीद की जा रही थी कि अक्षय कुमार अपनी जोशीली अदा से रंग जमा देंगे और इस फेस्टिवल को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा देंगे। आखिरकार उम्मीद टूट गई और अक्षय का कार्यक्रम में पहुंचना हैडलाइन की बजाय सब हैडलाइन तक सीमित हो गई। बिना पढ़े लंबी मोटीवेशनल स्पीच देने के अपने मिजाज़ के विपरीत अक्षय कुमार ने कागज़ की आठ-दस लाइनें भी पढ़कर 3-4 मिनिट में खत्म कर दी। मामले की तह में जाने पर यह सीक्रेट पता लगा कि मिस्टर खिलाड़ी पर फेस्टिवल में पहुंचने के लिए ज़बरदस्त दबाव बनाया गया था। अक्षय कुमार भोपाल में अपनी फिल्म के शूट में व्यस्त थे और अपने रिदम को तोड़ना नहीं चाहते थे। अनमने से पहुंचे अक्षय कुमार का ऑफ मूड में फेस्टिवल के माहौल का बेड़ा गर्क कर दिया। अक्षय कुमार का माहौल नहीं बना तो ‘भोपाली’ बयान ने खाली जगह भर दी। भले ही आयोजन संघ से जुड़ी संस्था का था और शैक्षणिक संस्थान जैसे परिसर में हो रहा था, लेकिन आयोजन में ‘भोपाली’ शब्द की अशिष्ट व्याख्या ही होती रही। सीधे-सादे अक्षय इसमें कुछ कर न सके।

एक कुर्सी गई, दूसरी की जुगाड़

डीजीपी की कुर्सी की दौड़ में लगे एक अफसर अब भी आस नहीं छोड़ रहे हैं। एक साहब का जुनून उनके जोश और जज्बे से नजर आ रहा है। साहब ने अपने नंबर बढ़ाने के लिए आयोजन के सिलसिले शुरू कर दिये थे। उम्मीद इस बात की थी कि डीजीपी की नियुक्ति होने के बाद ये सिलसिले खत्म होंगे। फिलहाल ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है। आने वाले दिनों में कुछ और इवेंट प्लान किए जा रहे हैं। साहब सीधे सीएम से एप्रोच कर रहे हैं। साहब की टीम इनोवेटिव आइडिया वाले इवेंट प्लान करती है जिससे सीएम साहब खुश हो सकें। पीएचक्यू में तो चर्चाएं शुरू हो गई हैं कि ये सब सीएम की नज़र में चढ़ने के लिए ही हो रहा है। अफसर सिर खुजला कर जवाब तलाशने की कोशिश में है कि जब डीजीपी की कुर्सी नहीं मिली तो नए आयोजन के पीछे क्या वजह हो सकती है, आखिर साहब हैं किस जुगाड़ में? जानने वाले जानते हैं कि साहब को फिज़ूल ही कुछ करने का शौक कतई नहीं है। रचनात्मक मस्तिष्क के धनी साहब अगर कुछ कर रहे हैं तो टारगेट भी क्लीयर ही होगा। आगे-आगे देखिए होता है क्या? 

उच्च शिक्षा विभाग की कारगर युक्ति

सतपुड़ा के घने जंगल ऊंघते-अनमने जंगल… अटपटी-उलझी लताएं… डालियों को खींच खाएं… पैर को पकड़े अचानक… प्राण को कस लें कपाएं… पंडित भवानी प्रसाद मिश्र की ये कविताएं भले ही सतपुड़ा के घने जंगलों पर लिखी गई थीं, लेकिन भोपाल के मंत्रालय के करीब बने सतपुड़ा भवन पर भी कारगर बैठती हैं। यहां के उच्च शिक्षा विभाग के अफसर ऐसी गुत्थी में उलझाते हैं कि नौकरी पर लगा-लगाया आदमी चक्करघिन्नी होकर नौकरी बचाने के लिए सतपुड़ा भवन के चक्कर काटने लग जाता है। पीएचडी की डिग्री के चक्कर में पहले एक दशक पहले डिपार्टमेंट के प्रोफेसरों को उलझाया गया, जिसका सिलसिला अब भी जारी है। हर एक चक्कर में नौकरी सुरक्षित हो जाती है। यही फार्मूला अब नई-नई नौकरी पर लगे असिस्टेंट प्रोफेसरों पर भी अप्लाई कर दिया गया है। नियमों में ऐसा उलझाया गया है कि अभ्यर्थी सतपुड़ा के चक्कर काटने पर विवश हो जाए। ये किसलिए हो रहा है, बताने की ज़रूरत नहीं है। रहनुमाओं को भी फिक्र नहीं है, कोई पूछताछ नहीं हो रही। लिहाज़ा सिस्टम को खुलकर काम करने का मौका मिल रहा है। सतपुड़ा के जंगलों के मामले में कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की इन पंक्तियों पर भी गौर कीजिए… झाड़ ऊंचे और नीचे, चुप खड़े हैं, आंख मीचे… घास चुप है, कास चुप है, मूक शाल, पलाश चुप है… बन सके तो धंसे इनमें, धंस न पाती हवा जिनमें…

कांग्रेसी ठाकुर का परदादा फार्मूला

बात कांग्रेस के एक ऐसे कद्दावर ठाकुर लीडर की जिनकी बीहड़ वाले एक जिले में तूती बोलती है। ठाकुर साहब विचारधारा के मामले में वैसे तो जात-पात-धर्म-समाज से ऊपर हैं। इसलिए उनका नाम इलाकों के नामचीन संत-महात्माओं पंगे लेने में भी सुर्खियों में रहता है। अब तक उन्होंने चुनावी राजनीति में कभी भी धर्म या कर्मकांड का सहारा नहीं लिया है, लेकिन इस बार परदादा का 70 साल पुराना फार्मूला अपना रहे हैं। ठाकुर साहब इस बार अपने विधानसभा क्षेत्र में भागवत कथा करवा रहे हैं। ठाकुर साहब को संकोच था कि उन पर चुनावी राजनीति में धार्मिक आयोजन के सवाल हो सकते हैं, इसलिए उन्होंने अपने पुश्तैनी आयोजन को ढाल बनाया है। वैसे तो 70 साल में कभी भी उन्हें भागवत कथा को पुनर्जीवित करने का ख्याल नहीं आया हो, लेकिन इस बार तन्मयता से तैयारियों में उलझे हैं। अब लीडर भागवत कथा के वक्त भगवा पहनकर धार्मिक रंग में रंगे नजर आएं तो जवाब याद रखिएगा… आयोजन की आधारशिला परदादा जी ने रखी थी।

पुलिस कमिश्नर पर भारी इंदौरी

अपना इंदौरी सब पर भारी। जब पुलिस कमिश्नर सिस्टम शुरू हुआ तो आईएएस लॉबी की नींद उड़ गई। पर कोई है जो इंदौरियों की नींद उड़ा सके। पुलिस कमिश्नर सिस्टम की आड़ में इंदौर के कुछ पुलिस अफसरों ने यहां के कारोबारियों पर नजर डाली तो सबने मिलकर पुलिस कमिश्नर को शिकायत की। शिकायतों पर शिकायतें हुई पर निराकरण नहीं हो रहा था। दरअसल, पुलिस कमिश्नर सिस्टम में ट्रांसफर-पोस्टिंग के अधिकार कमिश्नर के पास ही हैं। इसके बाद सीधे भोपाल ही दखल दे सकता है। इंदौरियों का दिमाग घूमा और ऐसी चकरी चलाई कि सीधे सीएम को संज्ञान लेना पड़ा। फिर सीधे ऑर्डर निकला और दो अफसरों को भोपाल अटैच कर दिया गया। ऑर्डर को अमल करने के लिए पुलिस कमिश्नर साहब को मंजूर छुट्टी छोड़कर दफ्तर लौटना पड़ा। इंदौरियों ने बता दिया कि जिन पॉवर्स के आगे आईएएस अफसरों की भी नहीं चल पाती है, वहां इंदौरी दिमाग काम आता है। इंदौरियों ने पुलिस कमिश्नर सिस्टम के पॉवर को ही धराशायी करके रख दिया। ऐसे हैं अपने इंदौरी भिया लोग।

दुमछल्ला…

एक अफसर मंत्री का भारी दबाव झेल रहे हैं। दबाव इस बात का है कि डिपार्टमेंटल कार्यवाही से बचना है तो बंगले पर चढ़ौत्री चढ़ानी होगी। मामला लंबे अर्से से नेगोशिएशन पर है। निपटारे के लिए अफसर के बैच के दूसरे लोगों से भी खबर पहुंचाई जा रही है। डिमांड बड़ी है इसलिए मामला सेट ही नहीं हो पा रहा है। मंत्री जी तो हां-हूं करके सेटल करने की बात कह देते हैं लेकिन उनके परिवार के दूसरे लोग मानने को तैयार नहीं। बता दें कि मंत्री जी भोपाल के करीब के ही हैं।

(संदीप भम्मरकर की कलम से)

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