रायपुर. छत्तीसगढ़ में पहली बार साहित्यिक संस्था अस्मिता विमर्श की ओर से दलित साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है. इसकी शुरूआत शनिवार को सुबह 11 बजे मायाराम सुरजन स्मृति लोकायन भवन, राजबन्धा मैदान, रायपुर में हुई. सर्वप्रथम संविधान के प्रस्तावना का सामूहिक पाठ किया गया इसके बाद दलित साहित्य सम्मेलन का उदघाटन मुंबई के वरिष्ठ आलोचक अरविंद सुरवड़े ने किया. उदघाटन के बाद अपने अध्यक्षीय उदबोधन में "वर्तमान परिस्थिति में रचनाकारों की भूमिका विषय में बोलते हुए उन्होंने कहा, आज देश में अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों और रचनाकारों पर अघोषित प्रतिबंध है. देश मे दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक-महिला-पत्रकार-बुद्धिजीवियों पर लगातार हमले हो रहे हैं. ऐसे समय मे रचनाकारों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. आज के दौर में रचनाकारों को चाहिए फासीवादी ताकतों का पुरजोर विरोध करें, यही रचनाकारों की आज सबसे प्रमुख भूमिका है. जिस तरह बर्टोल्ड ब्रेख़्त और चार्ली चैपलिन नें मुखरता के साथ विरोध किया उसी मुखरता के साथ आज भारत के रचनाकारों, संस्कृतिकर्मियों को भारत की फासीवादी ताकतों का खुलकर विरोध करना चाहिए.

अध्यक्षीय उदबोधन के पहले संस्था के अध्यक्ष शशांक ढाबरे ने आयोजन का प्रस्तवना रखा. उन्होंने श्रोताओं को बताया कि आज की परिस्थिति में क्यों इस तरह के आयोजनों की आवश्यकता है. आज जब हर तरफ़ निराशाओं का दौर है और फासीवादी शक्तियों का बोलबाला है. ऐसे समय में यह आयोजन लोगों को संबल देगा. लड़ने की इच्छाशक्ति जाग्रत करेगा. उदघाटन के पहले सम्मेलन के अतिथि और अस्मिता विमर्श के सदस्यों द्वारा कलेक्ट्रेट चौक स्थित बाबा साहेब अंबेडकर के प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया. तत्पश्चात आयोजन स्थल पहुंचकर सम्मेलन की शुरुआत की.

दलित रचनाकार दर्ज करा रहे अपनी उपस्थिति – सुबोध मोरे

द्वितीय सत्र में विद्रोही साहित्य सम्मेलन के संस्थापक सदस्य, संस्कृतिकर्मी और पत्रकार मुम्बई निवासी सुबोध मोरे ने दलित साहित्य का उद्गम और वर्तमान स्थिति विषय पर सत्र को संबोधित किया. सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि एक समय था दलित साहित्य को हेय की दृष्टि से देखा जाता था. उसे साहित्य का ही दर्ज़ा देने में तथाकथित साहित्यिक बिरादरी दोयम व्यवहारी करती थी. लेकिन दलित साहित्य ने अपने लेखनी और पक्षधरता के दम पर अपना एक अलग मुकाम बनाया है. इसमें महाराष्ट्र के दलित साहित्यकारों ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई. इनमें अन्ना भाऊ साठे, नामदेव ढसाल, बाबूराव बागुल प्रमुख हैं. इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में हाशिये पर पड़े लोगों के पीड़ाओं को प्रमुखता से उठाया और मनुवाद का पुरज़ोर विरोध किया. इस तरह इन दलित साहित्यकारों दलित साहित्य को महत्वपूर्ण स्थान दिलाया. इनके ही लेखन के प्रभाव से आज पूरे भारत मे दलित साहित्य पर बात होने लगी है और दलित रचनाकार अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहे हैं.

कलाओं में विचार सम्मिलित हो जाए तो तिलमिला जाएगी व्यवस्था – शेखर नाग

इसी सत्र में जाति विनाश में लोक कला और लोक साहित्य की भूमिका विषय पर दूसरे वक्ता और संस्था के सचिव (अस्मिता विमर्श) शेखर नाग अपनी बात रखी. लोक कला और लोक साहित्य प्रगतिशील होता, जबकि दरबारी कलाओं में परिवर्तन की कम गुंजाइश होती, ऐसा उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा. आगे उन्होंने छत्तीसगढ़ और देश की लोक कलाओं का हवाला देते हुए कहा कि लोक कला और लोक साहित्य ने लोक यानी दलितों की आवाज़ को हमेशा बुलंद की है. लोक कलाओं ने जन पक्षधरता का अनोखा उदाहरण पेश करते हुए मनुवादी व्यवस्था की ठोस मुख़ालफ़त की है. अपनी रखते हुए उन्होंने कहा कि लोक कलाओं में विचार अगर सम्मिलित हो जाए तो व्यवस्था को तिलमिला सकती है. विचार लोक कलाओं की धार को और तेज़ कर देती है. उन्होंने हबीब तनवीर और अन्ना भाऊ साठे का उदाहरण पेश करते हुए कहा कि इनके नाटकों में विचारों की प्रधानता थी, जनपक्षधरता थी. इसलिए व्यवस्था इनसे भय खाती थी.

ढूढ़ती है जाति नामों में – कपूर वासनिक

सत्र के अंतिम में बिलासपुर के वरिष्ठ कवि कपूर वासनिक ने कविता की रचना प्रक्रिया पर बात की. उन्होंने कहा कि रचनाकारों को शुरुआत किसी और चीज़ पर धयान नहीं देते हुए सिर्फ़ लेखन पर ही धयान केंद्रित करना चाहिए. वो किस विधा के अंतर्गत आयेगा यह बाद में तय हो जाएगा. उन्होंने कहा कि लगभग रचनाकार अपने लेखन की शुरुवात कविता से करते हैं. अंत में उन्होने अपनी दो छोटी-छोटी कविताओं का पाठ किया-

खानदानी तेरी आदत
ढूढ़ती है जाति नामों में
मेरे लिए तेरे घर
आरक्षित बर्तन कोने में

वो टिफिन लाता था
तीन साथी के लायक रोज ही
मैं नया, उसने पूछा लंच हेतु
मैने मना किया
तीन दिन लगातार यूँही होता रहा
चवथे दिन उसने कहा –
क्या हम चमरे है, जो हमारे साथ नहीं खाते
क्या वे आदमी नहीं होते? मैंने ठनकाया
पांचवे दिन उसने पूछा ही नहीं
मुझे डाकसे आया जयभीम
उस दिन उसने पलटा था

कार्यक्रम में ये हुए शामिल

इस अवसर पर दलित चिंतक डॉ. नरेश साहू, दलित आंदोलन के आशिया, इंजीनियर बसंत निकोसे, राजकुमार रामटेके, भीमटे दंपति, शरद ऊके, वरिष्ठ रचनाकार नरोत्तम यादव, संगीत के उस्ताद नारायण गुरुजी और बड़ी संख्या शहर के बुद्धिजीवी, दलित कार्यकर्ता और साहित्य प्रेमी उपस्थित थे. मंच संचालन नंदा रामटेके और टीना ढाबरे ने किया.

07 जनवरी का कार्यक्रम

कल यानी 07 जनवरी को आयोजन के दूसरे दिन राज्य और देश (खैरागढ़) के वरिष्ठ कवि और गीतकार जीवन यदु, वरिष्ठ कथाकार कैलाश बनवासी, उपन्यासकार किशनलाल और संकल्प पाहाटिया का व्यख्यान और रचनापाठ होगा.

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