लखनऊ। दीपावली पर दीये और मोमबत्ती की खरीद को फिजूलखर्ची बताने वाले समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव को आम जनता के तीखे प्रतिरोध और कड़ी निंदा का सामना करना पड़ा है। ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर लोगों ने इसे अखिलेश यादव की सनातन विरोधी मानसिकता का नया सबूत बताया। सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं ने अखिलेश के इस बयान को ऐसे रूप में देखा है जो धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं का अपमान करता है।मालूम हो कि अयोध्या के दिव्य दीपोत्सव के सन्दर्भ में सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने कहा है कि पूरी दुनिया में क्रिसमस के दौरान शहर महीनों तक जगमगाते रहते हैं, हमें उनसे सीखना चाहिए। हमें दीयों और मोमबत्तियों पर इतना पैसा खर्च नहीं करना चाहिए।

सपा के मूल में ही सनातन विरोध है

सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में लोगों ने इसे गंभीर मामला बताते हुए कहा है कि समाजवादी पार्टी के मूल में ही सनातन विरोध है। वोटबैंक और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण इस पार्टी के वैचारिकी का आधार है। इनका डीएनए सनातन विरोधी है। सपा के हाथ रामभक्तों के खून से रंगे हुए हैं। मुलायम सिंह यादव हों या अखिलेश यादव अथवा पार्टी के अन्य नेता, इनके बयान और निर्णय अक्सर धार्मिक भावनाओं के विपरीत रहे हैं। लोगों का कहना है कि यह केवल एक बयान नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी की नीति और राजनीतिक सोच का हिस्सा है।

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समाजवादी पार्टी सनातन विरोधी

विश्लेषकों के अनुसार, अखिलेश यादव का यह बयान केवल क्रिसमस-दीया विवाद तक सीमित नहीं है। पिछले वर्षों में उन्होंने कई बार सनातन परंपराओं और धार्मिक प्रतीकों को लेकर विवादास्पद टिप्पणी की है। उदाहरण के लिए, उन्होंने कहा था कि हिंदू धर्म में कहीं भी पत्थर रख दो, पीपल के नीचे लाल झंडा लगा दो तो मंदिर बन जाता है। इसी तरह उन्होंने मठाधीशों और माफियाओं की तुलना करते हुए कहा था कि मठाधीश और माफिया में कोई ज्यादा फर्क नहीं होता। जाहिर है, ऐसे बयान समाजवादी मानसिकता और धर्म के प्रति दृष्टिकोण को उजागर करते हैं।

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वोटबैंक राजनीति की रणनीति उजागर

सपा शासनकाल में प्रशासनिक फैसलों ने भी विवाद खड़ा किया। कब्रिस्तानों की बाउंड्री पर करोड़ों रुपये खर्च करना, कांवड़ यात्रा पर रोक लगाना और राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से दूरी बनाए रखने को भी सपा के अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और सनातन विरोधी होने से जोड़ा जाता रहा है। इस बयान के संदर्भ में राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अखिलेश यादव की टिप्पणियाँ केवल धर्म या संस्कृति पर टिप्पणी नहीं हैं, बल्कि उनकी वोटबैंक राजनीति की रणनीति को भी उजागर करती हैं। भाजपा जहां धर्म और आस्था को अपने वैचारिक आधार के रूप में प्रस्तुत करती है, वहीं सपा बार-बार ऐसे बयान देती दिखती है जो परंपरागत प्रतीकों से टकराते हैं।

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विशेषज्ञों का कहना है कि अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक शैली से आगे बढ़ते हुए अब खुलकर ऐसी राजनीति कर रहे हैं, जिसमें धार्मिक प्रतीकों और सांस्कृतिक परंपराओं के साथ टकराव को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। उनके फैसले और बयान न केवल राजनीतिक बहस का विषय बनते हैं, बल्कि समाज और सांस्कृतिक संवेदनाओं में भी हलचल पैदा करते हैं। क्रिसमस-दीया विवाद केवल एक बयान तक सीमित नहीं है। यह समाजवादी राजनीति और सनातन प्रतीकों के बीच वर्षों से चल रहे वैचारिक और सांस्कृतिक टकराव का नया अध्याय है। दीपोत्सव की रौशनी में यह बयान चाहे धुंधला पड़ जाए, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इसके प्रभाव और चर्चा लंबे समय तक बनी रहेगी।

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इस विवाद ने सपा और भाजपा के बीच राजनीतिक टकराव की पुरानी तस्वीर को फिर से उभार दिया है। जहां आम भाजपा नेताओं ने इसे सनातन परंपराओं और धार्मिक भावनाओं की रक्षा का मुद्दा बनाया है, वहीं सपा इसे अपनी राजनीतिक आलोचना का हिस्सा बता रही है। विशेषज्ञ मानते हैं कि आने वाले महीनों में यह विवाद चुनावी रणनीतियों और राजनीतिक बहसों में लगातार उभरता रहेगा।