लेखक- उमेश मिश्र

छत्तीसगढ़ में 18 साल से ऊपर व 44साल तक युवाओं को कोविड से बचने का टीका नि:शुल्क लगाने का निर्णय लेकर मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने एक ओर जहां न्याय की नई दिशा खोल दी है ,वहीं हर हालत में टीकाकरण की शुरुआत कर के यह संदेश भी दे दिया है कि युवाओं का जीवन सुरक्षित करने के काम वे पीछे नहीं हट सकते,चाहे कितनी भी मुश्किलों का सामना करना पड़े ।

छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने निर्णय के अनुसार 50 लाख डोज टीकों का आदेश दे दिया,इसके विरूद्ध पहली खेप में महज़ एक लाख तीन हजार डोज उपलब्ध होने की स्थिति बनी।टीका निर्माता कंपनियों ने बताया कि संपूर्ण आदेश की आपूर्ति करने को लेकर कोई निश्चित निकट समय सीमा बताना मुश्किल है ।ऐसी स्थिति में एक तार्किक निर्णय लेने की जरूरत थी कि किया क्या जाए ?जरूरत के पचासवें हिस्से की उपलब्धता से न्यायोचित वितरण कैसे हो?

सवाल जब वितरण का हो तो इसके लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दशकों में विकसित , परिष्कृत, प्रचलित पद्धति निश्चित तौर पर एक सुसंगत और निर्विवाद तरीका है ,जिसे बहुत सही सोच के साथ छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनाया है।

यदि जरूरत का पचासवां हिस्सा टीका उपलब्ध हो तो एक विचार ये हो सकता है कि विवाद के डर से अभियान शुरू ही ना किया जाए और जितने लोगों को राहत मिल सकती है ,उसे भी लंबित रखा जाए। लेकिन क्या ऐसा करना उचित होता ,हालाकि कई राज्यों ने ऐसा भी किया है।इसके विपरीत मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने जनहित के उच्च मापदंडों का पालन करते हुए अन्त्योदय परिवारों को प्राथमिकता देने का फैसला किया।

एक बार यह समझ लिया जाए कि अन्त्योदय परिवार का मतलब क्या है तो शायद ही कोई ऐसा होगा जो इस फैसले का स्वागत नहीं करेगा, बल्कि चाहेगा कि अपनी तरफ से और भी कोई मदद कर आए। वास्तव में अन्त्योदय परिवार समाज का वह तबका है जिसकी व्यथा हृदय को द्रवित कर देती है और इंसानियत के तकाजे को जगाती आई है। अन्त्योदय परिवार का आधार जात-पात नहीं बल्कि दुख,दर्द,हताशा, निराशा से उपजी प्राणांतक पीड़ा है ।

इसलिए तकनीकी तौर पर जानना जरूरी है कि माननीय उच्चतम न्यायालय और भारत सरकार के दिशा निर्देशों के आधार पर देश के विभिन्न राज्यों को अपने कार्यक्षेत्र में आर्थिक व सामाजिक रूप से सर्वाधिक कमजोर लोगों की श्रेणी बनाई जाती है ।इन्हीं मापदंडों पर छत्तीसगढ़ राज्य में भी अन्त्योदय परिवारों का निर्धारण किया गया है।इसी परिप्रेक्ष्य में ‘छत्तीसगढ़ खाद्यान्न एवं पोषण सुरक्षा अधिनियम -2012’ के अध्याय-7 में साफ तौर पर परिभाषित किया गया है कि अन्त्योदय परिवारों, प्राथमिकता वाले परिवारों तथा विशेष कमजोर सामाजिक समूहों की पहचान कैसे की जाए ?

इन चिन्हित परिवारों को सामान्य बोलचाल में महागरीब भी कहा जाता है।एक बार इस सूची को देख लिया जाए तो पता चल जाता है कि इन परिवारों का ध्यान रखना सर्वोच्च प्राथमिकता क्यों है।

अन्त्योदय परिवार कहलाने के लिए पात्रता इस प्रकार है-

(क) केन्द्र सरकार द्वारा समय-समय पर यथा अधिसूचित विशेष कमजोर जनजाति समूह के समस्त परिवार;
(ख) समस्त परिवार जिसके मुखिया विधवा अथवा एकाकी महिला हैं;
(ग) समस्त परिवार जिसके मुखिया लाइलाज बीमारी से पीड़ित हैं;
(घ) समस्त परिवार जिसके मुखिया एक निःशक्त व्यक्ति हैं;
(ड.) समस्त परिवार जिसके मुखिया 60 वर्ष या इससे अधिक आयु के हैं, जिनके पास आजीविका के सुनिश्चित साधन या सामाजिक सहायता नही हैं;
(च) समस्त परिवार जिनके मुखिया विमुक्त बंधुआ मजदूर है;
(छ) परिवार का कोई अन्य समूह जैसा कि विहित किया जाए।उदाहरण के लिए आवासहीन व्यक्ति या परिवार ।

इस सूची को देखकर यह भी स्पष्ट होता है कि यह सामान्यतःजाति,धर्म,वर्ण,वर्ग पर आधारित नहीं है ।यह सिर्फ और सिर्फ आर्थिक विपन्नता पर आधारित उन लोगों की सूची है ,जो अपनी देखभाल या स्वावलंबन में असमर्थ हैं और कहीं से मदद लेकर जीवन निर्वाह करना उनकी विवशता है, मजबूरी है।

क्या एक लोकतांत्रिक देश और कल्याणकारी राज्य व्यवस्था में सरकार का यह कर्तव्य नहीं है कि वह इन लोगों की हिफाजत करे? क्या ऐसे महागरीबों की चिंता करने को पक्षपाती होना कहा जाएगा?अगर ऐसा होगा तो इंसानियत की जरूरत ही क्या है? सबसे बड़ी बात यह है कि अन्त्योदय परिवारों से किसकी प्रतिस्पर्धा हो सकती है? इन मुसीबत के मारों का तो किसी जाति-धर्म से कोई लेना-देना ही नहीं है।
फिर ऐसा कोई कैसे कह सकता है कि इनको मदद करके कोई पक्षपात हो रहा है।
कौन नहीं चाहेगा कि गंभीर असाध्य बीमा…

लेखक उमेश मिश्र,
संयुक्त सचिव, छत्तीसगढ़ शासन तथा संवाद के एडीशनल सीईओ

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